पांपोर जामिया मस्जिद संकट ने दिलाई चरार-ए-शरीफ-हजरतबल दरगाह संकट की याद, जानिए क्या था मामला!
बीते तीन दशकों के दौरान यह काेई पहला मौका नहीं था जब आतंकी किसी मस्जिद में घुसे हों लेेकिन जब-जब ऐसा कुछ होता है तो लोग सिहर जाते हैं।
श्रीनगर, राज्य ब्यूराे। केसर की क्यारी के नाम से मशहूर पांपोर में लगभग 32 घंटे बाद जामिया मस्जिद संकट हल हुआ। मस्जिद को नुकसान पहुंचाने और उसके जरिए वादी के लोगों को इस्लाम के नाम पर सुरक्षाबलों के खिलाफ भड़काने का आतंकी मंसूबा नाकाम हाे गया। जितनी देर यह संकट चला, उतनी देर वादी में पुलिस, सेना और नागरिक प्रशासन के साथ-साथ आम लोगों की जान सांसत में थी। सभी दुआ कर रहे थे कि कहीं दूसरा चरार-ए-शरीफ या हजरतबल दरगाह संकट न बने।
बीते तीन दशकों के दौरान यह काेई पहला मौका नहीं था, जब आतंकी किसी मस्जिद में घुसे हों, लेेकिन जब-जब ऐसा कुछ होता है तो लोग सिहर जाते हैं। श्रीनगर से कुछ ही दूरी पर स्थित नौगाम में आकर बसे बिलाल कुमार ने कहा कि खुदा का शुक्र है कि किसी का घर नहीं जला, किसी काे अपना बाप या भाई गंवाना नहीं पड़ा। मैं तो शेख नूरूदीन नूरानी की दरगाह के पास ही रहता था। मेरा मकान वहीं कुम्हार मोहल्ले में था। मैं उस समय 16 साल का था। मस्तगुल जब चरार-ए-शरीफ में आया तो वहां बहुत से लोगों ने खुशियां मनाई, लेकिन जब वह गया तो पूरा कस्बा श्मशान था। मेरे पिता अली माेहम्मद ने हम सभी को अप्रैल माह के अंतिम दिनों में नागम में भेज दिया था। मैं 13 मई को जब अपने घर को देखने पहुंचा तो मुझे मेरे पिता की जली हुई लाश मिली।
...यहां जो भी बसा है चरार से उजड़ कर आया है
चरार-ए-शरीफ से कुछ ही दूरी पर बसी आलमदार कॉलोनी में रहने वाले नजीर बाबा ने बताया कि यहां जाे भी बसा है, चरार से उजड़ कर आया है। लगभग दो माह तक आतंकवादियों को सुरक्षाबल, उलेमा दरगाह छोड़ने के लिए मनाते रहे। अगर कस्बे से अधिकांश लोगों ने पहले ही दूसरी जगहों पर शरण न ली होती तो आतंकवादियों की दरगाह में लगाई आग में शायद ही काेई जिंदा बचता। आतंकवादियों ने हमारी आस्था, हमारे इस्लाम को बहुत गहरे जख्म दिए हैं। मैं उस दिन चरार में ही था, तड़के दरगाह में आग लगी, दरगाह के आस-पास तंग गलियों में मकान थे। उनमें ज्यादातर लकड़ी ही लगी थी। इसलिए आग तेजी से फैली, जिसे जिधर मौका मिला, उधर जान बचाने भागा। दमकलकर्मी और फौज कहां-कहां आग बुझाती। एक तरफ आतंकी गोलियां बरसा रहे थे तो दूसरी तरफ आग कस्बे को जला रही थी। पांपाेर में भी एेसा ही होता, क्योंकि वहां जामिया मस्जिद भी मोहल्ले के भीतर ही स्थित है।
आतंकियों का दरगाह, मस्जिद, मंदिर से कोई मतलब नहीं
श्रीनगर के सदरबल इलाके में रहने वाले नसीम फख्तू ने पांपोर में आतंकियों द्वारा मस्जिद में शरण लिए जाने पर हुई बातचीत में कहा कि आतंकियों का दरगाह, मस्जिद, मंदिर से कोई मतलब नहीं होता। अगर ऐसा होता ताे जेकेएलएफ के आतंकी हमारी हजरतबल दरगाह में नहीं आते। हथियारों के साथ वे दरगाह में नहीं जाते। सेवानिवृत्त अध्यापक नसीम फख्तू ने कहा कि आतंकी एक बार नहीं दाे बार यहां दरगाह में आए। पहली बार एक महीने तक आतंकी दरगाह में छिपे रहे। उन्हें शायद खुदा ने अक्ल दी जो उन्होंने दरगाह की मर्यादा को नुकसान पहुंचाए बगैर सुरक्षाबलों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। दूसरी बार आतंकी 1996 में दरगाह में आए। उन्होंने वहां गाेलियां बरसायी। उस मुठभेड़ में करीब दो दर्जन आतंकी मारे गए थे। हजरतबल दरगाह में मुए मुकद्दस है, जिहादी अगर उस तक पहुंच जाते तो आप समझ सकते हैं कि क्या स्थिति होती।
