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    विभाजन की विभीषिका: मुहल्ले की महिला के वचन ने बचाई थी जान, रेलगाड़ी पर हमले के डर से बार-बार अटक जाती थी सांसें

    सन् 1947 में देश को स्वतंत्रता मिली वैसे तो यह दिन हमारे लिए खुशहाली से भरा था। लेकिन आजादी ने जो हमें घाव दिए उसकी टीस आज भी दिल को दहला देती है। बंटवारे के समय सैकड़ों लोगों का खून बहा। उन दिनों की विभीषिका भिवानी (Bhiwani News) के कृष्णा नगर निवासी 90 वर्षीय शानुराम धमीजा ने अनुभव साझा किया है

    By Shiv Kumar Edited By: Prince Sharma Updated: Sat, 10 Aug 2024 03:05 PM (IST)
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    रेलगाड़ी पर हमले के डर से बार-बार अटक जाती थी सांसें (जागरण)

    सुरेश मेहरा, भिवानी। हम तो छोटे बच्चे थे घर के बाहर खेल रहे थे। अचानक से मां आई और घर में ले गई बाकी बच्चों को भी अपने-अपने घर भेज दिया। बताया गया लड़ाई हो गई है।

    हमारी समझ से बाहर था यह सब। जब यह घटना घटी तब हमारी उम्र कोई 12-13 साल रही होगी। अगले दो दिन बाद बात बढ़ती गई। गौरों की सेना आ गई।

    पाकिस्तान में कोटला मंगला हमारा गांव था। ज्यादा बड़ा गांव नहीं था। हम दोस्तों के साथ खेलते रहते थे। हमारे पड़ोसी भी अच्छे थे उनके नाम तो मैं नहीं जानता। जब लड़ाई हुई तो गांव का हर कोई जैसे अपने घरों में दुबक गया था। कोई बाहर नहीं आ रहा था।

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    हमें भी बाहर नहीं जाने दिया जा रहा था। पिता ने बताया था हमें यहां से जाना होगा। बात बढ़ती जा रही है। अमन शांति होगी तो वापस आ जाएंगे। अब तो वक्त बदल गया। यहां भिवानी आने के बाद सब अच्छा है। बेटे पौते खुशहाल हैं।

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    मुहल्ले की महिला के वचन ने बचाई हम सबकी जान

    कृष्णा कॉलोनी निवासी 90 वर्षीय शानुराम धमीजा खाना खाते हुए अपने अतीत में खो जाते हैं। साथ में बैठे उनके पौत्र कहते हैं दादाजी खाना खा लेते हैं। फिर वे खाना खाने लगते हैं।

    खाना खाने के बाद उनसे बातचीत का प्रयास करते हैं। वह उम्र के इस पड़ाव पर पूरी तरह स्वस्थ तो नहीं हैं पर फिर भी अपने दिमाग पर जोर देते हुए अतीत को याद करते हैं।

    तुतलाई आवाज में उस समय के हालात बताने लगते हैं। मेरे पिताजी श्यामाराम हमारे कोटला मंगला गांव में ही हलवाई का काम करते थे। वहां पर हमारा अच्छा काम था। दो दिन बाद हमारे गांव में हमलावर पहुंच गए। उनकी अगवाई समरूद्दीन नाम का व्यक्ति कर रहा था।

    हमारे ही पड़ोस की एक महिला जो मुस्लिम थी उसने उसे रोका और बोली बेटा तुमसे पहले वचन चाहिए। जब उसने वचन पूछा तो बोली इस मुहल्ले में तुम किसी को नहीं मारोगे। मां का वचन हम नहीं तोड़ सकते यह कहते हुए वह हमलावरों के साथ वहां से चले गए।

    उस दिन शायद शुक्रवार था। रक्षा बंधन का त्योहार भी उस सप्ताह में आने वाला था। रक्षाबंधन की खुशियां मनाने की तैयारी घरों में चल रही थी। उसी रात हमारे मुहल्ले में सेना आ गई और सुबह-सुबह होते-होते हमें घरों से निकाला।

