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    New Device: कुछ मिनटों में होगी पार्किंसन की पहचान, RIMS और BIT मेसरा का बड़ा आविष्कार

    Updated: Tue, 30 Sep 2025 07:59 PM (IST)

    रांची के रिम्स और बीआईटी मेसरा के वैज्ञानिकों ने पार्किंसन बीमारी का पता लगाने के लिए एक नया डिवाइस बनाया है। यह डिवाइस पीडीडी-01 आवाज के विश्लेषण से कुछ ही मिनटों में पार्किंसन का पता लगा सकता है। यह डिवाइस एआई पर आधारित है और हिंदी भाषा के शब्दों का उपयोग करता है। इस तकनीक से पार्किंसन का जल्द पता लगने और इलाज शुरू करने में मदद मिलेगी।

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    कुछ मिनटों में होगी पार्किंसन की पहचान। फाइल फोटो

    अनुज तिवारी, रांची। अब पार्किंसन जैसी जटिल बीमारी का पता लगाने में वर्षों नहीं, सिर्फ कुछ मिनट ही लगेंगे। यह चमत्कार कर दिखाया है रांची के दो प्रतिष्ठित संस्थान रिम्स (राजेन्द्र आयुर्विज्ञान संस्थान) और बीआइटी मेसरा के वैज्ञानिकों ने।

    इन दोनों संस्थानों के संयुक्त प्रयास से एक अनोखा सेंसर बेस्ड डिवाइस पीडीडी-01 (पार्किंसन डिजीज डिवाइस) तैयार किया गया है, जो सिर्फ आवाज (स्पीच) के आधार पर पार्किंसन की पहचान कर सकता है।

    यह डिवाइस मेडिकल साइंस में एक बड़ी क्रांति के रूप में देखा जा रहा है। डिवाइस बनाने में महज 1.5 लाख रुपये का खर्च आया है। एक यूनिट की लागत करीब 1000 रुपये के आसपास होगी, जिससे यह हर डाक्टर की पहुंच में रहेगा।

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    फिलहाल इसे आइपीआर से पेटेंट कराने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। मालूम हो कि पार्किंसन एक न्यूरोलाजिकल डिसआर्डर है जो मस्तिष्क की गतिशीलता को प्रभावित करता है। यह बीमारी धीरे-धीरे विकसित होती है और आमतौर पर 40 वर्ष की उम्र के बाद दिखाई देती है।

    इस डिवाइस ने न सिर्फ रिम्स और बीआइटी मेसरा, बल्कि पूरे झारखंड को विश्वस्तर पर पहचान दिलाई है। आने वाले दिनों में यह डिवाइस देशभर के क्लीनिकों, सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में देखने को मिलेगा।

    यूरोप से मिली प्रेरणा 

    इस डिवाइस की प्रेरणा यूरोप में चल रहे स्पीच एनालिसिस आधारित रिसर्च से मिली। वहां वैज्ञानिकों ने देखा कि पार्किंसन मरीजों की आवाज में एक खास बदलाव होता है, जो बीमारी के शुरुआती संकेत हो सकते हैं।

    इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए बीआइटी मेसरा के इलेक्ट्रानिक्स एंड कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग विभाग के डॉ. सितांशु साहू और पीएचडी छात्र विवेक कुमार पांडेय ने रिम्स निदेशक सह न्यूरोसर्जन डॉ. राजकुमार, क्रिटिकल केयर यूनिट के हेड डॉ. प्रदीप भट्टाचार्य, न्यूरोलाजिस्ट डॉ. सुरेंद्र कुमार और बायोकेमिस्ट्री के डॉ. साकेत वर्मा के साथ मिलकर इस डिवाइस पर पांच साल तक काम किया।

    बीआइटी के छात्र विवेक पांडेय बताते हैं कि शुरुआत के दो वर्ष तो सिर्फ इस बीमारी व डिवाइस को लेकर चर्चा होती रही। इसके बाद जनवरी 2023 से इस पर काम शुरू हुआ और अभी जाकर यह पूरा हुआ है।

    इस डिवाइस को रिम्स के न्यूरोलाजिकल ओपीडी में करीब 100 मरीजों और सामान्य लोगों पर प्रयोग किया गया। नतीजे संतोषजनक रहे और डाक्टरों ने इसे रोग की प्रारंभिक पहचान में बेहद कारगर पाया है।

