इन जादुई हाथों ने संवार दिए कश्मीरी बुनकरों के सपने, सोजनी कला से बदली जिंदगी
कश्मीर के बड़गाम में स्पेशल हैंड्स ऑफ कश्मीर नामक एक संस्था दिव्यांग बुनकरों को सोजनी कला का प्रशिक्षण देकर उन्हें नई राह दिखा रही है। संस्था में 200 कारीगर हैं जिनमें से 40 दिव्यांग हैं। यह संस्था दिव्यांगों को सोजनी कढ़ाई का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ तैयार उत्पादों को बाजार में उपलब्ध करवाने में भी मदद करती है। केंद्र सरकार ने सोजनी शाल को जीआई टैग भी प्रदान किया है।

नवीन नवाज, श्रीनगर। दिव्यांगता किसी भी तरह से असमर्थता नहीं है, अगर संकल्प साथ हो और अवसर व मार्गदर्शन मिल जाए तो जादुई प्रदर्शन कर सकते हैं। कश्मीर के बड़गाम में ऐसे ही कुछ जादुई हाथों ने दर्जनों दिव्यांग बुनकरों को निराशा से निकाल नई राह दी ही, सोजनी कला को भी नया आयाम देने का प्रयास किया।
आज उनकी कहानी कश्मीर ही नहीं दुनियाभर में पहचान बना रही है, यही वजह है कि मध्य एशिया के साथ अन्य देशों में उनके उत्पाद पहुंच रहे हैं। और दिव्यांग दूसरों पर बोझ नहीं, बल्कि शान से परिवार की गाड़ी खींच रहे हैं और उनके साथ उनके कई स्वजन भी साथ जुड़ गए हैं। ऐसे ही प्रयासों को आकार देने के लिए केंद्र सरकार सोजनी शाल को जीआइ टैग भी प्रदान किया है।
'स्पेशल हैंड्स ऑफ कश्मीर' बुनकरों और कारीगरों का एक समूह है। इसमें लगभग 200 कारीगर शामिल हैं। इनमें से 40 दिव्यांग हैं और शेष में ज्यादातर इन बुनकरों के स्वजन हैं जो इस मुहिम से जुड़ गए। यह संस्थादिव्यांगों को सोजनी कढ़ाई का प्रशिक्षण देने के साथ तैयार उत्पादों को मार्केट उपलब्ध करवाने में भी सहयोग करती है।
साथ ही देश के प्रमुख शहरों में मेलों के जरिए भी उनके उत्पाद पहुंचाए जा रहे हैं। इससे न केवल राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीरी कला और शिल्प को बढ़ावा देने में मदद हुई है, बल्कि उनके गांव में उन्हें आय का स्रोत भी उपलब्ध हो गया है।
यह कहानी आरंभ हुई कश्मीर के बड़गाम जिले के गांव गोटपोरा में। स्पेशल हैंडस आफ कश्मीर के संस्थापक तारिक अहमद मीर स्वयं भी दिव्यांग है। उनका परिवार पहले से सोजनी की कारीगरी से जुड़ा था और उन्होंने भी बचपन में काफी कुछ सीख लिया था। पर सोजनी की डूबती कला के कारण यह भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना भविष्य देख रहे थे।
यही वजह है उन्होंने स्नातकोत्तर की शिक्षा के बाद नेट की परीक्षा पास कर ली पर पिता को अपनी कला से प्यार था और वह चाहते थे कि बेटी इस कला को आज के अनुसार विस्तार दे और युवाओं को भी इसमें जोड़ने में सहयोग करे। पिता की बात सुन वह मनन कर रहे थे पर गांव के कुछ और दिव्यांग युवकों की हालत देख उन्हें लगा कि उन्हें शायद लक्ष्य मिल गया है। ज्यादातर पढ़े- लिखे नहीं थे। इनमें से एक युवक से बात की तो उसने बताया कि शायद भीख मांगकर ही जीवनभर गुजारा करना पड़ेगा। मीर बताते हैं कि यहीं से उनको नई राह मिल गई।
एक-एक कारीगर से मिले