किसी मकसद के साथ मस्जिद में शरण लेते हैं आतंकी
एसएसपी जम्मू-कश्मीर पुलिस अल्ताफ खान ने कहा कि आतंकी मस्जिद में तीन कारणों से शरण लेते हैं। पहला- उन्हें लगता है कि इस तरह से वह बच जाएंगे। मस्जिद या दरगाह को बचाने के लिए व किसी तरह के कानून व्यवस्था के संकट से बचने के लिए सुरक्षाबल उन्हें सुरक्षित रास्ता देंगे। कई बार ऐसा भी किया गया है। आतंकियों का दूसरा मकसद मस्जिद में दाखिल होने के बाद ज्यादा से ज्यादा समय तक गतिरोध बनाए रखते हुए दुनियाभर में सुर्खियां बटोरना, कश्मीर के हालात खराब होने के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना भी रहता है। तीसरा मकसद मस्जिदों को नुकसान पहुंचाकर सुरक्षाबलों को बदनाम करना, लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काना और इसके जरिए अपने लिए समर्थन व नया कैडर जुटाना है। कश्मीर में बीते तीन दशकों के दौरान कम से कम 15 बार ऐसी घटनाएं हाे चुकी हैं जब आतंकियों ने अपने मंसूबों को पूरा करने व अपनी जान बचाने के लिए किसी मस्जिद या दरगाह में शरण ली।
चरार-ए-शरीफ मामला: चरार-ए-शरीफ मेंं 15वीं शताब्दी के सूफी संत शेख नूरूद्दीन नूरानी जिन्हें नुंद रेशी भी कहते हैं, की दरगाह में वर्ष 1995 में मार्च में हरकत-उल-अंसार व हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकियाें ने अपनी जान बचाने के लिए शरण ली थी। इन आतंकियों का नेतृत्व पाकिस्तानी आतंकी मस्तगुल कर रहा था। करीब 66 दिनों तक यह संकट चला। सुरक्षाबलों ने जियारत की अहमियत और कश्मीरियों की धार्मिक आस्था का ध्यान रखते हुए आतंकियों से दरगाह खाली कराने के लिए उलेमाओं, मौलवियों व कई अन्य इस्लामिक विद्वानाें से मदद ली। लेकिन वह नहीं माने। इस दाैरान सुरक्षाबलों ने मस्तगुल की पाकिस्तान स्थित उसके आकाओं के साथ बातचीत को भी पकड़ा। इसमें मस्तगुल कह रहा था कि जैसा हुक्म होगा, वैसा ही किया जाएगा। आतंकियों ने 11 मई की शाम को सुरक्षाबलों की घेराबंदी तोड़ने के लिए फायरिंग की। जवानाें ने संयम बरतते हुए इसका जवाब दिया। अगली सुबह आतंकियों ने दरगाह को आग लगा दी। देवदार की लकड़ी से निर्मित सात सौ साल पुरानी दरगाह में लगी आग देखते ही देखते कस्बे के विभिन्न हिस्सों में फैल गई। दरगाह समेत कस्बे का अधिकांश हिस्सा जलकर तबाह हो गया। यह तो गनीमत था कि स्थानीय लोगों ने कस्बे के हालात को देखते हुए पहले ही अन्य जगहों पर शरण ले ली थी। इस दौरान मुठभेड़ में नौ पाकिस्तानी आतंकियों समेत 25 आतंकी मारे गए थे। मस्तगुल किसी तरह बच निकलने मे कामयाब रहा। जब वह गुलाम कश्मीर की राजधानी पहुंचा ताे वहां जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान के तत्कालीन आमीर काजी हुसैन ने उसका स्वागत किया था।
हजरतबल दरगाह मामला: 15 अक्तूबर 1993 को 40 आतंकियों ने हजरतबल दरगाह में शरण ली थी। हजरतबल दरगाह में हजरत मुहम्मद साहब का मुए मुकद्दस संरक्षित है। दरगाह में दाखिल होने वाले आतंकियों के पास 12 एलएमजी भी थी। यह संकट लगभग एक माह चला और 16 नवंबर को आतंकियों ने दरगाह को खाली करते हुए सुरक्षाबलों के समक्ष आत्मसमर्पण किया। इस घटना के लगभग तीन साल बाद 1996 में आतंकियों ने एक बार फिर सुरक्षाबलाें से बचने और वादी में लोगों को भड़काने के लिए हजरतबल दरगाह की शरण ली। जेकेएलएफ के कमांडर बशारत रजा और शब्बीर सिद्दीकी अपने दो दर्जन साथियों संग दरगाह में दाखिल हुए। उन्होंने दरगाह की सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों पर हमला बोला। पुलिस ने भी मुकाबला किया। तीन पुलिसकर्मी शहीद हुए, जबकि दरगाह पर कब्जा करने आए आतंकी भी मारे गए।