मजदूरी कर एमए किया, बीएड के लिए पैसे नहीं
पढ़ाई और काम करने के लिए सुनीता का जीवन संघर्षों से भरा है। मंजिल तक पहुंचने की अदम्य इच्छा भी है।
संजय कृष्ण, रांची। सुनीता कुमारी उरांव आदिवासी परिवार से आती हैं। गांव-घर तो लातेहार के सुदूर बालूमाथ के बरियातू प्रखंड में पड़ता है, लेकिन रांची में रहकर रेजा-कुली का काम करते हुए एमए तक की पढ़ाई पूरी की है। बालूमाथ से डेढ़ सौ किमी दूर राजधानी रांची में पढ़ाई और काम करने के लिए सुनीता का जीवन संघर्षों से भरा है। संघर्ष जारी है, लेकिन मंजिल तक पहुंचने की अदम्य इच्छा भी है। बचपन में ही पिता को खो देनेवाली सुनीता का लालन-पालन बड़े संघर्ष के साथ मां ने किया। जंगल-पहाड़ के साथ बड़ी होती सुनीता पढऩा चाहती थी। किसी तरह बालूमाथ से इंटर किया। इंटर करने के लिए अनेक पापड़ बेलने पड़े।
सुनीता बताती हैं कि किसी तरह इंटर में पहुंची तो पैसे की किल्लत हुई। दूसरों से मांगकर दो सौ रुपये लेकर 12वीं का फार्म भरा। 12वीं पास करने के बाद रांची चली आई, क्योंकि गांव में कोई काम नहीं था और आगे पढऩे के लिए पैसों की जरूरत थी। यहां यह सोचकर आई की काम के साथ पढ़ाई भी करूंगी। मजदूरी करने लगी और डोरंडा कालेज में प्रवेश ले लिया। पढ़ाई के साथ लालपुर चौक पर आकर सुबह-सुबह रेजा-कुली की कतार में खड़ी हो जाती। कभी काम मिलता, कभी नहीं। कभी सौ मिलते, तो कभी डेढ़ सौ। एकाध सप्ताह काम करती, फिर पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करती। इस तरह काम करते हुए 2014 में प्रथम श्रेणी में बीए पास किया।
इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए मन बनाया और काम के साथ फिर रांची विवि के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग में एमए में प्रवेश ले लिया। दो साल यहां भी लगे और पढ़ाई-काम के साथ इसे भी पूरा कर लिया। काम करते हुए पढऩा मुश्किल होता है। एमए तक की पढ़ाई तो हो गई, लेकिन बीएड करने की इच्छा है, जिसके लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं। आगे पढऩा चाहती हूं, लेकिन कभी-कभी हौसला पस्त हो जाता है।
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