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    जानें, यहां क्यों दुधमुंहे बच्चे को भी दाग देते हैं गर्म सलाखों से

    By Sachin MishraEdited By:
    Updated: Tue, 02 Jan 2018 02:20 PM (IST)

    परंपरा के नाम पर अंधविश्वास के चलते पेट गर्म सलाखों से दागने से कई बार छोटे बच्चों की जान तक चली जाती है।

    जानें, यहां क्यों दुधमुंहे बच्चे को भी दाग देते हैं गर्म सलाखों से

    गुरदीप राज, जमशेदपुर। विज्ञान के युग में भी परंपरा के नाम पर अंधविश्वास का बोलबाला है। झारखंड के गांवों में चिड़ी दाग आदिवासी समुदाय की ऐसी ही एक विचित्र परंपरा है, जिसमें पेट संबंधी रोग ठीक करने के नाम पर बच्चों के पेट गर्म सलाखों से दाग दिए जाते हैं। जनवरी के मध्य यहां टुसू पर्व मनाया जाता है, उसी दिन से गांव-गांव में बच्चों को दागने का सिलसिला शुरू हो जाता है।

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    इस बार भी कोल्हान क्षेत्र के पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम व सरायकेला खरसावां के गांवों में यह दर्दनाक दृश्य देखने को मिलेगा। कई गांवों में तो अन्य दिनों में भी इसे अंजाम दिया जाता है। इसके चक्कर में कई बार छोटे बच्चों की जान तक चली जाती है। चाईबासा से सटे ओडिशा के क्योंझर जिले के पांडापाड़ा थाना क्षेत्र के बिंडा गांव में इसी वर्ष 27 दिसंबर को चिड़ी दाग से तीन वर्षीय एक बच्चे की मौत हो गई।

    टुसू पर्व के दूसरे दिन इसे दिया जाता है अंजाम :
    टुसू पर्व के दूसरे दिन गांवों में जमघट लगता है। लोग बच्चों को लेकर आते हैं। बच्चों को जबरन खटिया पर सुला दिया जाता है। दो लोग हाथ पैर पकड़ लेते हैं। फिर ओझा बच्चे की नाभि पर सरसो का तेल लगाकर गर्म सलाखों से दाग देता है। बच्चों के चीत्कार से गांव गूंजता रहता है। दूधमुंहे से पांच वर्ष तक के बच्चों को इस परंपरा से गुजरना होता है। मान्यता है कि जिन बच्चों को दाग दिया जाता है उन्हें भविष्य में पेट संबंधी कोई बीमारी नहीं होती है।

    सरकार के जागरूकता अभियान का कोई असर नहीं :
    सियासी नुकसान के चक्कर में झारखंड सरकार इस क्रूर परंपरा पर रोक लगाने में विफल है। हां, कभी कभी अधिकारी गांवों में रैली आदि निकाल कर आदिवासियों को जागरूक करने की कोशिश जरूर करते हैं। बावजूद यह सिलसिला अब भी गांवों में जारी है। आस्था से जुड़े होने के कारण सरकार बहुत कुछ नहीं कर पाती है।

    पहले लगाते हैं सरसों का तेल, फिर दागते हैं चार बार :
    लोहे व तांबे के सलाखों के अगले हिस्से को चिड़ी के आकार का बनाकर गोइठे की आग में गर्म करने के बाद खटिया पर लेटे बच्चे को उसकी मां और परिवार के दूसरे सदस्य जोर से पकड़कर रखते हैं। जाड़े के मौसम में बच्चे के शरीर से कपड़े उतार दिए जाते हैं। कपड़ा खुलने के बाद ओझा पहले नाभि के चारों ओर सरसों का तेल लगाता है। फिर गर्म सलाखों से नाभि के चारों ओर एक एक कर चार बार दागता है। बच्चा जोर जोर से रोकता है लेकिन परिजन उसे इतनी जोर से पकड़कर रखते हैं कि वह तड़प भी नहीं पाता है। दागने के बाद दाग वाले स्थान पर पुन: सरसों तेल लगा दिया जाता है।