यंग लीडरशिप अवॉर्ड से सम्मानित हो चुके तारिक मीर ने कहा कि पहले इन दिव्यांग युवकों से बात की और उन्हें प्रेरित किया कि हाथ न फैलाएं, बल्कि अपने ही हाथ से कमाएं। इनमें से कुछ को कढ़ाई सीखानी पड़ी और कुछ का खानदानी पेशा था। एयके बाद स्पेशल हैंडस ऑफ कश्मीर के नाम से एक संस्था बनाई और 15 दिव्यांग कारीगरों का एक समूह बनाया। यही कारीगर नए युवाओं को प्रशिक्षण भी देते थे और उन्हें काम भी दिलवाने में सहयोग करते थे।
कुछ समय बाद दिव्यांग महिला कारीगरों ने भी इसी समूह के तहत काम करना शुरू कर दिया। आज हमारे पास 200 कारीगर हैं और इनमें 40 दिव्यांग हैं। उन्होंने बताया कि हमारे साथियों द्वारा तैयार सामान न कश्मीर में बल्कि मुंबई, दिल्ली आदि सहित देश के अन्य राज्यों की प्रदर्शनियों में भी प्रदर्शित किया जाता है, और अब हर प्रदर्शनी में लोग हमारा इंतजार करते हैं। हस्तशिल्प और हथकरघा विभाग और सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के माध्यम से हम ऐसे स्टाल लगाते हैं।
'मेरी कला को बाजार मिल गया'
गोटपोरा के रहने वाले फारूक अहमद मीर ने कहा कि मैं सोजनी का काम पहले से जानता था। काम कर भी रहा था,लेकिन बाजार तक कोई पहुंच नही थी, काम भी ज्यादा नहीं मिलता था। फिर तारिक मिले और उन्होंने कहा कि मैं उनके साथ चलूं और उसके बाद से मेरे हालात में व्यापक बदलाव आया है। काम नियमित तौर पर मिल रहा है, जो शाल हम तैयार कर रहे हैं, उसका अच्छा दाम मिल रहा है। अगर मैं अपना सामान लेकर गुजरात, मुंबई, कोलकाता, पुणे समेत देश के विभिन्न भागों में गया हूं। अन्यथा, घर पर रहकर मजदूरी की करता रहता।
पहले मुझे भी नहीं लगा कि स्पेशल हैंडस इतना काम कर रही है। एक दिन जब तारिक मीर मिलने आए तो पता चला कि यह वाकई स्पेशल हैंडस ऑफ कश्मीर है,जो कश्मीर की एक विशिष्ट कला के संरक्षण के साथ साथ कई लोगों को संबल प्रदान कर रहा है। दिव्यांगों को उनकी कला के माध्यम से समर्थ बना रहा है।
डॉ महमूद ए शाह, कश्मीर के हस्तशिल्प एवं हथकरघा विभाग के पूर्व निदेशक
कई दिव्यांग बुनकरों, कारीगरों और उनके परिजनों ने हमारे समूह में शामिल होने के बाद यह कला सिखी है। आज उन्हें किसी के आगे हाथ फैलाने की आवश्यकता नहीं है। हमारे समूह का एक लक्ष्य है कश्मीर की विशिष्ट कला सोजनी के संरक्षण के साथ-साथ दिव्यांग व्यक्तियों और उनके परिवारों को रोजगार का स्रोत प्रदान करना है। वर्तमान में बाजारों में हमारे शाल और स्टोल की मांग बहुत अधिक है। हमें विदेश से भी आर्डर आते हैं। जर्मनी, कोरिया और अमेरिका के अलावा आस्ट्रेलिया के पर्यटकों को हमारा तैयार सामान पसंद आया है। सऊदी अरब और ओमान से हमें ऑर्डर मिल रहे हैं।
तारिक अहमद मीर, स्पेशल हैंड्स इन कश्मीर के संस्थापक
सोजनी कढ़ाई
सोजनी कश्मीरी कढ़ाई कला है और इसे सोजनी कारी भी कहा जाता है। कश्मीर में पांच सौ वर्ष से सोजनी कढ़ाई कर रहे हैं पर कुछ वर्षों में धीरे-धीरे इसमें कमी आई थी। यह कढ़ाई सामान्य तौर पर ऊनी और रेशन के कपड़ों पर की जाती रही है और पश्मीना शॉल में काफी प्रचलित है। पश्मीना शाल के किनारोे या फिर बीच में विशेष तौर पर यह कढ़ाई की जाती है और यह उसे और भी आकर्षक बना देती है।
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