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    मानव की सृष्टि और प्रकृति के पूजन का उत्सव है सोहराय

    By JagranEdited By:
    Updated: Mon, 03 Jan 2022 06:54 PM (IST)

    फोटो- 6 - प्रकृति के संरक्षण भाई-बहन के अगाध प्रेम और नारी सम्मान का प्रतीक पर्व कौशल

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    मानव की सृष्टि और प्रकृति के पूजन का उत्सव है सोहराय

    फोटो:- 6

    - प्रकृति के संरक्षण, भाई-बहन के अगाध प्रेम और नारी सम्मान का प्रतीक पर्व

    कौशल सिंह, जामताड़ा

    सोहराय का अर्थ है बधाई या शुभकामना होता है। यह त्योहार भाई-बहन के प्रेम और प्रकृति के पूजा से जुड़ा मामला है। प्रकृति और मानव सृष्टि के श्रृंगार से जुड़े इस उत्सव की खास बात होती है अपने कुटुंब जनों के स्वागत व सान्निध्य के बीच परस्पर सौहार्द का परिवेश बनाना। संताल समाज में लड़की को 'कु†ाडी मिरू' उपनाम से पुकारा जाता है, जिसका अर्थ है सुंदर सुगा पक्षी। वहीं, शादी ब्याह में उसे 'दाऊड़ा बोंगा' कहा जाता है, फिर वापस घर लाने के बाद उसे 'ओड़ाक् बोंगा-घिरनी एरा' अर्थात गृह देवी-देवता के समान सम्मान दिया जाता है।

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    इन्ही वजहों से यह त्योहार नारी सम्मान, खासकर अपनी बहनों के स्वागत-सत्कार से जुड़े अगाध प्रेम के अद्वितीय प्रतीक पर्व के रूप में मनाया जाता है। छह दिनों तक चलने वाला यह त्योहार संताल परगना में सोहराय नौ जनवरी से शुरू होकर 14 जनवरी तक मनाया जाता है।

    सोहराय के अवसर पर प्रत्येक संथाल परिवार अपने संबंधियों को आमंत्रित करते हैं। खास करके यह पर्व भाई बहन के पवित्र रिश्तों को समेटता है। छह दिन तक चलने वाले इस पर्व में संथाल समाज के लोग न केवल अपने देवी देवताओं एवं इष्ट देव की पूजा करते हैं। अपितु गाय, भैंस, बैल, हल एवं अन्य औजारों की भी पूजा करते हैं। प्रत्येक दिन का है अलग-अलग महत्व और नामकरण :

    सोहराय के पहले दिन को उम् हिलाक् या उम्माहा कहा जाता है। इसका अर्थ स्नान का दिन होता है। सभी लोग अपने घर की साफ-सफाई कर स्नान कर गोड टांडी पहुंचते हैं। इधर, गांव के भी सभी गणमान्य लोग मांझी, परानिक, जोगमांझी, जोग परानिक, नाइकी आदि स्नान एवं नया वस्त्र धारण कर गोरटांडी में सोहराय के स्वागत के लिए पहुंचते हैं। मांझी द्वारा अपने-अपने देवता इष्टदेव मरांग बुरु, जाहेर, एरा आदि को मुर्गा की बलि दी जाती है। जाहेर ऐरा, गोसाई ऐरा, ठाकुर ठकुराइन, परगना, बोंगा, मरांग गुरू के नाम से पूजा-अर्चना करते हैं। इस गांव के मांझी सभी को सोहराय पर्व के अवसर पर शांति, सदभाव, आपसी प्रेम को बनाए रखने के लिए उपदेश देते हैं। मुर्गे को मिलाकर खिचड़ी बनाई जाती है। सब मिलजुल कर नाचते-गाते हुए गांव की ओर प्रस्थान करते हैं।

    दूसरे दिन को दकाय हिलाक् या बोंगा महा कहा जाता है। जिसका अर्थ होता है पूजा का दिन। तीसरे दिन को खूंटाव बांधना या खुटोड़ माहा कहा जाता है। इस दिन मवेशियों की पूजा-अर्चना होती है। चौथे दिन को जालेमहा कहा जाता है, यह दिन मनोरंजन का दिन होता है। पांचवां दिन हाको काटकोम माहा कहा जाता है, अर्थात मछली, केकड़ा आदि पकड़ने का दिन।

    छठे दिन को बेझा हिलाक् या शिकार का दिन बोला जाता है। यह 14 जनवरी होता है, इसीलिए संथाली में विशेष सकरात बोला जाता है।

    शिकार करने की परंपरा : सोहराय में पुरुष शिकार करने जाते हैं और शिकार करके जो कुछ भी लाते हैं, सपरिवार उसका प्रसाद ग्रहण करते हैं। उसके बाद सब बेझा टांडी में पहुंचते हैं। जहां एक शिकार का धड़ काट कर जमीन पर गाड़ दिया जाता है। उसमें एक पीठा रख दिया जाता है। उसके बाद जोग मांझी सभी ग्रामीण नव युवकों को अपने तीर-धनुष से निशाना लगाते हैं। उसके बाद सभी पुरुष व महिलाएं एकत्रित होकर नाच-गान करते हैं और सोहराय का समापन करते हैं।