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    शारदीय नवरात्र के साथ पूरे देश में छा जाता है डांडिया का डंका, शक्तिपूजन का खास अनुष्ठान है गरबा

    Updated: Sun, 21 Sep 2025 03:08 PM (IST)

    नवरात्र का त्योहार देशभर में धूमधाम से मनाया जाता है। इसके साथ ही डांडिया बीट्स के दिन-रात लौट आए हैं। दरअसल गुजराती लोकसंस्कृति की यह लहर शारदीय नवरात्र में देश में ही नहीं विदेश में भी व्याप्त हो जाती है। पढ़िए डांडिया की उमंग में पगा मालिनी अवस्थी का आलेख।

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    क्या है गरबा और डांडिया का महत्व? (Picture Courtesy: Freepik)

    मालिनी अवस्थी, नई दिल्ली। हे नाम रे सबसे बड़ा तेरा नाम, ओ शेरा वाली ऊंचे डेरा वाली, बिगड़े बना दे मेरे काम नाम रे...। कुछ दिनों से हमारे पड़ोस में बहुत जोर-शोर से डांडिया का संगीत बज रहा है। प्रतिदिन नियम से लगभग दोपहर के तीन बजे से गाने की आवाजें आनी आरंभ हो जातीं है। गीत सुनकर मुझे अचरज हुआ, पितृपक्ष चल रहे हैं, ऐसे में इतने तेज गाने!

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    अगले दिन फिर वही गानों के स्वर कान में पड़े, तो मैंने पड़ोस में पुछवाया, आखिर मामला क्या था, मांगलिक अवसर तो नहीं होगा, फिर यह प्रतिदिन फिल्मी संगीत क्यों बजता है वह भी घंटों! जवाब मिला, ‘अरे मालिनी जी, कालोनी की लगभग 20-25 महिलाएं अपनी बेटियों के साथ डांडिया और गरबा के ‘स्टेप्स’ सीख रही हैं। सिखाने के लिए बाहर से प्रोफेशनल कलाकार आते हैं।’ उनका उल्लास देख मैं भी मगन हो गई, यही तो जीवन का रस है।

    वाकई, नवरात्र अभी आई नहीं, लेकिन शहर भर में डांडिया नाइट के पोस्टर पटे हुए हैं। क्या होटल वाले, और क्या शापिंग मॉल वाले, सब डांडिया नाइट की तैयारी और प्रचार में लगे हैं। रेडियो हो या इंस्टाग्राम, अमुक दिन यहां तो कहीं वहां डांडिया नाइट, डांडिया ‘फीवर’ सब इसी सूचनाओं से पटा पड़ा है। क्या बच्चे, क्या युवा और क्या बूढ़े, सब डांडिया के उत्साह में लबरेज हैं।

    कोई परिवार और दोस्तों के लिए डांडिया नाइट के लिए पास जुटाने की जुगाड़ में व्यस्त है तो कोई इस बहस में जुटा है कि शहर में सबसे बेहतरीन डांडिया कहां होगा! नई घाघरा-चोली बनाई, जुटाई, खरीदी जा रही है, तो लड़के भी कहां पीछे हैं, सो डिजाइनर कुर्ते-पायजामे खरीदे जा रहे हैं। नवरात्र में गरबा और डांडिया नाइट में परिवार हो या मित्र, सहेलियों के संग देर रात तक उत्सव गरबे की उमंग से लखनऊ क्या, पूरा देश भीगा हुआ है।

    20वीं शताब्दी के सातवें दशक की बात है। विद्यालय के गोल मैदान में, मैं और मेरी सहेलियां गोलाकार वृत्त में गरबा खेलती हुई... विद्यालय की संगीत शिक्षिका मिस कुंडू की आवाज माइक पर गूंज रही है। मेहंदी ते वावी मालवे ने एनो रंग गयो गुजरात, मेहंदी रंग लाग्यो रे...

    तब हम यही जानते थे गरबा और डांडिया गुजरात का लोकनृत्य है, जिसमें स्त्री-पुरुष मिलकर खेलते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक बंगाली शिक्षिका गुजराती गीत पर हम सबको गरबा सिखा रही थीं, भारत का यही सांस्कृतिक सौंदर्य मेरे जीवन की दीपशिखा बना।

    उस समय तक गरबा हमने सिर्फ फिल्मों में देखा था। फिल्म ‘सरस्वती चंद्र’ में प्रेम में सराबोर नव विवाहिता नूतन का अपनी सखियों संग नृत्य करना मन को कैसा आह्लाद देता है। लता जी के कंठ और नूतन जी के जीवंत अभिनय के मणिकांचन संयोग से इस गीत में जैसे सौभाग्य बरस रहा हो,

