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    हम हैं होममेकर्स

    By Edited By:
    Updated: Thu, 03 Jan 2013 12:52 PM (IST)

    गृहिणी, हाउसवाइफ, होममेकर, डोमेस्टिक इंजीनियर, होम मैनेजर या घर की सीईओ..नाम में क्या रखा है! लेकिन जरा सोचिए, नाम में अगर कुछ न होता तो गृहिणी से होम मैनेजर या सीईओ तक ये संबोधन बदलते क्यों रहते!

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    गृहिणी, हाउसवाइफ, होममेकर, डोमेस्टिक इंजीनियर, होम मैनेजर या घर की सीईओ..नाम में क्या रखा है! लेकिन जरा सोचिए, नाम में अगर कुछ न होता तो गृहिणी से होम मैनेजर या सीईओ तक ये संबोधन बदलते क्यों रहते! शायद ये बदलाव इसीलिए हैं कि घरेलू कार्यो की कीमत अब लोग समझने लगे हैं। होममेकर्स की जिम्मेदारियों को परिभाषित नहीं किया जा सकता, ये अंतहीन हैं। सुबह आंख खुलने से लेकर नींद से पलकेबोझिल होने तक सिर्फ जिम्मेदारियां। सुबह और शाम काम ही काम..।

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    बाई गई छुट्टी पर

    'दीदी, मैं हफ्ते भर की छुट्टी पर जा रही हूं, आप मैनेज कर लेना..' काम वाली बाई जब सुबह-सुबह छुट्टी लेने का ऐलान करे और वह भी ठीक किसी त्योहार से पहले तो किसके पसीने नहीं छूटेंगे! वह छुट्टी पर न जाए, इसके लिए उसकी चिरौरी करनी पड़ती है, ढेरों प्रलोभन दिए जाते हैं और गिफ्ट्स भी।

    एक फिल्म थी, 'अतिथि तुम कब जाओगे'। इसके एक दृश्य में परेश रावल काम वाली बाई को झाड़ू ठीक से लगाने को कहते हैं तो वह झाड़ू पटक कर यह कहती हुई चली जाती है कि 'मैं कोई चुहिया हूं जो कोने-कोने में घुस कर सफाई करूंगी?'

    ऐसे जवाब रोज ही सुनने को मिलते हैं आम गृहिणियों को। महानगरों में अधिकतर स्त्रियां घर से बाहर निकल रही हैं और वहां डोमेस्टिक हेल्पर्स पर ही जिंदगी निर्भर हो गई है। मेड के भरोसे ही घर चलता है। इस दर्द को नौकरीपेशा स्त्रियां अच्छी तरह समझती हैं, जिन्हें अपनी तनख्वाह का एक मोटा हिस्सा मेड, आया, कुक या मेड एजेंसियों पर खर्च करना पड़ता है, इसके बावजूद संतुष्टि नहीं मिल पाती। एक स्त्री घर से बाहर कदम रखती है तो घर की व्यवस्था संभालना कितना मुश्किल होता है!

    यहां कोई छुट्टी नहीं

    जिस तरह करियर में अपना सौ फीसदी देना जरूरी है, उसी तरह घर भी पूर्ण समर्पण और समय की मांग करता है। यह फुल टाइम जॉब है, यहां न संडे की छुट्टी है, न होली-दिवाली की। छुट्टी के दिन तो यहां ओवरटाइम भी करना पड़ता है। यहां काम के घंटे निश्चित नहीं होते। फिर भी भला हो टेक्नोलॉजी का, जिसने स्त्रियों के लिए घरेलू कार्य कुछ आसान बना दिए हैं।

    एक ग्लोबल एन.जी.ओ. हेल्थ ब्रिज द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया कि भारतीय स्त्रियां दिन भर में लगभग 16 घंटे काम करती हैं। इसमें घरेलू कार्यो के अलावा बच्चों को पढ़ाना और कुछ बाहरी कार्य भी शामिल हैं। शहरी स्त्रियों की तुलना में ग्रामीण स्त्रियों को अधिक काम करना पड़ता है। यदि इन घरेलू कार्यो का मूल्य तय किया जाए तो भारतीय स्त्रियां वर्ष भर में यू.एस. के 612.8 बिलियन डॉलर्स के बराबर काम करती हैं।

    कुछ नहीं में छिपा सब कुछ

    आपकी पत्नी क्या करती हैं?