    डॉ. प्रदीप भट्टाचार्य ने बताया कि पीडीडी-01 सिर्फ एक डिवाइस नहीं, बल्कि न्यूरोलाजी की दुनिया में एक क्रांतिकारी कदम है। यह उन लाखों मरीजों के लिए उम्मीद की नई किरण है, जो अभी तक मंद गति से बढ़ने वाली इस बीमारी से जूझ रहे थे, पर पहचान न हो पाने की वजह से उचित इलाज से वंचित रह जाते थे। अब यह सब बदलेगा और आवाज ही बताएगी, बीमारी है या नहीं।

    क्या है पीडीडी-01 डिवाइस

    बीआइटी के डॉ. सितांशु साहूू बताते हैं कि पीडीडी-01 एक छोटा, मोबाइल की तरह हाथ में पकड़ा जा सकने वाला, करीब 300 ग्राम वजनी सेंसर-बेस्ड डिवाइस है, जो व्यक्ति की आवाज का विश्लेषण कर पार्किंसन बीमारी की मौजूदगी का संकेत देता है।

    यह डिवाइस पूरी तरह से एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) पर आधारित है और यह हिंदी भाषा के विशेष शब्दों व वाक्यों के उच्चारण से मिलने वाली फ्रिक्वेंसी को डिटेक्ट करता है।

    रिम्स निदेशक डॉ. राजकुमार ने बताया कि तकनीक में निरंतर सुधार होते रहेंगे। भविष्य में यह डिवाइस और अधिक सटीकता से न सिर्फ पार्किंसन, बल्कि अन्य न्यूरोलाजिकल बीमारियों की पहचान में भी सहायक हो सकता है।

    कैसे करता है काम

    रिम्स क डॉ. साकेत वर्मा बताते हैं कि मरीज को कुछ निर्धारित शब्दों और वाक्यों का उच्चारण करना होता है। डिवाइस में लगे सेंसर और एआई माडल उस आवाज की फ्रिक्वेंसी (विशेषकर 44.1 किलो हर्ट्ज) को कैप्चर करता है।

    यह फ्रिक्वेंसी ब्रेन के ब्रोका एरिया और तालु क्षेत्र से जुड़ी गतिविधियों का विश्लेषण कर बताती है कि व्यक्ति को पार्किंसन के लक्षण हैं या नहीं। डिवाइस कुछ मिनटों में ही परिणाम दे देता है, जो अब तक के परीक्षणों में काफी सटीक पाए गए हैं।

    यह बीमारी कई बार जेनेटिक होती है, लेकिन हर मरीज के लिए जेनेटिक टेस्टिंग संभव नहीं होती, खासकर ग्रामीण इलाकों में। सुदूर क्षेत्रों के इस बीमारी से पीड़ितों का इलाज तक शुरू नहीं हो पाता है।

    अब तक कैसे होती थी जांच

    अब तक पार्किंसन की पहचान एमआरआइ व सिटी स्कैन या डाक्टर की क्लिनिकल जांच पर निर्भर थी। इन तकनीकों में सटीक पहचान में 3-4 साल तक का समय लग जाता था।

    इलाज शुरू करने में देरी होती थी और तब तक बीमारी काफी बढ़ चुकी होती थी, लेकिन इस नए डिवाइस से बीमारी का पता तो जल्द चल जाएगा, साथ ही इलाज में एक बड़ा बदलाव दिखेगा, जिससे बीमारी को जल्द बढने से पूरी तरह रोका जा सकेगा।

    मालूम हो कि देशभर में हर साल करीब सात लाख नए मामले पार्किंसन के सामने आते हैं। 60 वर्ष से ऊपर के एक प्रतिशत लोग इससे प्रभावित होते हैं। इलाज की शुरुआत में देरी से मरीज की जीवन गुणवत्ता तेजी से गिरती है।

    कैसे होगा इस्तेमाल

    डिवाइस को डाक्टर अपने क्लीनिक या ओपीडी में आसानी से रख सकते हैं। मरीज से कुछ शब्द बुलवाकर कुछ ही मिनटों में जांच की जा सकती है।

    इससे रोग की शुरुआती अवस्था में ही पहचान हो सकेगी और समय रहते इलाज शुरू किया जा सकेगा। इसका प्रशिक्षण डाक्टर्स को थोड़े समय में दिया जा सकता है।

    पार्किंसन के प्रमुख लक्षण 

    - शरीर में लगातार कंपन

    - मांसपेशियों की अकड़न

    - धीमी गति से चलना या बोलना

    - संतुलन की समस्या

    - चेहरा भावहीन होना

    - हाव-भाव में कमी

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