शिबू सोरेन ने आदिवासी समाज के लिए किए तीन बड़े काम, रामा मांझी ने उन्हें याद कर दी श्रद्धांजलि
शिबू सोरेन ने बोकारो क्षेत्र में आदिवासी समाज के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण काम किए। उन्होंने आदिवासी समाज सुधार समिति बनाकर महिलाओं को शोषण से बचाया और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया। युवाओं को नशे से दूर रखने के लिए अभियान चलाया जिससे समाज में नई चेतना आई। उन्होंने मतांतरण को रोककर आदिवासियों की संस्कृति और भाषा की रक्षा की।

जागरण संवाददाता, बोकारो। झारखंड की राजनीति और सामाजिक चेतना में शिबू सोरेन एक ऐसे नाम हैं, जिन्होंने न केवल राजनीति के स्तर पर नेतृत्व किया, बल्कि जमीनी स्तर पर समाज में बदलाव लाने का भी गंभीर प्रयास किया।
बोकारो क्षेत्र में 1970 के दशक में जब औद्योगिकीकरण हो रहा था। तब आदिवासी समाज शोषण, नशे और सांस्कृतिक संकट के दौर से गुजर रहा था।
ऐसे कठिन समय में शिबू सोरेन आदिवासी समाज के लिए सुधार के तीन बड़े काम किए, जिनसे आदिवासी समाज में आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक चेतना का संचार हुआ।
रामा मांझी जैसे उनके समकालीन कार्यकर्ताओं के संस्मरण इस आंदोलन की ताकत को उजागर करते हैं। 76 वर्षीय रामा मांझी को दिशोम गुरु शिबू सोरेन के जाने का बड़ा दुख है।
पर संतोष भी इस बात का है कि कोयलांचल क्षेत्र में संथाल आदिवासी समाज अपने मूल अस्तित्व में है तो इसका सबसे बड़ा श्रेय गुरु जी को जाता है।
आदिवासी महिलाओं को शोषण से बचाया, आत्मनिर्भर बनने को प्रेरित किया
बकौल रामा मांझी बोकारो में इस्पात संयंत्र व अन्य निर्माण का कार्य चल रहा था। इसमें बड़ी संख्या में आदिवासी परिवारों को विस्थापन का सामना करना पड़ा। इस दौरान कई आदिवासी महिलाएं प्लांट के अधिकारियों व गैर आदिवासियों के यहां घरों में खाना बनाने और अन्य घरेलू कामों में लगाई जाने लगीं।
शिबू सोरेन के साथ रामा मांझी।
वह बताते हैं कि रात में भी महिलाओं से काम लिया जाता था, उनका शोषण की संभावना रहती थी। इस स्थिति को देखकर शिबू सोरेन ने वर्ष 1970 में 'आदिवासी समाज सुधार समिति' का गठन किया। उन्होंने महिलाओं को इन कार्यों से दूर रहने और खेती-बाड़ी में लौटने के लिए प्रेरित किया।
गुरुजी का कहना था कि अगर महिलाएं आत्मनिर्भर होंगी तो उनका शोषण नहीं होगा। उन्होंने यह भी समझाया कि बच्चों को मजदूरी की जगह शिक्षा दें ताकि अगली पीढ़ी बेहतर जीवन जी सके।
इस आंदोलन के परिणामस्वरूप अनेक महिलाएं गांव लौट गईं और खेती, पशुपालन जैसे पारंपरिक कामों में जुट गईं। उसका प्रभाव आज भी है इस्पात संयंत्र में महिला कामगारों में स्थानीय आदिवासी महिलाअेां की संख्या कम है।
आदिवासी युवाओं को नशे से दूर करने का अभियान
बोकारो प्लांट में काम करने वाले कई आदिवासी युवक शराब की लत के शिकार हो रहे थे। बाहर से आए परदेशी कामगारों के साथ मिलकर आदिवासी युवा खराब हो रहे थे। शिबू सोरेन ने इस पर गंभीरता से ध्यान दिया और गांव-गांव जाकर समाज सुधार बैठकों की शुरुआत की।
इन बैठकों में युवाओं को नशे से होने वाले नुकसान समझाए जाते थे। रामा मांझी बताते हैं कि कई बार न मानने वालों को दंड भी दिया जाता था । जैसे सामाजिक बहिष्कार या सार्वजनिक चेतावनी।
गुरुजी मानते थे कि नशे में डूबा युवा समाज का न तो नेतृत्व कर सकता है और न ही सम्मान पा सकता है। इस अभियान के चलते अनेक युवाओं ने शराब छोड़ दी और समाज में एक नई चेतना का संचार हुआ।
बिना किसी हंगामें के मतांतरण रोक कर किया सांस्कृतिक संरक्षण
60 से अस्सी के दशक में ईसाई मिशनरियां बोकारो, धनबाद और रामगढ़ जैसे क्षेत्रों में सक्रिय थीं और आदिवासियों के बीच मतांतरण का प्रयास कर रही थीं।
गरीब और असहाय आदिवासियों को सुविधाओं का लालच देकर धर्म परिवर्तन के लिए उकसाया जाता था। शिबू सोरेन ने इस खतरे को समय रहते समझा और संगठन के माध्यम से जागरूकता फैलानी शुरू की।
उन्होंने गांवों में सभा कर लोगों को उनकी संथाली संस्कृति, भाषा और धार्मिक परंपराओं की महत्ता समझाई। स्थानीय लोगों को संगठित कर मिशनरियों के प्रभाव को रोका गया।
रमा मांझी कहते हैं कि अगर गुरुजी नहीं होते, तो आज हमारी भाषा, हमारे रीति-रिवाज खत्म हो चुके होते। उन्होंने हमें हमारी पहचान की कीमत समझाई।
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