    जी, कुछ नहीं, घर पर रहती हैं?

    इतना पढ़-लिखकर चूल्हे-चक्की में क्यों पिस रही हो..?

    घरेलू कार्यो के प्रति इस तरह के हिकारत भरे वाक्य बताते हैं कि ये काम 'कुछ नहीं' की श्रेणी में आते हैं। शायद यही कारण है कि होममेकर्स के लिए 'मेहनताने'की मांग समय-समय पर कई संगठन करते रहे हैं। कुछ समय पूर्व केरल में नेशनल हाउसवाइव्स यूनियन ने यह मांग उठाई थी कि हाउसवाइफ को घरेलू कार्यो व बच्चों की परवरिश के लिए न्यूनतम पारिश्रमिक व सामाजिक सुरक्षा दी जानी चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि यह मांग नई नहीं है। यूक्रेन व वेनेजुएला जैसे देशों में भी ऐसे संगठन हैं।

    दिल्ली की जानी-मानी नृत्यांगना और आई.ए.एस. अधिकारी शोभना नारायण बचपन की एक घटना का जिक्र करती हैं। एक बार कक्षा में टीचर ने सभी बच्चों से पूछा कि वे बड़े होकर क्या बनना पसंद करेंगे? सभी ने जवाब दिए। तभी एक लड़की ने कहा कि वह हाउसवाइफ बनना पसंद करेगी। पूरी क्लास में ठहाके गूंज उठे। बाद में टीचर ने छात्रों को समझाया कि हाउसवाइफ बनना शर्म या मजाक की बात नहीं है, यह सबसे महत्वपूर्ण काम है।

    इच्छा पर भारी मजबूरी

    यूं तो होममेकर बनना या बाहर काम करना किसी स्त्री का अपना फैसला है, लेकिन कभी-कभी मजबूरी या जरूरत उनकी इच्छा पर भारी भी पड़ती है। कोई स्त्री करियर बनाना चाहती है, लेकिन घरेलू परिस्थितियां उसे घर पर रहने को मजबूर करती हैं। सेंटर फॉर वर्क-लाइफ पॉलिसी के एक अध्ययन के अनुसार, अधिकतर भारतीय स्त्रियां शादी के बाद घरेलू जिम्मेदारियों या बच्चे की परवरिश के कारण नौकरी छोड़ती हैं। एक हजार भारतीय स्त्रियों पर हुए इस सर्वे में से 51 फीसदी को विवाह के बाद और 52 प्रतिशत को बच्चा होने के बाद ऐसा दबाव महसूस हुआ। स्त्रियों ने माना कि ऑफिस के बाद घर जाकर 'सेकंड शिफ्ट' का दबाव उन्हें कई बार घर पर ही रहने को मजबूर करता है।

    होममेकर बनाम कामकाजी स्त्री

    होममेकर्स ज्यादा खुश हैं या नौकरीपेशा स्त्रियां? कभी-कभी होममेकर्स को अपनी स्थिति बुरी लगती है तो कई बार नौकरीपेशा स्त्रियां नाखुश दिखती हैं। दिल्ली की 55 वर्षीय कल्पना लांबा होममेकर हैं। वह एक कॉलेज में लेक्चरर थीं, लेकिन बच्चों की खातिर उन्हें जॉब छोड़नी पड़ी। कहती हैं, 'जिन बच्चों की परवरिश केलिए मैंने नौकरी छोड़ी, उन्हीं के पास बाद में मेरे लिए समय नहीं रहा। मैं रोज सुबह सबसे पहले उठती, पति और बच्चों के लंच बॉक्स तैयार करती और नाश्ते की टेबल पर उनका इंतजार करती। संडे को मेरा मन होता कि सबके साथ कहीं बाहर निकलूं तो बाकी लोग आराम के मूड में होते। हरेक की अपनी दुनिया थी, जिसमें मेरे लिए समय कम था। शादी के बाद बच्चे अपनी-अपनी गृहस्थी में मसरूफ हैं, पति रिटायर नहीं हुए हैं। मेरी लाइफ अभी भी वैसी ही है। अब अकेलापन खलता है। लगता है नौकरी छोड़ने का मेरा फैसला गलत था।'

