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    धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण नहीं देने के पक्षधर थे बाबा कार्तिक उरांव : संजय

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    Updated: Thu, 29 Oct 2020 02:29 PM (IST)

    कार्तिक उरांव अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। गुमला से मैट्रिक करने के बाद वे ठक्कर बाप्पा के आश्रम में चले गए। उन्हीं की प्रेरणा से कार्तिक उरांव ने अभियांत्रिकी की कई डिग्रियां प्राप्त कीं। वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए। वहां उन्होंने नौ वर्ष बिताए।

    कार्तिक उरांव ने एचईसी में डिप्टी चीफ इंजीनियर के पद पर कार्य किया।

    रांची, जासं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मीडिया सेंटर विश्व संवाद केंद्र, रांची में बाबा कार्तिक उरांव की जयंती गुरुवार को मनाई गई। इस अवसर पर आरएसएस के सह प्रांत प्रचार प्रमुख संजय कुमार आजाद ने कहा कि तीन वर्ष के बाद उनकी जन्म शताब्दी वर्ष है। वे हमेशा हिंदुत्व के पक्षधर रहे और धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण देने का विरोध करते रहे। बाबा कार्तिक उरांव तीन बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। जीवन के अंतिम समय में वे नागरिक उड्डयन एवं संचार मंत्री थे।

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    कार्तिक उरांव अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। गुमला से मैट्रिक करने के बाद, वे ठक्कर बाप्पा के आश्रम में चले गए। उन्हीं की प्रेरणा से कार्तिक उरांव ने अभियांत्रिकी की कई डिग्रियां प्राप्त कीं। वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए। वहां उन्होने नौ वर्ष बिताए। विश्व के सबसे बड़े न्यूक्लियर पावर प्लांट का प्रारूप उन्होने ही बनाया, जो आज हिंकले न्यूक्लियर पावर प्लांट के नाम से जाना जाता है। इंग्लैंड में उनकी भेंट  जवाहर लाल नेहरू से हुई और  उनके आग्रह पर कार्तिक उरांव भारत वापस आए।

    एचईसी में डिप्टी चीफ इंजीनियर के पद पर वे कार्य करने लगे। किंतु 1962 में कांग्रेस के आग्रह पर, उन्होंने तत्कालीन बिहार के लोहरदगा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन स्वतंत्र पार्टी के डेविड मुंजनी से मात्र 17000 वोटों से हार गए। 1967 में फिर से उन्होने कांग्रेस की टिकट पर लोहरदगा से चुनाव लड़ा और वे सांसद बने। 1977 की जनता लहर का अपवाद छोड़ दें, तो अपनी मृत्यु (1981) तक वे लोहरदगा का प्रतिनिधित्व लोकसभा में करते रहे। 8 दिसंबर 1981 को संसद भवन में ही दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई। तब वे केंद्रीय उड्डयन और संचार मंत्री थे।

    1967 में लाया था एससी एसटी आदेश संशोधन विधेयक

    वनवासियों के ईसाई धर्मांतरण से वे क्षुब्ध थे। इसलिए 1967 में संसद में उन्होने अनुसूचित जाति/जनजाति आदेश संशोधन विधेयक 1967 लाया। इस विधेयक पर संसद की संयुक्त समिति ने बहुत छानबीन की और 17 नवंबर 1969 को अपनी सिफारिशें दीं। उनमें प्रमुख सिफारिश थी, कंडिका में निहित किसी बात के होते हुए कोई भी व्यक्ति, जिसने जनजाति आदि मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा।

    अर्थात धर्म परिवर्तन करने के पश्चात उस व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाली सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा। संयुक्त समिति की सिफारिश के बावजूद, एक वर्ष तक इस विधेयक पर संसद में बहस ही नहीं हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर ईसाई मिशन का जबरदस्त दबाव था कि इस विधेयक का विरोध करें। ईसाई मिशन के प्रभाव वाले 50 संसद सदस्यों ने इंदिरा गांधी को पत्र दिया कि इस विधेयक को खारिज करे।

    कांग्रेस में रहते हुए इस मुहिम के विरोध में अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाकर कार्तिक उरांव ने 10 नवंबर को 322 लोकसभा सदस्य और 26 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षरों का एक पत्र इंदिरा गांधी को दिया, जिसमें यह जोर देकर कहा गया था की वे विधेयक की सिफारिशों का स्वीकार करें, क्योंकि यह तीन करोड़ वनवासियों के जीवन - मरण का प्रश्न हैं। किंतु ईसाई मिशनरियों का एक प्रभावी अभियान पर्दे के पीछे से चल रहा था। इस विधेयक के कारण देश-विदेश के ईसाई मिशनरियों में भारी खलबली मची थी।

    16 नवंबर 1970 को इस विधेयक पर लोकसभा में बहस शुरू हुई। इसी दिन नागालैंड और मेघालय के ईसाई मुख्यमंत्री दबाव बनाने के लिए दिल्ली पहुंचे। मंत्रिमंडल में दो ईसाई राज्यमंत्री थे। उन्होंने भी दबाव की रणनीति बनाई। इसी के चलते 17 नवंबर को सरकार ने एक संशोधन प्रस्तुत किया की संयुक्त समिति की सिफारिशें विधेयक से हटा ली जाय। 24 नवंबर 1970 को मंगलवार था। इसी दिन कार्तिक उरांव को इस विधेयक पर बहस करनी थी।

    इस दिन सुबह कांग्रेस ने एक व्हीप अपने सांसदों के नाम जारी किया, जिसमें इस विधेयक में शामिल संयुक्त समिति की सिफारिशों का विरोध करने को कहा गया था। कार्तिक उरांव, संसदीय संयुक्त समिति की सिफारिशों पर 55 मिनट बोले। वातावरण ऐसा बन गया, की कांग्रेस के सदस्य भी व्हीप के विरोध में, संयुक्त समिति की सिफारिशों के समर्थन में वोट देने की मानसिकता में आ गए।

    अगर यह विधेयक पारित हो जाता, तो वह एक ऐतिहासिक घटना होती..!