    सुबह चार बजे के आस पास हम परिवार और आस पास के लोग पैदल ही घर से निकल लिए। हम घर से दो-दो जोड़ी कपड़े और कुछ खाने का सामान लेकर निकले थे।

    रेलगाड़ी में भी हमले के डर से बार-बार अटक जाती थी सांसें

    मेरे पिता ने घर के आभूषण एक मटके में भर कर जमीन में दबा दिए लेकिन मेरे चाचा ने निकाल लिए और बोले क्या पता क्या हालात बनें साथ ही ले चलते हैं।

    सेना के पहरे में पिताजी श्यामराम, मां काकेवाली, चाचा छबीलदास, रमनदास, गिरधारी लाल समेत घर और आस पास के दूसरे लोग जामपुर रेलवे स्टेशन पहुंच गए।

    स्टेशन पर गौरों की फौज थी। जामपुर स्टेशन पर हमलावर पहुंच गए थे। गोरों की सेना ने उनको खदेड़ दिया। गौरों की फौज की गोली से एक मुस्लिम हमलावर भी मारा गया। ऐसा मेरे पिताजी को मां को बताते हुए मैंने सुना।

    हर कोई डरा हुआ था कि कहीं हमें हमलावर मार न दें। बार-बार हमले के डर से सांस अटक रही थी। करीब छह बजे रेलगाड़ी आई। लोगों की भीड़ गाड़ी में सवार होने के लिए जैसे टूट पड़ी। मेरे पिता ने मुझे कंधों पर बैठा लिया था। जब हमारी गाड़ी लाहौर पहुंची तो पता चला कि यहां भी हमलावर गाड़ी पर हमला करने की तैयारी में हैं।

    हम सब डरे हुए थे। हमारी गाड़ी में सवार गौरे सैनिक ने बताया था बहुत सेना है यहां हमलावर नहीं आ सकते। उस सेना के जवान ने बताया था यहां रात को हमलावर आए थे जिनमें से दो को मार गिराया गया। इसके बाद से यहां कोई नहीं आया है।

    यहां से गाड़ी चलने के बाद रास्ते में एक दो जगह चलती गाड़ी पर पत्थर तो फेंके गए पर ये नहीं पता वह जगह कौनसी थी। जब गाड़ी अमृतसर रुकी तो हमारी सांस में सांस आई। यहां से रेलगाड़ी अलवर के लिए रवाना हो गई।

    रेलगाड़ी अलवर पहुंची तो ली हर किसी ने राहत की सांस 

    भारत में रेलगाड़ी के आने के बाद भारत के लोगों ने हमारी खूब सेवा की। भूंगड़े, रोटी, चावल आदि खाने पीने की चीजें दी गई। ऐसा लगा हम हमारे सुरक्षित घर में पहुंंच गए हैं। जैसे ही हमारी रेलगाड़ी अलवर पहुंची तो सबने राहत की सांस ली थी।

    हम पांच से सात दिन अलवर में रहे। वह जगह कौन सी थी यह तो पता नहीं पर पांच सात दिन बाद हमें कहा गया जामपुर वालो आपको भिवानी भेजा जाएगा तैयार रहो।

    भिवानी पहुंचने के बाद यहां हमें नूनसर जोहड़ पर रखा गया। जिस मकान में हम रह रहे थे वह बताया गया था कि यह मुसलमानों का है। इस घर के लोग यहां से पाकिस्तान चले गए थे।

    यहां आने के बाद कुछ शांति मिली और पिताजी ने पल्लेदारी का काम शुरू किया और किसी तरह घर चलने लगा। मेरी उम्र अब 90 साल हो गई है। खुशी इस बात की है यहां भिवानी में दोनों बेटों का परिवार खुशहाल है।

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