    दूसरी ओर शादी के बाद एम.एन.सी. में अपने बेहतरीन करियर को छोड़ने वाली गुड़गांव की नेहा शर्मा कहती हैं, 'पेरेंट्स की ख्वाहिश थी कि मैं नौकरी करूं, मैंने की। 3-4 साल मन लगा कर काम किया। पिछले साल मेरी शादी हुई तो मुझे लगा कि पति व परिवार को पूरा समय दूं। हो सकता है कि कुछ वर्ष बाद मैं दोबारा जॉब करूं, अभी तो घर मुझे अच्छा लग रहा है। '

    नॉन-वर्कर्स नहीं हैं होममेकर्स: सुप्रीम कोर्ट

    पिछले वर्ष दुर्घटना के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पार्लियामेंट को होममेकर्स की भूमिका पर पुनर्विचार करने को कहा। जस्टिस ए.के. गांगुली ने कहा, 'स्त्रियां घर बनाती हैं, समस्त घरेलू कार्य करती हैं, बच्चों की परवरिश करती हैं, उन्हें पाल-पोस कर बड़ा करती हैं। वे परिवार को अपनी जो सेवाएं देती हैं, उन्हें बाजार से नहीं खरीदा जा सकता। लेकिन खेद का विषय यह है कि उनके कार्यो का अब तक मूल्यांकन नहीं किया गया है।'

    वर्ष 2001 में हुई जनगणना में कहा गया था कि भारत में 36 करोड़ स्त्रियां 'नॉन-वर्कर्स' हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि होममेकर्स को नॉन-वर्कर्स की श्रेणी में रखना उनके श्रम का अपमान करना है।'

    इस मामले में पीड़ित की पत्नी सड़क दुर्घटना में मारी गई थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पीड़ित को ढाई लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया। फैसले के खिलाफ व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। इस पर कोर्ट ने कहा कि मुआवजा तय करते समय होममेकर द्वारा किए गए हर कार्य का मूल्य आंका जाना चाहिए। उसकी आय को पति की कमाई का महज एक तिहाई मानना गलत है। सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजे की रकम को ढाई लाख से बढ़ा कर छह लाख रुपये किया। साथ ही अपील की तारीख से मुआवजे में ब्याज की राशि भी जोड़ने को कहा। शादी तय होते ही 20 फिल्में छोड़ दीं मैंने

    सायरा बानो

    मेरी पहली फिल्म 'जंगली' जबरदस्त हिट थी और इसके बाद 4-5 साल मैं व्यस्त थी। लेकिन इसी बीच दिलीप साहब से मेरी शादी हुई, मैंने अपनी साइन की हुई 20 फिल्में छोड़ दीं। हालांकि 'शागिर्द' देखने के बाद इन्होंने कहा कि अभिनय न छोड़ूं। मेरा मानना है कि हर रिश्ते को बनाए रखने के लिए कुछ समझौते करने चाहिए। मुझे कभी लगा ही नहीं कि काम नहीं कर रही हूं। काम बहुत है, केवल फिल्में नहीं कर रही।

    मैंने करियर में ब्रेक लिया है

    निशा चौधरी, मेरठ

    मैंने बी.टेक. के बाद कंप्यूटर कोर्स किया था। करियर के लिए सोचती, इससे पहले ही शादी हो गई। पति हाइडिल में इंजीनियर हैं। उनका ट्रांसफर होता रहता है, एक जगह टिक नहीं पाते। हमारे दो छोटे बच्चे हैं, उनकी परवरिश में व्यस्त हूं। ऐसे में जॉब के बारे में नहीं सोच सकती। पढ़ाई बेकार न हो, इसके लिए मैंने लॉ किया और अभी पी.सी.एस. की तैयारी भी कर रही हूं। मैंने करियर बनाने का इरादा छोड़ा नहीं है, सि़र्फ कुछ समय का ब्रेक लिया है। बच्चे बड़े व आत्मनिर्भर हो जाएंगे तो नौकरी भी करूंगी। अभी तो वे ही मेरी प्राथमिकता हैं।

