'हम जंगल में रहने वाले...', जानें शिबू सोरेन कैसे बन गए 'दिशोम गुरु'? पिता की हत्या ने बदल दी जिंदगी
शिबू सोरेन ने आदिवासी हितों के लिए एक महत्वपूर्ण आंदोलन चलाया। उन्होंने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ धनकटनी आंदोलन शुरू किया जिसके बाद उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि मिली। एके राय और बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया और अलग झारखंड की मांग की। टुंडी का पोखरिया आश्रम उनके आंदोलन का केंद्र रहा।

मोहन गोप, धनबाद। जल, जंगल, जमीन हमारा है। हम जंगल-झाड़ में रहने वाले आदिवासी हैं। जब तक आदिवासी हितों की बात नहीं होगी, देश में विकास की बातें करनी बेमानी है।
1996 के लोकसभा में गुरु जी का यह बयान काफी चर्चा में रहा। गुरु जी के इस बयान के पीछे उनका आंदोलन, जमीनी हकीकत और आदिवासियों पर हो रहे जुल्म की दास्तान थी।
जब भी आदिवासी हितों की बात हुई, पूरे देश में गुरु जी का नाम सबसे अव्वल आया। यही कारण है कि आदिवासियों के बीच में वह दिशोम गुरु बने। दिशोम गुरु का मतलब देश अथवा विश्व का गुरु। यह नाम मिला धनबाद के टुंडी में महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ चलाए गए धनकटनी आंदोलन में।
धनकटनी आंदोलन के बाद शिबू सोरेन को दिशोम गुरु की उपाधि मिली। आदिवासी समाज आज भी इन्हें अपने गुरु और देवता की तरह मानते हैं।
आदिवासियों को कहा- हक के लिए लड़ना सीखो
कहानी शुरू होती है शीबू सोरेन के पिता सोबरन मांझी की साहूकारों के द्वारा हत्या के बाद, तब गुरु जी मात्र 13 वर्ष के थे। इसके बाद गुरु जी का आंदोलन शुरू हुआ। रामगढ़ गोला से निकलकर यह हर जगह फैला।
टुंडी में उन्होंने साहूकार और महाजनों के खिलाफ सीधा आंदोलन छोड़ दिया। धीरे-धीरे उन्होंने आदिवासी समाज को जागरूक करना सिखाया । सूदखोरी और महाजनी प्रथा के खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट किया। दिनभर शिबू सोरेन और उनके साथी टुंडी के घने जंगलों में रहते।
धनबाद के टुंडी प्रखंड स्थित पोखरिया आश्रम, जहां से शुरू हुआ था धनकटनी आंदोलन।
शाम होते ही सभी महाजनों के खेत-खलिहान में आ जाते। महाजनों ने जमीन हड़प ली थी। इसके बाद धान और अन्य फसलें काट कर चले जाते। लगातार शोषण से गुरु जी ने आदिवासी समाज को मुक्ति दिलाई थी, यही कारण था कि शिबू सोरेन दिसोम गुरु बन गए।
आदिवासी समाज उन्हें अपना सर्वोच्च नेता मानने लगे। प्रसिद्ध कवि स्व. अजीत राय की पुस्तक फर्क होगा की तुमने राय का को देखा होगा में जिक्र है कि इस आंदोलन के बाद शिबू सोरेन दिशोम गुरु बने।
कामरेड एके राय और विनोद बाबू का मिला साथ
धनबाद में इसी समय दो और महान विभूतियां सामाजिक सुधार और मजदूर केहकों की लड़ाई लड़ रहे थे। इसमें शीबू सोरेन को कामरेड एके राय और बिनोद बिहारी महतो (बिनोद बाबू) का भी साथ मिला। तीनों ने मिलकर अलग झारखंड की मांग के लिए लोगों में अलख जगाना शुरू किया।
धनबाद के पूर्व सांसद स्वर्गीय एके राय के साथ शिबू सोरेन ( दाहिने) की फाइल फोटो।
शिबू सोरेन आदिवासी हित, एके राय मजदूर हित और बिनोद बाबू सामाजिक हितों की लड़ाई लड़ने लगे। 4 फरवरी फरवरी 1973 को धनबाद के चिरागोड़ा (बिनोद बाबू का घर) में शिबू सोरेन, एके राय और बिनोद बाबू एकजुट हुए और झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया।
इसी बीच धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में एक सभा का आयोजन हुआ और पहली बार शिबू सोरेन जंगलों से निकलकर सार्वजनिक रूप से लोगों के बीच आए और यहीं से महानायक की कहानी शुरू होती है।
टुंडी का पोखरिया आश्रम बना आंदोलन का केंद्र
टुंडी का पोखरिया आश्रम आदिवासी आंदोलन का केंद्र बना। यहां 1972 से 1976 के बीच उनका आंदोलन जबरदस्त प्रभावी रहा। महाजनों ने आदिवासियों की जमीन हड़प ली थी। इसमें फसल लगाने लगे थे।
इधर, शिबू सोरेन की एक आवाज पर हजारों की संख्या में आदिवासी समाज के लोग तीर-धनुष के साथ आंदोलन में जुटते गए। हड़पी गई खेतों में लगी फसल काट ले रहे थे। टुंडी के पोखरिया में आश्रम इसका केंद्र बिंदु था।
यहां पर गुरु जी ने आंदोलन के दिन बिताए एवं आदिवासियों को जागृत किया। आज भी पोखरिया का यह आश्रम आंदोलन का गवाह है। आदिवासी समाज इसे पूजते हैं।
यह भी पढ़ें-
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।