Shibu Soren: गहराती रात...भीड़ में कोई बेचैनी नहीं, शिबू सोरेन की अनसुनी गुमनाम कहानी
यह लेख शिबू सोरेन के साथ लेखक के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है। लेखक 2002 से शिबू सोरेन से जुड़े रहे और उनकी सादगी स्पष्टवादिता और लोगों के प्रति उनके स्नेह से प्रभावित हुए। लेखक ने गुवा गोलीकांड की बरसी पर शिबू सोरेन के भाषण और उनके साथ हुई विभिन्न मुलाकातों का वर्णन किया है। शिबू सोरेन का सरल स्वभाव और सभी के प्रति सम्मान उन्हें खास बनाता है।

प्रदीप सिंह, रांची। सितंबर 2002 की बात है। मैं तब जमशेदपुर में एक टीवी चैनल के लिए काम करता था। पश्चिमी सिंहभूम के गुवा में गोलीकांड की बरसी पर एक सभा आयोजित थी। वहां दिशोम गुरु शिबू सोरेन की गर्जना गूंजने वाली थी। सभा का समय शाम का था और हमारे साथ पत्रकारों की टीम जमशेदपुर से लगभग 150 किलोमीटर का सफर तय करके समय पर गुवा पहुंच गई। मैदान खचाखच भरा था।
हजारों की संख्या में लोग, बूढ़े, जवान, पुरुष और महिलाएं, जो अपने बच्चों को पीठ पर तौलिया बांधे आए थे, शिबू सोरेन की एक झलक पाने और उनका भाषण सुनने के लिए बेताब थे। रात गहराती जा रही थी। घड़ी में डेढ़ बज चुके थे, लेकिन भीड़ में कोई बेचैनी नहीं थी। यह शिबू सोरेन के प्रति लोगों की अटूट आस्था थी। जब वे मंच पर आए, तो जय झारखंड और वीर शिबू जिंदाबाद के नारे रात के सन्नाटे को चीरते हुए गूंज उठे।
उनकी सरल मुस्कान और दाढ़ी सहलाने का उनका अनोखा अंदाज सभी को मंत्रमुग्ध कर रहा था। जैसे ही उन्होंने हाथ हिलाया, भीड़ का उत्साह चरम पर पहुंच गया। शिबू ने गोलीकांड के शहीदों को याद किया और आदिवासियों से शोषण के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया।
उनकी आवाज में गहराई थी जो घंटों इंतज़ार की थकान को पल भर में गायब कर देती थी। मैं, एक युवा पत्रकार, कैमरे के पीछे खड़ा, उस पल को कैद करते हुए सोच रहा था—यही तो शिबू सोरेन का आकर्षण है, जो रात के डेढ़ बजे भी हज़ारों दिलों को जोड़ देते हैं।
वे बेबाकी से बोलते हैं, लेकिन उनका अंदाज नहीं बदला
गुवा में उस मुलाक़ात के बाद, शिबू सोरेन के कई कार्यक्रमों के अलावा, उनसे मेरी मुलाक़ातें नियमित हो गईं। उनकी सादगी और बेबाकी कभी नहीं बदली। एक पत्रकार के तौर पर, जब भी मैं उनसे सवाल पूछता, वे बिना किसी हिचकिचाहट के जवाब देते। उनकी नजरें सबकी तरफ़ देखतीं और उनके हाव-भाव गहरे संदेश छिपाते। एक बार वे जमशेदपुर के सर्किट हाउस में धूप में बाहर बैठे थे। उनसे मिलने के लिए कई नेता कतार में खड़े थे। चंपई सोरेन, दुलाल भुइयां, मोहन कर्मकार भी वहां बैठे थे।
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मुझे देखते ही उन्होंने इशारे से बुलाया और पूछा- कैसे हो? उनके दोस्ताना अंदाज ने मुझे अभिभूत कर दिया। बातचीत में उनके शब्दों का चयन ठोस और स्पष्ट था। एक बार मैंने उनसे लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बारे में पूछा। उनका जवाब इतना स्पष्ट था कि उनके करीबियों ने मुझसे अनुरोध किया कि इसे प्रकाशित न करूं।
