नौकरी के लिए तरस रहे बिरहोर समाज के युवक, बार-बार लगा रहे हैं गुहार- डीसी साहब, हमारा हक तो दिलवा दीजिए
बिरहोर एक ऐसी आदिम जनजाति है जो विलुप्त होने के कगार पर है। इनके संरक्षण के लिए सरकार कई तरह की योजनाएं चला रही हैं लेकिन इनकी जमीनी हकीकत कुछ और है। ...और पढ़ें

दिलीप सिन्हा, धनबाद। विलुप्त हो रही आदिम जनजाति बिरहोर के संरक्षण के लिए सरकार अनेक योजनाएं चला रही है। मैट्रिक पास बिरहोर को सीधे नौकरी देने का भी निर्णय कई सरकारों ने लिया था। बिरहोर में बदलाव भी दिख रहा है। उनके बच्चे स्कूल जा रहे हैं। बेटियां भी पढ़ रही हैं। गांव में स्कूल, आंगनबाड़ी केंद्र व अस्पताल खुल गए हैं। कमी बस यही है कि सरकार उनको रोजगार नहीं दे रही। सरकारी अधिकारी भी गंभीर नहीं हैं। सीधी बहाली तो दूर कई बिरहोर युवक अनुकंपा की नौकरी के लिए भी वर्षों से भटक रहे।
बिरहोर समाज को नहीं मिल रहा उनका हक
तोपचांची झील से सटे पहाड़ की तलहटी में बसी चलकरी बिरहोर बस्ती के दो युवकों को प्रखंड कार्यालय एवं झमाडा (झारखंड खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार) में अनुकंपा पर नौकरी नहीं मिल रही है। यह वह सच्चाई है, जो बता रही है कि सरकार की कोशिशों पर कैसे पानी फिर जाता है। दोनों युवक कहते हैं, हमारा हक हमें नहीं मिल रहा, डीसी साहब (Deputy Commissioner) दिलवा दें।
नौकरी के लिए दर-दर भटक रहे बिरहोर युवक
इस बस्ती में कई युवक मैट्रिक पास हैं, दूसरे राज्यों में नौकरी करने गए हैं। काम नहीं करेंगे तो क्या खाएंगे। इंटर पास महेश बिरहोर की अनुकंपा पर तोपचांची प्रखंड कार्यालय में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के पद पर बहाली हुई है। उसके पिता झरी महतो तोपचांची प्रखंड कार्यालय में कार्यरत थे। बड़ी दौड़ धूप के बाद महेश बिरहोर को उनकी जगह नौकरी मिल सकी। यहीं के सोमर बिरहोर ने बताया कि पिता दुर्गा बिरहोर तोपचांची झील में कार्यरत थे। 2012 में उनकी मौत हो गई, तब से नौकरी के लिए भटक रहे हैं। अनुकंपा पर नौकरी मांगते-मांगते अब तो थक चुके हैं साहब, क्या करें समझ में नहीं आता।
आठ साल हो गए, नहीं मिली नौकरी
छोटा सुकर बिरहोर तोपचांची प्रखंड कार्यालय में कार्यरत थे। आठ साल पहले उनकी मौत हो गई। आज तक अनुकंपा पर उनके पुत्र नंदलाल बिरहोर को नौकरी नहीं मिली है। नंदलाल कहता है कि अफसरों के यहां चक्कर लगाकर परेशान हूं। कोई सुनता ही नहीं है।
जड़ी बूटी बेचते थे, अब करते मजदूरी
एक समय था जब बिरहोर गांव के बाहर मजदूरी नहीं करते थे। पहाड़ से पेड़ की छालरूपी जड़ी-बूटी निकालकर लाते थे। उसे बेचते थे। यह उनका पुश्तैनी काम था। साथ ही रस्सी बनाकर हाट में बेचते थे। इस काम में दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया था इसलिए अब ये मजदूरी करने मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरु, बनारस, गोरखपुर, आजमगढ़ तक जा रहे हैं।
पेट पालने के खातिर दूसरे राज्यों में जा रहे बिरहोर
गांव के मुनेश्वर तीन माह पहले मुंबई काम करने गए थे। अभी लौटे हैं। वह कहते हैं कि सोलर प्लांट में मजदूरी करता हूं। रोज चार सौ रुपये मिलते हैं। उसी से परिवार चलता है। क्या करें, यहां तो काम ही नहीं मिलता। मुनेश्वर का पुत्र रामप्रसाद बिरहोर मैट्रिक पास है। उसने बताया कि जब उसे कोई नौकरी नहीं मिली तो पुत्र भी मजदूरी करने दूसरे राज्य चला गया। यहां के अधिकांश घरों से लोग मजदूरी के लिए पलायन कर गए हैं।
बदल रहे बिरहोर, स्कूल जा रहे बच्चे
सरकार एवं सामाजिक संगठनों ने काफी कुछ किया भी है। गांव में खुले स्कूल में अब बिरहोर बच्चे पढ़ने जा रहे हैं। वे समझ गए हैं कि जीने के लिए शिक्षा जरूरी है। स्कूल और पुस्तकालय यहां बन गया है। बिरहोर पहले झोपड़ी में रहते थे। सरकार द्वारा बनाए गए आवासों में नहीं रहते थे। अब वे इन आवासों में भी रहने लगे हैं।
विलुप्त हो रही जनजाति है बिरहोर
बिरहोर एक विलुप्त हो रही जनजाति है। यह झारखंड के धनबाद, गिरिडीह, हजारीबाग, चतरा आदि जिलों में रहते हैं। विशेषकर पहाड़ की तलहटी में रहते हैं, इसे टुंडा कहा जाता है। तोपचांची के चलकरी में 56 बिरहोर परिवार हैं। आबादी करीब सवा दो सौ है।

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