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जानें कैसे मास्‍क बनाने में हो रही गड़बड़ी और कालाबाजारी का खेल, एक रुपये वाला 20 में बिका

संकट की घड़ी में भी मुनाफाखोर बाज नहीं आए। हरियाणा में कोरोना से जंग के बीच कुछ मुनाफाखोर मास्‍क की कालाबाजारी करते रहे। यह आज भी जारी है। एक रुपये का मास्‍क 20 रुपये में बेचा गया।

By Sunil Kumar JhaEdited By: Published: Wed, 10 Jun 2020 03:35 PM (IST)Updated: Wed, 10 Jun 2020 10:23 PM (IST)
जानें कैसे मास्‍क बनाने में हो रही गड़बड़ी और कालाबाजारी का खेल, एक रुपये वाला 20 में बिका
जानें कैसे मास्‍क बनाने में हो रही गड़बड़ी और कालाबाजारी का खेल, एक रुपये वाला 20 में बिका

पानीपत, [रवि धवन]। कोविड-19 के खतरे के वक्त जब सबसे ज्यादा मदद की जरूरत थी, ठीक उसी समय सर्जिकल मास्क बनाने वालों ने कालाबाजारी कर अपने घर भर लिए। एक रुपये में बिकने वाला मास्क दहशत के दौर में बाजार में 20 रुपये तक बिका। इस दौरान मैन्युफैक्चरिंग के हर स्तर पर मास्‍क बनाना और बेचना काली कमाई का जरिया बन गया। इतना ही नहीं, मास्क बिक्री में धोखा भी किया, जो अब तक चल रहा है। थ्री प्लाई सर्जिकल मास्क के बीच में जो मेल्टब्लाउन लेयर डलती है, उसकी जगह नॉनवूवन सामान्य लेयर ही लगाकर  मास्‍क बेचे जा रहे हैं। यह मुनाफाखोरी के साथ-साथ लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य से बड़ा खिलवाड़ है।

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रिफाइनरी, रिलायंस से दान लेकर कपड़ा बनाने वालों से लेकर ट्रेडर्स ने रेट बढ़ाए

दैनिक जागरण ने ट्रेडर से लेकर रबर बनाने वाले, बेचने वाले, ठेकेदारों और फैक्ट्री मालिकों तक पूरी चेन से बात की। बेशक  हम मास्क बनाने में आत्मनिर्भर हो गए हैं लेकिन आमजन को इसकी कीमत बहुत बड़ी चुकानी पड़ी। जानिये कैसे और किस स्तर परमास्क बनाने और बेचने वाले काली कमाई में माहिर हो गए हैं।

 

पहले चरण से शुरू हाे गया बड़ा खेल

सबसे पहला चरण शुरू होता है रॉ मैटीरियल से। हिमाचल प्रदेश के बद्दी से लेकर सोनीपत से नॉनवूवन स्पनबॉन्ड के रोल मंगाए जाते हैं। जैसे ही बाजार में इनकी मांग बढ़ी, फैक्ट्री मालिकों ने इसके रेट बढ़ा दिए। इसी रोल से मास्क की प्लाई बनती है। कोरोना वायरस से पहले ये प्लाई 50 से 60 पैसे तक मिल जाती थी। रोल से प्लाई बनाने वालों ने एकाएक इसके रेट तीन से चार रुपये तक कर दिए। एक छोटी मशीन से एक दिन में पचास हजार प्लाई बन जाती है। यानी इन लोगों ने एक दिन में डेढ़ लाख रुपये तक एक ही मशीन से कमाए।सामान्य तौर पर चार मशीन वाले ने छह लाख रुपये तक कोरोना संकट में कालाबाजारी कर बनाए।

दूसरे चरण में रबर फैक्‍ट्री वालों ने की लूट

अगला स्तर शुरू होता है ठेकेदार का या फैक्ट्री मालिक का, जाे इनसे प्लाई उठाता है। उसने रबर बनाने वाले से संपर्क किया। मांग बढ़ चुकी थी, सो रबर की फैक्ट्री वालों ने भी मौका नहीं चूका। पचास पैसे मीटर में जो रबर बेचते थे, उसी की कीमत तीन से चार रुपये कर दी। ग्लू स्टिक, जिनसे रबर को चिपकाना था, उसका दाम भी तीन गुना हो गया। जिस गन का इस्तेमाल होना था, वो पचास से 250 रुपये की हो गई। इस पूरे कालाबाजार में सबसे महंगी कीमत चुकाई आम उपभोक्ता ने, अस्पतालों ने।

 

सामान्‍य मास्‍क में होते हैं ऐसे तीन लेयर।

पानीपत से यहां मास्क भेजे गए

एक फैक्ट्री मालिक ने बताया कि उन्होंने उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, आंधप्रदेश, तेलंगाना में मास्क बेचे हैं। उत्पादन लागत बढ़ने के कारण ही कीमत बढ़ी है। ट्रेडर ने तो फिर भी दस से बीस पैसे प्रति मास्क कमाए पर बाकी लोगों ने इस मौके को भुनाने में कसर नहीं छोड़ी।

 