    मैं तो भूल चली बाबुल का देस, पिया का घर प्यारा लगे

    कोई मैके को दे दो संदेस पिया का घर प्यार लगे।

    वह तब था, आज डांडिया का जादू गुजरात से निकलकर पूरे भारत पर छा चुका है। बतौर कलाकार मेरा बहुत दिलचस्प अनुभव रहा है। मुझे याद है आज से 15 साल पहले मुझे डांडिया के कार्यक्रम के लिए इंदौर बुलाया गया और अगले वर्ष मुंबई और सूरत। धीरे-धीरे डांडिया के कार्यक्रम में गायन प्रस्तुति के लिए कानपुर, दिल्ली, लखनऊ के प्रस्ताव आने लगे।

    गुजरात के शहरों और मुंबई में हम अधिकतर गुजराती गरबा गाते, लेकिन दिल्ली और अन्य जगहों पर डांडिया की लय पर लोग फिल्म के गीत सुनना पसंद करते। पुराने फिल्म के गानों से लेकर आज के गीतों तक। ‘भोली सूरत दिल के खोटे’ से लेकर ‘जोगिरा तारा’ तक!

    डांडिया आज जितना अभिजात्य यानि इलीट समाज में लोकप्रिय है उतना ही नई पीढ़ी में। लेकिन पर्व मनाते हुए गरबा और डांडिया के पीछे का अर्थ समझना जरूरी है। ‘गरबा’ शब्द संस्कृत के ‘गर्भ’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है गर्भ या जीवन। गरबा जीवन के चक्र का प्रतीक है। यह मुख्य रूप से देवी दुर्गा की पूजा के लिए नवरात्र उत्सव में एक मिट्टी के लालटेन (गर्भदीप) के चारों ओर किया जाता है, जिसमें प्रकाश होता है। यह गर्भदीप स्त्री की सृजन शक्ति और सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।

    गरबा और डांडिया शक्ति पूजन के अनुष्ठान हैं। दोनों ही गुजराती संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं। यह एक प्रकार का रास है। वही रास जिसकी परंपरा द्वापर युग में भगवान कृष्ण और गोपिकाओं से चली आ रही है। वर्तमान डांडिया और गरबा में एक तरफ लोग मां अंबे के आने की प्रसन्नता मनाते हैं, और साथ ही महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के अजेय रूप को नृत्य कर पूजते हैं।

    कई बार लोगों को गरबा और डांडिया एक जैसे लग सकते हैं जबकि इन दोनों की शैलियों, लय और अवसरों में काफी अंतर है। ये दोनों ही दो अलग-अलग कहानियों को कहते हैं। कभी हम सुनते थे कि गुजरात में अहमदाबाद, बड़ौदा, सूरत में रात-रात भर डांडिया खेला जाता है, स्त्री-पुरुष ही नहीं पूरा परिवार, तीनों पीढ़ियां मिलकर साथ नृत्य करती हैं। आज यह नजारा पूरे भारत वर्ष में दिखता है। सच पूछिए तो यही तो उत्सव है! जहां पूरा परिवार एक साथ हो।

    भारत उत्सवधर्मी देश है, शायद यही कारण है कि डांडिया की व्यापकता आज पूरे भारत और विदेश में फैल गई है। क्या महाराष्ट्र, क्या दिल्ली, क्या उत्तरप्रदेश या पंजाब, हर तरफ डांडिया छाया हुआ है। देवी के आगमन के स्वागत को हर घर में पूजा की चहल-पहल आरंभ हो जाती है। साफ-सफाई, पूजा व्रत के लिए फल-फूल, नारियल, कलश आदि व्रत अनुष्ठान की खरीदारी, इस उत्सवी माहौल में एक नया रंग जुड़ गया है डांडिया का। मन को गुदगुदाने वाला, सबको रिझाने वाला, उत्सवी डांडिया!

    गरबा, मां अंबे के आगमन की प्रसन्नता का उत्सव है। भक्त देवी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए इसमें हाथ और पैर एक लयबद्ध संगत के रूप में ताली बजाते हुए गोलाकार गति से चलते हैं। गरबा नृत्यशैली जीवन की गोलाकार गति और जीवन चक्र का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें देवी दुर्गा अजेय रहती हैं। डांडिया हो या गरबा नृत्य, इनसे पहले देवी की आराधना की जाती है।

    फिर देवी मां की प्रतिमा या तस्वीर के सामने मिट्टी के कलश में छेद कर दीप प्रज्वलित किया जाता है। कलश में चांदी का सिक्का भी डाला जाता है। इसी दीप की हल्की रोशनी में डांडिया और गरबा किया जाता है। हालांकि, आधुनिक समय में कलश की रोशनी की जगह चमक-दमक भरी बिजली की लाइटों ने ले ली है, किंतु भाव शक्ति आराधना का ही रहता है।

    डांडिया नृत्य में सजी हुई लकड़ी की छड़ियों को एक-दूसरे पर, एक दूसरे के साथ बजाते हुए संगीत की थाप पर नृत्य करते हैं। यह देवी दुर्गा और महिषासुर के बीच युद्ध का प्रतीक है, जहां छड़ियां देवी की तलवार का प्रतीक हैं!

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