    मेरे वक्त पर पहले बच्चों का हक है

    दीप्ति निधीश मित्तल, पुणे

    आज अगर कोई मुझसे मेरी पहचान पूछे तो मैं गर्व से कहूंगी कि होममेकर हूं। 12-13 साल पहले मुझे यह निहायत छोटी बात लगती थी। मैंने एम.सी.ए. किया और मल्टीनेशनल कंपनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर काम शुरू किया। मैं बहुत महत्वाकांक्षी थी। मुझे लगता था, शादी के बाद भी मैं मैनेज कर लूंगी। तभी एक घटना ने मुझे हिलाकर रख दिया। मुझे कुछ दिन अपना केबिन शादीशुदा सहकर्मी के साथ शेयर करना पड़ा। वह दो वर्ष के बेटे की मां थी। बच्चे को उसने माता-पिता के घर छोड़ा, लेकिन बूढ़े मां-बाप हर बार अपनी लाचारगी जताते। फिर बच्चे को उसने क्रेश में छोड़ा तो वह बीमार और चिड़चिड़ा हो गया। मेरी कलीग हमेशा फोन पर होती, कभी वह रोती-कभी उसका बच्चा। इस कारण वह काम पर भी ध्यान नहीं दे पाती थी। मुझे उस पर ्रगुस्सा आता, सोचती बच्चे को पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हैं। उससे पूछा तो पता चला कि कोई आर्थिक समस्या नहीं है, लेकिन उसने यहां तक पहुंचने के लिए इतनी मेहनत की है-इसे वह ऐसे कैसे छोड़ दे। उसे देख कर ही मैंने निश्चय किया कि जब मेरे बच्चे होंगे, मेरे समय पर पहले उन्हीं का हक होगा। इसलिए जब मेरी बड़ी बेटी हुई तो मैंने नौकरी छोड़ दी। घर पर रहते हुए मैंने कंप्यूटर विज्ञान पर चार किताबें लिखीं, ट्यूशंस लिए, जिससे मुझे संतुष्टि मिली। पति ने कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि मैं कमा नहीं रही हूं। घर का हर खर्च हम दोनों की सहमति से ही होता है। इसके अलावा मैं एक आध्यात्मिक संस्था से भी जुड़ी, जहां योग-ध्यान के माध्यम से मैंने संतुलित जीवन जीना सीखा। मुझे करियर छूटने का अब कोई अफसोस नहीं है। क्योंकि मैं अपने काम का महत्व समझ चुकी हूं। अपने परिवार, बच्चों को क्वॉलिटी टाइम देकर मैं संतुष्टि पाती हूं और योग व आध्यात्मिकता मुझे भौतिकवादी युग से बचने को प्रेरित करती है।

    जॉब छोड़ी मगर अफसोस नहींहै

    राखी, गाजियाबाद

    मैंने भुवनेश्वर विश्वविद्यालय से एम.बी.ए. किया है। एच.आर. व मार्केटिंग दोनों में मेरा स्पेशलाइजेशन है। शादी से पहले भुवनेश्वर और मुंबई में काम भी किया। वर्ष 2003 में शादी हुई तो दिल्ली आई। यहां भी कुछ समय काम किया। प्रेग्नेंसी के आखिरी दौर तक मैं ऑफिस जाती रही। फिर बेटा हुआ। अभी वह छह वर्ष का है। सच कहूं तो जॉब छोड़ने का खयाल बेटे के होने के बाद आया। हालांकि मेरी कंपनी ने मेरे लिए विकल्प खुला रखा है, जब चाहूं मैं वहां जॉइन कर सकती हूं। मैंने कुछ दिन इसके लिए कोशिश की भी। मैंने बच्चे को क्रेश में छोड़ा, लेकिन वह वहां एडजस्ट नहीं कर सका। उसे रोता देख कर मैंने अपना मन बदल लिया। मैंने सोचा कि जब तक वह बड़ा नहीं हो जाता, मैं नौकरी नहीं करूंगी। बच्चा मेरी प्राथमिकता है। हम न्यूक्लियर फेमिली में रहते हैं। मेरे पति दोपहर 12 बजे ऑफिस जाते हैं तो रात के 11-12 बजे लौटते हैं। ऐसे में अगर मैं भी जॉब करने लगूं तो बच्चा उपेक्षित होगा, साथ ही पति भी डिस्टर्ब रहेंगे। जॉब छोड़ना पूरी तरह मेरा फैसला है और इसके लिए मुझे कोई दुख नहीं है। हां, जब बेटा इस लायक हो जाएगा कि वह खुद चीजें मैनेज कर सके तो करियर के बारे में सोच सकती हूं।

