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    Jharkhand Politics: चले गए शिबू सोरेन, अब होगी हेमंत की असली परीक्षा; दबाव से मुक्त हुई भाजपा

    Updated: Fri, 08 Aug 2025 04:41 PM (IST)

    झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन के निधन से राज्य की राजनीति में एक खालीपन आ गया है। वे आदिवासी अस्मिता के प्रतीक थे और उनका प्रभाव व्यापक था। भाजपा के पास आदिवासी चेहरे तो हैं लेकिन शिबू सोरेन जैसा जन समर्थन नहीं है। हेमंत सोरेन को अब अपने पिता की तरह लंबी राजनीतिक पारी खेलनी होगी क्योंकि उनके बिना अब राजनीतिक समीकरण बदलेंगे।

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    चले गए शिबू सोरेन, अब होगी हेमंत की असली परीक्षा; दबाव से मुक्त हुई भाजपा

    मृत्युंजय पाठक, रांची। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के संस्थापक दिशोम गुरु शिबू सोरेन के निधन ने झारखंड की राजनीति में एक महत्वपूर्ण रिक्तता उत्पन्न कर दी है। वे केवल एक आदिवासी नेता नहीं थे, बल्कि आदिवासी अस्मिता और आंदोलन के प्रतीक भी थे। भारतीय जनता पार्टी के पास बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा जैसे आदिवासी चेहरे हैं, लेकिन शिबू सोरेन जैसा व्यापक जनआधार और प्रभाव नहीं है।

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    शिबू सोरेन के आभामंडल में उनके पुत्र मुख्यमंत्री व झामुमो अध्यक्ष हेमंत सोरेन ने पिछले दो झारखंड विधानसभा चुनावों में भाजपा को पराजित किया। अब भाजपा शिबू सोरेन के दबाव से मुक्त होकर नई रणनीति तैयार कर सकती है।

    दूसरी ओर, हेमंत सोरेन अब अपने पिता की तरह लंबी लकीर खींचने की ओर अग्रसर होंगे। बिन दिशोम गुरु झारखंड की राजनीति अब नए समीकरणों की ओर अग्रसर होगी, जहां नए नेता होंगे, लेकिन तुलना हमेशा शिबू सोरेन से ही की जाएगी।

    भाजपा के पास चेहरे हैं, प्रभाव नहीं:

    यह कहना उचित होगा कि भाजपा के पास बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा जैसे आदिवासी नेता हैं। बाबूलाल झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं और उन्होंने शिबू सोरेन को उनके गढ़ दुमका से लोकसभा चुनाव में पराजित किया था। अर्जुन मुंडा भी कई बार मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं।

    झामुमो के पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन भी अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं। फिर भी, भाजपा के ये नेता वह जनभावनात्मक जुड़ाव और जमीनी समर्थन नहीं बना सके जो शिबू सोरेन को आदिवासियों के बीच प्राप्त था। शिबू का व्यक्तित्व केवल चुनावी आंकड़ों तक सीमित नहीं था, बल्कि झारखंड अलग राज्य निर्माण और महाजनी प्रथा के विरोध में उनका संघर्ष आदिवासी समाज के लिए स्वाभिमान का प्रतीक बन चुका था।

    मनोवैज्ञानिक दबाव से मुक्त हुई भाजपा:

    अब जब दिशोम गुरु नहीं रहे, भाजपा के लिए यह एक मनोवैज्ञानिक रूप से दबावमुक्त माहौल है। पहले हर चुनाव में भाजपा को शिबू सोरेन के आभामंडल से टकराना पड़ता था, जो आदिवासी इलाकों में भाजपा की पैठ के लिए सबसे बड़ी बाधा बनता था। अब यह दीवार नहीं है।

    हालांकि, भाजपा को अब भी उस स्तर का आदिवासी चेहरा विकसित करना होगा जो शिबू के खाली स्थान को भरने के लिए तैयार उनके पुत्र हेमंत सोरेन का मुकाबला कर सके।

    हेमंत के लिए अब असली परीक्षा की घड़ी:

    मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पिछले दो चुनावों में भाजपा को पराजित किया है, लेकिन उनके पीछे शिबू सोरेन की बनाई मजबूत जमीन थी। अब उन्हें बिन पिता के छांव के अपनी राजनीतिक यात्रा को आगे बढ़ानी होगी। हेमंत के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने पिता की तरह एक दीर्घकालिक भरोसेमंद नेतृत्व का उदाहरण प्रस्तुत करें, अन्यथा भाजपा और अन्य दल इस शून्यता का लाभ उठाने का प्रयास करेंगे।

    समय के साथ यह स्पष्ट होगा कि राजनीति की धारा किस दिशा में जा रही है। फिर भी, शिबू सोरेन का निधन झामुमो और झारखंड की राजनीति को भी नए सिरे से परिभाषित करेगा। राज्य की राजनीति अब एक नई पीढ़ी के नेतृत्व, नई रणनीतियों और नए समीकरणों के साथ आगे बढ़ेगी।

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