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    सीआईपी की 147 एकड़ जमीन पर अतिक्रमण, हाई कोर्ट ने हेमंत सरकार से मांगा जवाब

    Updated: Wed, 24 Dec 2025 08:35 PM (IST)

    सीआईपी कांके की 147 एकड़ जमीन पर अतिक्रमण के मामले में हाई कोर्ट ने राज्य सरकार से जवाब मांगा है। अदालत ने सरकारी अधिकारियों की लापरवाही पर नाराजगी जत ...और पढ़ें

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    राज्य ब्यूरो, रांची। झारखंड हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस तरलोक सिंह चौहान और जस्टिस राजेश शंकर की अदालत ने केंद्रीय मनोरोग संस्थान (सीआईपी) कांके की भूमि से अतिक्रमण हटाने के मामले में राज्य और केंद्र सरकार के अधिकारियों की लापरवाही पर कड़ी टिप्पणी की है।

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    अदालत ने मौखिक कहा कि यह बेहद चौंकाने वाला है कि सरकारी संपत्तियों के संरक्षक माने जाने वाले अधिकारी गहरी नींद में थे और उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की पहल पर जागना पड़ा, जो बिहार का रहने वाला है। अदालत ने इस मामले में केंद्र और राज्य सरकार को चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है।

    अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि इस मामले की सुनवाई किसी अन्य अदालत या प्राधिकरण द्वारा नहीं की जाएगी। मामले की अगली सुनवाई 27 जनवरी को होगी। अतिक्रमण के खिलाफ बिहार निवासी विकास उर्फ गुड्डू बाबा ने याचिका दाखिल की है।

    सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने 19 नवंबर 2025 को पारित अपने आदेश का हवाला देते हुए कहा कि सीआईपी की भूमि पर अतिक्रमण हटाने के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया गया था। समिति को दो सप्ताह के भीतर जमीन का सीमांकन कर अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया गया था।

    अदालत के समक्ष भूमि सुधार उप समाहर्ता के शपथपत्र से यह तथ्य सामने आया कि सीआईपी के वास्तविक कब्जे में मात्र 229.29 एकड़ भूमि ही पाई गई, जबकि संस्थान के अनुसार उसकी कुल भूमि 376.222 एकड़ है। इस प्रकार लगभग 147 एकड़ भूमि का कोई स्पष्ट विवरण प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे बड़े पैमाने पर अतिक्रमण की आशंका प्रबल हो गई है।

    अदालत ने इस बात पर भी नाराजगी जताई कि शपथ पत्र में केवल सीआईपी के मुख्य गेट के पास अतिक्रमण हटाने का उल्लेख किया गया है, जबकि अन्य अतिक्रमण की स्थिति के संबंध में कोई ठोस जानकारी नहीं दी गई।

    निरीक्षण के समय सीआईपी का प्रतिनिधि मौजूद होने के बावजूद कथित अतिक्रमण के सटीक स्थानों को चिह्नित नहीं किया जा सका। बाद में रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करते समय अतिक्रमण की बात तो स्वीकार की गई, लेकिन उस स्थान का उल्लेख नहीं किया गया। यह रवैया अदालत के आदेशों के प्रति गंभीर लापरवाही को दर्शाता है।