    परिवार व बच्चे ही सब-कुछ हैं मेरे लिए

    नीतू सिंह (अभिनेत्री)

    मैं तो शादी से पहले फिल्मों में इतनी व्यस्त थी कि सोच लिया था शादी के बाद फिल्में नहीं करूंगी। वाहे गुरु ने मेरी दुआ कबूल की और चिंटू जी (ऋषि कपूर) से मेरी शादी हो गई। शादी से पहले कभी काम नहीं किया था, इसलिए कुकिंग क्लासेज कीं। बच्चे हुए तो पूरा वक्त उनकी परवरिश में लगाया। मेरे बच्चों को मां के साथ-साथ दादा-दादी, चाचा-चाची सभी का प्यार मिला। अब वे आत्मनिर्भर हैं तो मैंने फिर से काम शुरू किया है। इतना ही कहूंगी कि जीवन के हर रंग को मैंने भरपूर जिया है।

    बेटी की परवरिश में व्यस्त हूं

    शबाना रजा बाजपेयी (अभिनेत्री)

    फिल्म 'करीब' में नेहा की भूमिका में दर्शकों ने मुझे देखा-सराहा था। मनोज बाजपेयी की फिल्म 'सत्या' भी तभी आई थी। हम दोनों इसी दौर में मिले। लंबी मित्रता के बाद शादी की। फिलहाल शादी के बाद के जीवन को पूरी तरह जी रही हूं। मेरी बेटी छोटी है। वैसे तो मैं पहले भी बहुत व्यस्त नहीं थी, लेकिन अभी तो पूरी तरह अपनी बेटी आवा को पाल रही हूं। हालांकि मैं बहुत महत्वाकांक्षी हूं, लेकिन इंडस्ट्री का रवैया मेरी समझ से परे है। मुझ पर कोई पांबदी नहीं है, पूरी आजादी है। फिर भी मैं यही चाहती हूं कि मनोज ही अपना काम बेहतर करें। यह मेरा फैसला है कि काम करूं या न करूं।

    कभी-कभी लगता है कि कुछ मिस किया

    पूनम माथुर, दिल्ली

    मेरी शादी को 16 वर्ष हो चुके हैं। बेटा 15 वर्ष का और बेटी 13 वर्ष की है। दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद एच.आर. में एम.बी.ए. किया। मैंने वर्ष 2011 के शुरुआती दौर तक नौकरी की, लेकिन अब मैंने नौकरी छोड़ दी है। मेरी परेशानी दो तरह की रहीं। बेटा-बेटी टीनएजर हैं, उन्हें इस समय मेरे मार्गदर्शन की सख्त जरूरत है। मेरी सास बूढ़ी हैं, उनकी सेहत खराब रहती है। ऐसे में किसी एक का घर पर रहना जरूरी है। ऑफिस से घर लौटते हुए मुझे अकसर सात-साढ़े सात बज जाते थे। घर आते ही किचन और अन्य घरेलू कार्य पूरे करती और इतना समय ही नहीं मिल पाता था कि बच्चों के साथ कुछ देर बैठ कर बातें भी कर सकूं। मैं लगातार तनाव व दबाव झेल रही थी। शायद मेरे भीतर इतनी क्षमता नहीं है कि मैं घर-बाहर दोनों को ठीक ढंग से संभाल सकूं। बच्चों की शिकायतें भी रहती थीं कि मैं उन्हें समय नहीं दे पा रही हूं। समय तो लगा, लेकिन जब एक बार जॉब छोड़ने का फैसला ले लिया तो फिर ज्यादा नहीं सोचा। अब मैं खुश हूं, बच्चों को समय दे पा रही हूं। मेरे पति नौकरी छोड़ने के विरोध में थे, मेरे लिए भी यह फैसला मुश्किल था। लेकिन लगा कि इस उम्र में बच्चों को सही मार्गदर्शन न मिला तो वे भटक सकते हैं। अगर वे ही ठीक से न रह सकें तो करियर या पैसे का क्या महत्व है! हालांकि कभी-कभी खालीपन लगता है। रुटीन टूटता है तो बुरा लगता है। बाहर निकलना, कलीग्स के साथ काम करना..ऐसी कई बातें मिस करती हूं, लेकिन जब बच्चों के स्कूल से लौटते वक्त उनका स्वागत करती हूं तो मन को तसल्ली मिलती है। बच्चों की सही परवरिश आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती है। फिलहाल मैं पार्ट टाइम जॉब के विकल्प तलाश रही हूं।

