Jharkhand News: दर्द की राख से गढ़े उम्मीदों के दीप, दिव्यांगों के अधिकारों के लिए जीवंत मिसाल बने करुणामय
Jharkhand News Hindi झारखंड के करुणामय मंडल दिव्यांगों के अधिकारों के लिए एक जीवंत मिसाल हैं। 35 वर्षों से वे पोटका पटमदा डुमरिया घाटशिला और मुसाबनी के दिव्यांगों के लिए एक आशा की किरण बने हुए हैं। उनकी पत्नी प्रतिमा रानी मंडल और भाई चयन मंडल के सहयोग से नीलदीप निशक्त सेवा अभियान ने असंख्य जीवन को उजाला दिया है।

शंकर गुप्ता, पोटका। मैक्सिको के नोबल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार गेब्रिएल गार्सिया मार्केज ने अपनी पुस्तक 'वन हंड्रेड इयर्स आफ सालिट्यूड' में कहा है, 'सबसे बड़ा अंधा वह है, जो देख कर भी अनदेखा करता है। सबसे बड़ी अपंगता वह है, जो संवेदना को नहीं पहचानती।'
वे चलते हैं मगर सड़कें उनका नहीं साथ देतीं। वे सुनते हैं मगर आवाजें अक्सर उनके नाम से कतराती हैं। वे मुस्कुराना चाहते हैं, मगर होंठों की मुस्कान को समाज की चुप्पी निगल जाती है। ये वे हैं जिन्हें हम ‘दिव्यांग’ कहते हैं, मगर व्यवहार में 'अदृश्य' कर देते हैं।
उनकी व्यथा कोई चीखती नहीं, बस हृदय की कोर में ठहर जाती है- एक मूक सत्य की तरह। पर इसी खामोशी को शब्द, हक और सम्मान में ढालने का साहस करुणामय मंडल ने किया है, जिनके लिए ये दिव्यांग नहीं, दिव्य आत्माएं हैं और सेवा कोई कार्य नहीं, जीवन का धर्म है।
प्रसिद्ध साहित्यकार विक्टर ह्यूगो ने अपनी पुस्तक लेस मिजरेबल्स में लिखा है, 'सबसे बड़ा सुख दूसरों के दुख को कम करना है।'
करुणामय ने इसी सूत्र को आत्मसात कर 35 वर्षों में तीन हजार दिव्यांगों को पेंशन, व्हीलचेयर, ट्राइसाइकिल, आवास और कस्तूरबा में नामांकन जैसी योजनाओं से जोड़ा।
उनकी पत्नी प्रतिमा रानी मंडल और भाई चयन मंडल के सहयोग से नीलदीप नि:शक्त सेवा अभियान ने असंख्य जीवन को उजाला दिया।
पोटका में दिव्यांगजनों के साथ करुणामय मंडल।
करुणा का आलोक
दिव्यांगों का जीवन उस दीपक सा है, जो हवा के झोंकों में टिमटिमाता है, पर बुझता नहीं। करुणामय मंडल ने इस दीपक को हवा से बचाकर उसकी लौ को प्रज्ज्वलित किया।
35 वर्षों से वे पोटका, पटमदा, डुमरिया, घाटशिला और मुसाबनी के दिव्यांगों के लिए एक आशा की किरण बने हैं।
उनके शब्द, 'मैं उनका दुख सुनता हूं, जिन्हें कोई नहीं पूछता; मैं उन्हें गले लगाता हूं, जिन्हें कोई नहीं छूता,' उनके हृदय की गहराई को उजागर करते हैं। यह भावना उस बरगद सा है, जो अपनी शाखाओं से हर पथिक को छांव देता है।
नीलदीप की नींव
करुणामय ने अपने माता-पिता के नाम पर नीलदीप निश्शक्त सेवा अभियान शुरू किया, जो आज उनके जीवन का पर्याय बन चुका है। उनकी पत्नी प्रतिमा रानी मंडल और भाई चयन मंडल इस पुण्य कार्य में उनके सहचर बने।
यह त्रिवेणी संगम सा सहयोग उनकी सेवा को अडिग बनाता है। माह की पांच और 15 तारीख को सदर अस्पताल, जमशेदपुर में लगने वाले उनके शिविर दिव्यांगों के लिए वह मंदिर हैं, जहां उनकी पीड़ा पूजती है और आशा का प्रसाद मिलता है।
पोटका में दिव्यांगजनों के साथ करुणामय मंडल।
योजनाओं का अमृत
करुणामय ने सरकारी योजनाओं को दिव्यांगों के द्वार तक पहुंचाया। पेंशन स्वीकृति, व्हीलचेयर, ट्राइसाइकिल, बैसाखी, आवास और कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में नामांकन जैसे कार्यों ने तीन हजार जीवन को नई दिशा दी।
उनकी सेवा उस नदी सी है, जो पर्वतों को चीरकर भी सूखी धरती को हरा-भरा करती है। वे कहते हैं, 'मैंने संकल्प लिया है कि हर दिव्यांग को उसका हक दिलाऊंगा।' यह संकल्प उनके जीवन का वह मंत्र है, जो हर कदम पर उन्हें प्रेरित करता है।
दिव्यांगों का हृदयस्पर्शी आलाप
अमीन बास्के की तीन बेटियां मुख-बधिर हैं। उनके लिए करुणामय भगवान तुल्य हैं। वे कहते हैं, 'मेरी बेटियों की जांच और पेंशन स्वीकृति ने मुझे जीने की ताकत दी।
करुणामय की सेवा साक्षात दैवीय कृपा है।' तारिणी कांत गोप, जिनकी आंखें दुनिया का उजाला नहीं देखतीं, कहते हैं, 'पेंशन और प्रमाणपत्र ने मुझे आत्मसम्मान दिया।
करुणामय जैसे लोग धरती पर मानवता की मिसाल हैं।' राधा वल्लभ मंडल की आवाज में आभार झलकता है, 'हमें कोई नहीं पूछता था, पर करुणामय ने हमें योजनाओं से जोड़कर नया जीवन दिया।' इनके शब्द उस कविता से हैं, जो दर्द और आशा के रंगों से सजी है।
सेवा का प्रतिफल
करुणामय की निस्वार्थ सेवा ने समाज का दिल जीता। 2010 में वे जिला परिषद बने, और 2015 में उनकी पत्नी प्रतिमा रानी मंडल को यह सम्मान प्राप्त हुआ।
यह जनता का प्रेम और दिव्यांगों का आशीर्वाद था, जो उनके कार्यों का प्रतिफल बना। वे कहते हैं, 'निस्स्वार्थ सेवा का फल भगवान और समाज दोनों देते हैं।'
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