हथियारों संग जंगल पहुंचे दस हजार शिकारी, सुहागनों ने धोया सिंदूर
उनके मुताबिक यह पर्व जंगली जानवरों के प्रजनन के लिए काफी जरूरी है।

जमशेदपुर, [जागरण संवाददाता] । तीर-धनुष व बरछे-भाले सरीखे पारंपरिक हथियारों से लैस होकर रविवार को दलमा की तलहटी पहुंचे करीब 10 हजार शिकारी सोमवार को सेंदरा करेंगे। सेंदरा बीर, यानी आदिवासी शिकारी सोमवार को तड़के चार बजे दलमा जंगल पर चढ़ाई करेंगे और जंगली जानवरों का शिकार करेंगे। दिन भर शिकार करने के बाद दूसरे पहर में शिकार किए गए जानवरों को कंधे पर ढोकर वापस लौटेंगे।
इसके बाद शिकार को काटा जाएगा और सबसे इसे समान रूप में बांटा जाएगा। रविवार को शिकार पर जाने से पूर्व हर शिकारी के घर पर पारंपरिक पूजा की गई। कलश (कांसे का लोटा) में पानी भर कर घर के पूजा घर में उसे स्थापित किया गया। सेंदरा बीर (शिकारियों) के लौटने के बाद ही उस कलश को उठाया जाएगा। तब तक अगर कलश में पानी घट गया तो उसे अशुभ माना जाता है। वहीं दलमा बुरू सेंदरा समिति गदड़ा के प्रधान राकेश हेम्ब्रम ने अपने साथियों के साथ दलमा की तराई स्थित फदलोगोड़ा पूजा स्थल पर रविवार की सुबह पूजा कर बकरा-मुर्गा की बलि दी।
आसनबनी में सिंगराई गीत नृत्य का आयोजन
सेंदरा में शामिल होने वाले सेंदरा बीरों के लिए आसनबनी फुटबॉल मैदान में पारंपरिक बीर सिंगराई को बचाने के लिए रात में सिंगराई नाच प्रतियोगिता का आयोजन किया गया है। दलमा बुरू सेंदरा दिशुआ समिति के महासचिव फकीर चंद्र सोरेन ने बताया कि प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए पड़ोसी राज्य ओडिशा के साथ-साथ झारखंड के बहरागोड़ा, पोटका व जमशेदपुर के विभिन्न क्षेत्र के लोग शामिल होंगे। इनके विजेताओं को पुरस्कृत किया जाएगा।
सुहागनों ने धोया सिंदूर, मसाला-तेल बंद
जिस घर से सेंदरा बीर शिकार करने के लिए दलमा रवाना हुए, उन घरों में सुहागनों ने सिंदूर धो दिया। घर में तेल मसाला खाना भी बंद कर दिया गया। जब तक घर से गए पुरुष सेंदरा से नहीं लौट जाते, तब तक घर में न तेल-मसाला खाया जाएगा और न ही महिलाएं सिंदूर लगाएंगी। सेंदरा की परंपरा के तहत घर-घर में इस रिवाज को पूरा किया गया। जानवरों के प्रजनन को सेंदरा जरूरी सेंदरा को लेकर आदिवासियों का अपना तर्क है। आदिवासी समाज के लोग कहते हैं कि सेंदरा को सिर्फ जानवरों के शिकार के दृष्टिकोण से देखा जाना गलत है। उनके मुताबिक यह पर्व जंगली जानवरों के प्रजनन के लिए काफी जरूरी है। तर्क यह कि इतने बड़े जंगल में जानवर अपने-अपने इलाके में साल भर रहते हैं। ऐसे में कई बार नर व मादा का मिलन नहीं हो पाता, लेकिन चूंकि सेंदरा में ढोल-नगाड़े लेकर आदिवासी जंगल पर चढ़ाई करते हैं सो डर से जानवर जंगल में एक तरफ भाग जाते हैं, इससे उन्हें प्रजनन के लिए साथी मिल जाता है।
सेंदरा आदिवासियों की परंपरा है न कि शौक
कोई इस पर रोक लगाने की बात करता है तो इसे सिर्फ बचपना ही कहा जा सकता है। आदिवासियों की पहचान परंपरा व संस्कृति से है। इसके साथ समझौता बिल्कुल नहीं किया जा सकता।'
दसमत हांसदा, जुगसलाई तोरोप परगना।
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