    घर में रह कर खुश और संतुष्ट हूं श्वेता रायजादा, गुड़गांव (हरियाणा)

    मैंने प्राणि-विज्ञान विषय से एम.एस-सी के बाद कंप्यूटर का प्रोफेशनल कोर्स किया है। शादी से पहले पढ़ाया भी। मुझे देश-विदेश में घूमना और भाषाएं सीखना बेहद पसंद है। लंदन में कुछ वर्ष बिता चुकी हूं। गल्फ देशों के अलावा यूरोप की सैर कर चुकी हूं। हिंदी, मराठी, फ्रेंच और अंग्रेजी बोल लेती हूं। मेरा परिवार नागपुर में रहा, लेकिन शादी के बाद मेरठ आ गई। पति सी.ए. हैं। शादी को 11 वर्ष हो चुके हैं। एक बेटा-बेटी हैं। मुझे घर पर रहना और घरेलू काम करना पसंद है। मैं बच्चों को मेड, आया व क्रेश के भरोसे नहीं पालना चाहती थी, इसलिए शादी के बाद नौकरी नहीं की। अब बच्चे बड़े हैं तो मैंने लिखना-पढ़ना शुरू किया है। मैं लघु कथाओं का अपना संग्रह प्रकाशित करने जा रही हूं। लेखन मेरा जुनून है। रचनात्मक क्षेत्र में ही काम करना चाहती हूं और इस तरह कि घर व बच्चे उपेक्षित न हों। मुझे नौकरी न करने का पछतावा नहीं है, बल्कि बच्चों को मैं पूरा समय दे पाती हूं। मेरा मानना है कि बच्चे को जितना मां समझ सकती है, उतना कोई नहीं समझ सकता। मैं रोज लिखती हूं, बच्चे मुझे डिस्टर्ब नहीं करते। उन्हें पता है कि मां काम कर रही हैं, अब वे मैनेज कर लेते हैं।

    करियर से ज्यादा सुकून प्यारा है मुझे

    भावना, फरीदाबाद (हरियाणा)

    मैंने जब एम.एस-सी के बाद एम.सी.ए. किया था तो करियर ही मेरा मकसद था। मैं तीन बहनों में सबसे बड़ी हूं। मेरे माता-पिता शिक्षा विभाग में हैं। करियर के बारे में गंभीरता से सोच पाती, इससे पहले ही शादी हो गई। पति सॉफ्टवेयर कंपनी में उच्च पद पर हैं। शादी को लगभग नौ वर्ष होने जा रहे हैं। छह वर्ष का एक बेटा है। चार-पांच वर्ष जयपुर में रहने के बाद पिछले एक वर्ष से फरीदाबाद में हूं। बेटा अभी छोटा है, उसे मेरी जरूरत है। ऐसा नहीं है कि नौकरी के बारे में सोचा नहीं, लेकिन न्यूक्लियर फेमिली में घर-बाहर दोनों जगह संभाल पाना मुश्किल काम है। बेटे को किसी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। मैं परिवार को समय दे पाती हूं, बच्चे की परवरिश ठीक ढंग से कर पाती हूं, ससुराल-मायके की जिम्मेदारियां ठीक ढंग से निभा पाती हूं। यह शायद नौकरी में रहते हुए संभव नहीं हो पाता। अब तो घर की दुनिया में इतना रम चुकी हूं कि नौकरी का मन भी नहीं होता। मेरे घर में रहने से पति सुकून से काम कर पाते हैं। इन्हें कई बार शहर व देश से बाहर जाना होता है, ऐसे में अगर मैं भी नौकरी करती तो घर मैनेज करना मुश्किल होता। निजी तौर पर मेरा मानना है कि करियर या पैसे से अधिक महत्व सुकून का है, जिंदगी में सबसे पहले वही जरूरी है।