उन्हें डर था कि इस जवाब से राजनीतिक रिश्ते प्रभावित हो सकते हैं। लेकिन शिबू की स्पष्टवादिता ही उनकी ताकत थी। वे सच को सच कहने में कभी नहीं हिचकिचाते थे। उनकी आंखें और हावभाव हर बार कुछ कह जाते थे। वे सभी को देखते, समझते और सम्मान देते थे।
पिता जैसा स्नेह
हर मुलाकात के साथ बढ़ता गया सम्मान शिबू सोरेन सिर्फ एक नेता नहीं, बल्कि एक अभिभावक थे। अपनी मुलाकातों के दौरान वे सभी से उनके परिवार के बारे में पूछते थे। उनकी यही आदत उन्हें जनता के करीब लाती थी। सत्ता के शिखर पर हों या मुश्किल दौर से गुजर रहे हों, उनका व्यवहार कभी नहीं बदला। एक बार मैं दुमका में झामुमो के स्थापना दिवस समारोह के दौरान उनसे मिलने गया था। वे खेती-किसानी का काम देख रहे थे।
उनके साथ मौजूद झामुमो महासचिव विनोद पांडेय ने मुझसे कहा कि वे मुझसे बात करना चाहते हैं। अस्वस्थ होने के बावजूद उन्होंने सहमति जताई। उनकी आवाज में कमजोरी थी, लेकिन उत्साह वही था। उन्होंने कहा- हेमंत अच्छा काम कर रहे हैं। आप लोग भी उनका ख्याल रखें। यह उनकी दूरदर्शिता थी, जो अपने बेटे के नेतृत्व में झारखंड का भविष्य देख रहे थे। मेरी उनसे आखिरी मुलाकात 10 जून 2025 को मोरहाबादी स्थित उनके सरकारी आवास पर हुई थी।
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रांची के संपादकीय प्रभारी शशि शेखर और महाप्रबंधक परितोष झा भी उनके साथ थे। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी, फिर भी उन्होंने मुझे बुलाया। जब हमने झुककर प्रणाम किया, तो उन्होंने हाथ उठाकर हमें आशीर्वाद दिया। उस क्षण मुझे अपने पिता की याद आ गई, जिनका निधन 21 अप्रैल को हुआ था। शिबू सोरेन का दायरा इतना विस्तृत था कि वे सबके अपने थे। उनकी निगाहें और उनका स्नेह हर दिल को छू गया।
उसी समय स्टीफन दा उनसे मिलने आए और संताली परंपरा के अनुसार उन्होंने मुट्ठी भींचकर शिबू सोरेन को जोहार कहा। शिबू सोरेन ने उन्हें अपने पास बैठने का इशारा किया। दुमका विधायक बसंत सोरेन और झामुमो महासचिव विनोद पांडेय भी इस पल के गवाह बने।
मोरहाबादी आवास पर निगरानी में खेती
एक बार मैंने उन्हें रांची स्थित उनके मोरहाबादी आवास पर खेती करते देखा। उनके बगीचे के पेड़ों पर आम लदे हुए थे। वर्ष 2013 में, जब हेमंत सोरेन पहली बार मुख्यमंत्री बने, तो उनका आवास राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। मैंने मुस्कुराते हुए कहा - गुरुजी, इतने आम उग आए हैं, हमें भी कुछ दे दीजिए। उन्होंने हंसते हुए कहा - धैर्य रखें, मिल जाएगा।
उनकी सादगी ही थी जो उन्हें एक किसान की आत्मा और एक नेता के करिश्मे का अनूठा संगम बनाती थी। वे न केवल झारखंड की मिट्टी से जुड़े थे, बल्कि उनसे मिलने वाले हर व्यक्ति से भी जुड़े थे। शिबू सोरेन का पूरा जीवन संघर्ष, सादगी और स्नेह की कहानी है। शराबबंदी, शिक्षा और स्वावलंबन के उनके संदेश आज भी झारखंड के गांवों में गूंजते हैं।
नोट- यह लेख शिबू सोरेन के साथ लेखक के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है।
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