    पूर्वी सिंहभूम जिले में यहां दागे जाते हैं बच्चे :
    पूर्वी सिंहभूम के करनडीह निवासी ओझा छोटू सरदार के अनुसार, दागने की कला उन्होंने पूर्वजों से सीखी है। अपने बच्चों को भी इसे सिखा रहे हैं। उनके अनुसार, टुसू के दूसरे दिन उनके पास माझी टोला, गैंताडीह, बोदरा टोला, लाइन टोला आदि जगहों से सैकड़ों लोग आते हैं। जिस गांव के बच्चे उनके पास आते हैं उसी गांव के देवी-देवताओं का नाम लेकर उन्हें दागा जाता है।

    जन्म के 21 दिन बाद दागे गए मेरे परिवार में दो बच्चे :
    ओझा छोटू सरदार के परिवार की सदस्य मनसुरी सरदार ने बताया कि आदिवासी परंपरा के अनुसार, नवजात को कभी भी दागा जा सकता है। इसके लिए टुसू पर्व का इंतजार नहीं किया जाता है। मेरे परिवार में दो बच्चों का जन्म हुआ। चार महीने के उज्जवल और ढाई माह के वरूण को जन्म के 21वें दिन दागा गया था। इससे बच्चों को कोई परेशानी नहीं होती है। जब बच्चों को दागा जाता तब रोते जरूर हैं। कुछ दिन में जख्म सूख जाते हैं। टुसू पर्व के दूसरे दिन झारखंड के गांवों में ओझा इस काम को अंजाम देते हैं।

    अंधविश्वास के कारण चल रही परंपरा
    यह परंपरा अंधविश्वास के कारण अब तक चली आ रही है। आदिवासी समाज के बीच जागरूकता लाने की जरूरत है। इसके लिए पढ़े लिखे आदिवासी युवाओं को आगे आना होगा।
    - निधि श्रीवास्तव, मनोवैज्ञानिक

    दिल दहलाने वाली घटनाएं 

    चली गई बच्चे की जान:

    पश्चिमी सिंहभूम जिले के चाईबासा से सटे ओडिशा के क्योंझर जिले के पांडापाड़ा थाना क्षेत्र के बिंडा गांव में 27 दिसंबर 2017 को एक 3 वर्षीय मासूम मां-बाप के अंधविश्वास की बलि चढ़ गया। पेट संबंधी बीमारी ठीक करने के लिए बच्चे के पेट को तांत्रिक ने गरम लोहे से दाग दिया। इससे उसकी मौत हो गई। बच्चे का नाम संतोष नायक था। वह बिरंची नायक का बेटा था।

    संतोष के पेट संबंधी बीमारी को लेकर बिरंची काफी परेशान था। उन्होंने बेटे को इलाज के लिए अस्पताल ले जाने की बजाय गांव के एक तांत्रिक को बुलाया। उसने बच्चे को ठीक करने के लिए उसके पेट को गर्म लोहे से दाग दिया। दागने के बाद बच्चे की हालत और गंभीर होती चली गई। उसके बाद इलाज के लिए क्योंझर के अस्पताल में ले गए। अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टरों ने बच्चे को मृत घोषित कर दिया।

    शीशा पीस रगड़ दिया शरीर पर:

    अक्टूबर 2014 में अंधविश्वास के ऐसे ही मामले में बंदगांव प्रखंड के गुइपास गांव में डेढ़ वर्षीय बिरसा लामाय के शरीर पर शीशा पीसकर रगड़ देने से शरीर फूल गया था। एएनएम पंपू मुंडा ने उसे गंभीर स्थिति में लाकर सदर अस्पताल कुपोषण केंद्र में भर्ती कराया। चिकित्सक जगन्नाथ हेंब्रम की देखरेख में करीब तीन माह तक इलाज चलने के बाद मासूम की तबीयत ठीक हुई।

    मौत के मुंह से निकला मासूम:

    एक और घटना जगन्नाथपुर प्रखंड के कोटगढ़ गांव में हुई थी। पेट दर्द के चक्कर में करीब ढाई वर्षीय मासूम के पेट को गर्म लोहे से दाग दिया गया था। जब उसकी हालत बिगडऩे लगी तो इलाज के लिए सदर अस्पताल के कुपोषण केंद्र में लाकर भर्ती कराया गया। इलाज के बाद तबीयत ठीक होने के बाद परिजन घर ले गए।

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