सबसे बड़ा धोखा यहां पर

थ्री लेयर मास्क के बीच में मेल्टब्लाउन कपड़ा लगता है। यह महीन कपड़ा बैक्ट्रीरिया, वायरस को नाक के जरिये आगे बढ़ने से रोकता है। इस कपड़े की कीमत भी बढ़ी। पानीपत के कुछ फैक्ट्री मालिकों ने इसकी जगह दूसरा नॉनवूवन सफेद रोल ही लगा दिया। यानी, एक तरफ तो कीमत बढ़ा दी, दूसरी तरफ गुणवत्ता भी गिरा दी।

ऐसे में मास्क पहनकर जो सोच रहे थे कि वे वायरस से बचे रह सकते हैं, उनके लिए यह सूचना बहुत बड़ा झटका साबित हो सकती है। हां, विशेष डिमांड आने पर रेट बढ़ाकर मेल्टब्लाउन कपड़े का मास्क उपलब्ध करा देते हैं। एक फैक्ट्री मालिक ने बताया कि पचास पीस के एक पैकेट में दस से बीस मास्क सामान्य भी डाल देते हैं। इसका किसी को पता नहीं चलता।

रिफाइनरी है पहली कड़ी, उन्होंने निभाई जिम्मेदारी

मास्क बनाने के लिए सबसे पहली कड़ी है रिफाइनरी। क्रूड ऑयल से नेफ्था, इससे एथलीन और प्रोपलीन, प्रोपलीन से पोलीप्रोपलिन, पोलीप्रोपलिन से नॉन वूवन बनता है। आपने देखा होगा मार्केट में ऐसे बैग मिलते हैं, जिनसे हवा आर-पार हो जाता है। आप जो सर्जिकल मास्क पहनते हैं, उनसे भी हवा आर-पार हो जाती है। ये मास्क तीन से चार लेअर में बने होते हैं, जिससे वायरस आगे नहीं जा पाता। जो कच्चा माल रिफाइनरी ने बनाया है, उसे पीपी होमो 1350 वाइजी ग्रेड कहते हैं।

रिफाइनरी की ओर से पोली प्राेपलीन का दाना उपलब्ध कराया जाता है। इससे नॉन वूवन पोली प्रोपलीन रोल बनता है, जिसे कपड़े की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। यह 8 से 60 जीएसएम तक बन सकता है। जीएसएम यानी, उसकी थिकनेस का आकलन। लॉकडाउन के दौरान पानीपत रिफाइनरी ने सात हजार टन कच्चा माल बनाया, इसके बावजूद कालाबाजारी करने वालों ने दाम बढ़ा दिए। कुछ उद्यमियों ने बताया कि टेंडर भी महंगे छूटे हैं। सरकार इसे आवश्यक वस्तु अधिनियम में लाई। फिर भी दाम कम नहीं हुए। इसकी एक वजह टेंडर का महंगा होना भी रही।

रोजाना 50 लाख मास्क बन रहे

एक अनुमान के अनुसार पानीपत में रोजाना 50 लाख मास्क बन रहे हैं। मार्च और अप्रैल में 25 लाख मास्क बन रहे थे। सोनीपत, भिवानी और हिमाचल प्रदेश से कच्चा माल लेकर आ रहे हैं।

 थैले बनाने वाले मास्क बना रहे

नॉनवूवन कपड़े से थैले बनाए जाते थे। पानीपत में ऐसी कम ही फैक्ट्रियां थीं। जैसे ही उन्हें पता चला कि इस मशीन से मास्क भी बन सकता है, उन्होंने अपना काम बदल लिया। रेट भी तीन से चार गुना कर दिए। सप्लाई करनी थी, मजबूरी में इनसे महंगे दाम में प्लाई ली और आगे रेट बढ़ते गए।

अब मांग कम हुई है

जिला पानीपत केमिस्ट्स एंड ड्रगिस्ट्स एसोसिएशन के प्रधान करतार सिंह मक्कड़ ने बताया कि जिले में दवा की थोक व खुदरा दुकानें 1100 से अधिक हैं। कोविड-19 से पहले थ्री लेयर मास्क का खुदरा रेट मात्र दो रुपये था। एक रुपये में भी बेच देते थे। बूम आया तो तमाम छोटी-बड़ी कंपनियों, यहां तक की लोगों ने घरों में मास्क बनाने शुरू कर दिए। कालाबाजारी को देखते हुए केंद्र सरकार ने इसे आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे में ला दिया।

उनका कहना है कि केंद्र व प्रदेश सरकार की ओर से भी जागरूकता अभियान चलाया गया। लोगों को बताया गया कि स्वस्थ व्यक्ति रूमाल-गमछा की दो लेयर बनाकर भी मुंह-नाक पर बांध ले तो संक्रमण का खतरा नहीं रहेगा।मक्कड़ के मुताबिक अब सर्जिकल मास्क की बिक्री बहुत कम हो गई है। उत्पादकों-स्टॉकिस्टों के पास माल इतना है कि खपाना मुश्किल है। अधिकांश लोग घरों में बने या बाजार में बिकने वाले मास्क ही पहन रहे हैं। इनका लाभ यह कि धुलने के बाद दोबारा इस्तेमाल किया जा रहा है।

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