    स्थिति को भांपकर इंदिरा गांधी ने इस विधेयक पर बहस रुकवा दी और कहा की सत्र के अंतिम दिन, इस पर बहस होगी। किंतु ऐसा होना न था। 27 दिसंबर को लोकसभा भंग हुई और कांग्रेस द्वारा वनवासियों के धर्मांतरण को मौन सहमति मिल गई!

    विधेयक पारित नहीं होने पर बीस वर्ष की काली रात पुस्तक लिखी

    कार्तिक उरांव हिंदुत्व के घनघोर समर्थक थे। यह विधेयक पारित नहीं होने पर उन्होंने बीस वर्ष की काली रात नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण का कच्चा चिट्ठा खोल दिया है।

    संजय आजाद ने कहा कि उन्होंने पुस्तक में लिखा है-

    अनुसूचित जातियों/जनजातियों की परिभाषा सन 1935 से ही आ रही है और उन्होंने सदा से ही यह दावा किया कि अनुसूचित जातियों/जनजातियों में हिंदू धर्म मानने वाली जातियां ही रहेंगी। जो हिंदू धर्म को छोड़ कर किसी अन्य धर्म को मानता हो, वह अनुसूचित जाति / जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा। संविधान में कोई संशोधन विधेयक नहीं है जिसके द्वारा भारतीय ईसाइयों को अनुसूचित जनजाति में परिगणित किया हो। अत: ईसाइयों को अनुसूचित जनजाति में परिगणित कर उन्हें सारी सुविधाएं देना असंवैधानिक है। अंग्रेजी हुकूमत के 150 वर्षों में ईसाई मिशनरियों से इतना धर्म परिवर्तन नहीं हुआ, जितना आजादी मिलने पर हुआ।

    धर्मांतरण संबंधी विषयों को लेकर मुखर रहते थे कार्तिक उरांव

    सह प्रचार प्रमुख ने कहा कि कार्तिक उरांव, धर्मांतरण संबंधी इन सभी बातों को लेकर काफी मुखर रहते थे। वनवासी कल्याण आश्रम के बाला साहब देशपांडे  से उनका जीवंत संपर्क था और यही कांग्रेस को खटकता था। किंतु झारखंड के उस वनवासी क्षेत्र में, कार्तिक उरांव से अच्छा, वनवासियों पर पकड़ बनाए रखने वाला दूसरा नेता कांग्रेस के पास नहीं था। कार्तिक उरांव ने विभिन्न कार्यक्रमों में वनवासियों से कहा था कि ईसा से हजारों वर्ष पहले आदिवासियों के समुदाय में निषादराज गुह, माता शबरी, कण्णप्पा आदि हो चुके हैं, इसलिए हम सदैव हिंदू थे और हिंदू रहेंगे।

    आदिवासी यह हिंदू ही हैं, यह तार्किक रूप से सिद्ध करने के लिए उन्होने भारत के कोने कोने से वनवासियों के पाहन, गांव बूढ़ा, टाना भगतों आदि धर्मध्वजधारियों को आमंत्रित किया और कहा, आप अपने समुदायों में जन्म तथा विवाह जैसे अवसरों पर गाए जाने वाले मंगल गीत बताइए। फिर वहां सैकड़ों मंगल गीत गाए गए और सबों में यही वर्णन मिला कि जसोदा मैया श्रीकृष्ण को पालना झूला रही हैं, सीता मैया रामजी को पुष्प वाटिका में निहार रही हैं, माता कौशल्या रामजी को दूध पिला रही हैं... आदि। यह ऐसा जबरदस्त प्रयोग था, जिसकी काट किसी के पास नहीं थी।

    हम हिंदू पैदा हुए और हिंदू ही मरेंगे

    जीवन के अंतिम वर्षों में काॢतक उरांव ने साफ कहा था, हम एकादशी को अन्न नहीं खाते, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, विजया दशमी, राम नवमी, रक्षाबंधन, देवोत्थान पर्व, होली, दीपावली.... हम सब धूमधाम से मनाते हैं। ओ राम... ओ राम... कहते-कहते हम उरांव नाम से जाने गए। हम हिंदू पैदा हुए, और हिंदू ही मरेंगे।

    बाबा कार्तिक उरांव यह हमारे देश के वनवासियों के प्रातिनिधिक चेहरा थे, वनवासियों की बुलंद आवाज थे। कांग्रेस भले ही उन्हें भूल गई हो, किंतु इस देश के वनवासियों के और तमाम राष्ट्रभक्त नागरिकों के हृदय में बाबा काॢतक उरांव के प्रति असीम आदर और श्रद्धा हैं..!