    परिवार मेरी पहली प्राथमिकता है

    स्वरूप संपत (पूर्व मिस इंडिया, अभिनेत्री)

    मेरी शादी को 24 साल हो चुके हैं। मेरे पति परेश रावल और मैं, दोनों ही रंगमंच से जुड़े थे। शादी के बाद मैंने काम कम कर दिया। मेरे शौक अलग-अलग तरह के हैं। पेंटिंग, इकेबाना, पॉटरी, बागबानी, कुकिंग के अलावा बीड्स ज्यूलरी बनाती हूं। मुझे स्टारडम की अपेक्षा कभी नहीं थी, इसलिए मिस इंडिया बनने और तमाम भूमिकाएं निभाने के बावजूद मैं लाइमलाइट से दूर रही। शादी के बाद परिवार को पहली प्राथमिकता दी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि खाली रही। मैंने कई तरह के काम किए। महीने के 30 दिन शूटिंग नहीं कर सकती थी, इसलिए डेली सोप के ऑफर नहीं स्वीकार किए। लगातार काम करती तो मेरे भीतर की अन्य कलाएं मरने लगतीं। शादी के बाद ही अन्य शौक पूरे करने का मौका मुझे मिला। मैं अपनी जिंदगी का पूरा आनंद उठा रही हूं।

    कला की दुनिया में मस्त हूं

    डॉ. सुमन एस. खरे, भोपाल (मध्य प्रदेश)

    इक कदम रखती हूं, हजार राहें मिलती हैं

    मैं हरेक से होकर गुजरना चाहती हूं..

    यही कहना चाहती हूं अपने लिए। मुझे नौकरी न करने का कोई अफसोस नहीं है। मैंने उत्तर प्रदेश से अपनी शिक्षा पूरी की। कला मेरा क्षेत्र है। इसी विषय से एम.ए.बी.एड. किया। इसके बाद शोध किया और डॉक्टरेट हासिल की। नृत्य मेरे रग-रग में बसा है, लिहाजा भातखंडे विश्वविद्यालय, मुंबई से मैंने कथक नृत्य में विशारद डिग्री हासिल की।

    मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की पी.ए.सी. की असिस्टेंट प्रोफेसर पद की परीक्षा में मेरा चयन हुआ था, लेकिन नौकरी का मन नहीं हुआ। ऐसा लगा कि सुबह नौ से शाम पांच बजे वाली नौकरी मेरे लिए नहीं बनी है। मैंने घर पर रहते हुए अपने शौक पूरे करने के बारे में सोचा। अलग-अलग शहरों में रहना, नौकरी करना, घर संभालना और इन सबके बीच अपने कलाकार मन को जीवित रख पाना शायद मुश्किल होता। मैंने मन को कड़ा किया और जॉब करने का खयाल ही दिल से निकाल दिया। आज मैं खुश हूं। मैंने अपने परिवार व बच्चों को पूरा समय दिया। बच्चों की बेहतर परवरिश की, साथ ही नृत्य, चित्रकला और लेखन के अपने जुनून को एक मुकाम तक पहुंचा सकी। मेरे लिए तो यह सबसे बड़ी संतुष्टि व निजी उपलब्धि है।

    हम संवारते हैं घर

    घर में रहना, उसे बनाना-संवारना, बच्चों की सही परवरिश और सही मूल्य देना सबसे महत्वपूर्ण काम है। इसलिए इन होममेकर्स ने घर की दुनिया चुनी है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ये समाज व दुनिया से कटी हैं। ये घर को संवारने के साथ बहुत-कुछ और भी कर रही हैं। कहते हैं कि स्त्री शिक्षित होती है तो पूरा समाज शिक्षित होता है। शिक्षा हर स्तर पर बेहतर करने को प्रेरित करती है और यही साबित करती हैं ये होममेकर्स। इनके कामों को देखने के लिए सही नजरिये की जरूरत है, एक ऐसे समाज का निर्माण करने की जरूरत है, जहां घरेलू कार्य सम्मानजनक समझे जाएं। इसी उम्मीद के साथ इस स्त्री शक्ति को हमारा सलाम!

    इंदिरा राठौर

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