500 परिवारों को मिला नया मुकाम, रेशम की डोर से जोड़ लिए 55 लाख; ऐसे सफल हुईं देवघर की महिलाएं
यह कहानी है झारखंड के संताल परगना की। जहां बेहद पिछड़े आदिवासी क्षेत्र के किसान बुनकर और महिलाएं रेशम की डोर से अपने सपनों को साकार कर रहे हैं। उनके बनाए जैविक रेशम के उत्पादों की मांग अब देश दुनिया में है। 50 से ज्यादा गांवों की महिलाएं इनसे जुड़कर स्वावलंबी बन गईं हैं। कई महिलाओं ने बड़ी उपलब्धि हासिल की है।
आरसी सिन्हा, देवघर। झारखंड के एक बेहद पिछड़े आदिवासी क्षेत्र में गरीबी मिटाने का संकल्प लेकर 250 किसान, 100 बुनकर और 100 दीदियां रेशम की डोर से सुनहरे सपने बुन रही हैं।
जंगलों में उत्पादित जैविक रेशम व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम उपयोग करने के साथ हथकरघा-हस्तशिल्प पर आधारित नवाचार किए गए हैं।
यह अब 500 गरीब परिवारों की आजीविका का बड़ा साधन बन गया है। वर्तमान में आवरण नाम के रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क के साथ यह रोजगार समूह सामाजिक सरोकार का अभीष्ट उदाहरण पेश करते हुए सालाना 55 लाख रुपये का कारोबार कर रहा है।
पूरी टीम रेशम धागा निकालने से लेकर कपड़ा बुनने और उसे बेचने के काम में दिन-रात जुटी रहती है। झारखंड के संताल परगना क्षेत्र में वर्ष 2019 में महज पांच लाख की पूंजी से शुरू हुआ आवरण हैंडलूम एंड फैब्रिक्स धीरे-धीरे इस इलाके में आर्थिक समृद्धि लाकर गरीबी उन्मूलन का पर्याय बन गया है।
रेशम के धागे से कपड़ा तैयार करतीं महिलाएं
बड़ी बात यह है कि आदिवासियों के अथक परिश्रम से साल-दर-साल कारोबार बढ़ रहा है। इससे ग्रामीण क्षेत्र में गरीब-गुरबों को रोजगार सृजन का सुअवसर मिला है।
आवरण से जुड़कर जहां सैंकड़ों महिलाएं रेशम से तैयार कपड़ों पर काथा वाली कढ़ाई व मधुबनी पेंटिंग करके इन्हें उत्कृष्ट बनाने के काम में लगी हुई हैं।
वहीं हाथ से बने प्राकृतिक कपड़े के आदर्श वाक्य के साथ आवरण स्वरोजगार और गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में भी नया अध्याय लिख रहा है।
प्रक्षेत्र में गरीबी से जूझ रहे किसानों, बुनकरों और रीलर्स के लिए स्थाई आय की परिकल्पना के साथ इसकी शुरुआत हुई थी।
उत्पाद को बाजार के अनुकूल बनाने में संस्थापक निदेशक नीतू बरियार और विपणन-बिक्री की जिम्मेवारी संभाल रहे रवि बरियार की भी बड़ी भूमिका है।
रेशम की कताई-बुनाई से जुड़े हैं सैंकड़ों लोग
आवरण संस्था में रेशम की कताई-बुनाई से सैकड़ों लोग जुड़े हैं। ये कोकून से कटिया धागा बनाते हैं। ये धागे बेहद नाजुक होते हैं और केवल हथकरघा पर ही बुने जा सकते हैं।
धागे की क्वालिटी के आधार पर रीलिंग की लागत की गणना की जाती है। रेशम के कपड़े को कई चरणों में प्रसंस्करण के जरिये पहनने योग्य बनाया जाता है।
रेशम के कपड़े पर डिजाइनिंग, काथा वर्क करती बुनकर महिला
आम तौर पर हथकरघे पर बुना गया तसर सिल्क लगभग तेरह मीटर या फिर दो साड़ियों के रोल में आता है। इस कपड़े को या तो रंगे हुए रूप में बेचा जाता है या छपाई-हाथ की कढ़ाई के बाद मूल्यवर्धन किया जाता है। इन दिनों रेशम के कपड़ों पर मांग के अनुकूल मधुबनी पेंटिंग व अन्य डिजाइनर पेंटिंग भी की जा रही है।
घर बैठे मिला रेशम धागा बनाने का रोजगार
- निम्न जीवन स्तर से उबरने में जुटे किसान और महिलाओं को अब साल भर घर बैठे रेशम धागा बनाने का रोजगार मिल रहा है।
- केंद्रीय रेशम बोर्ड ने तसर उत्पादन बढ़ाने के लिए इन किसानों को आधुनिक-वैज्ञानिक रूप से प्रशिक्षित भी किया है।
- वहीं रेशम कीट पालने वाले किसान परिवार की महिलाओं को धागा तैयार करने की ट्रेनिंग दी गई है।
- रेशम धागा बुनने के लिए इन्हें मैनुअल चरखा व रीलिंग मशीनें उपलब्ध कराई गई हैं। सर्वप्रथम ये तसर रेशम के बारीक धागों को अपने हाथ से बुनते हैं।
- प्राकृतिक तरीके से तैयार कपड़ों की रंगाई और प्रसंस्करण निरंजन टेक्सटाइल मिल्स, जसीडीह में की जाती है। वहीं रेशम कपड़ों पर प्रिंटिंग का काम कोलकाता के पास श्रीरामपुर में की जाती है।
- अभी पटना, मोकामा, मुजफ्फरपुर, सासाराम, आरा में आवरण ने अपनी उत्पाद शृंखला का विस्तार किया है। अमेजन के जरिये आनलाइन मार्केटिंग भी की जाती है।
- संस्था ब्रिटेन से मिले बड़े आर्डर पर रेशम दुपट्टा का निर्यात भी कर चुकी है। रेशम धागा बनाने के लिए दुमका जिले के काठीकुंड प्रखंड का चयन किया गया है।
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