1942 में जसौर खेड़ी पहुंचे थे भगत ¨सह के पिता, ग्रामीणों ने 500 बैलों का जुलूस निकाल आजादी के लिए भरा था जोश
बात 1942 की है। जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। गांवों में बिजली कहीं-कहीं थी। संचार के नाम पर सिर्फ पत्र हुआ करते थे। यातायात के साधन बैलगाड़ी ही बनते थे। देश को आजादी दिलाने की भावना बलवती हो रही थी। इसी दौर में शुरू हुआ अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन। लोगों में जोश भरने को तब के समय की शख्सियतें गांव तक पहुंचने लगी थी। देश के लिए कुर्बान हुए भगत ¨सह के पिता सरदार किशन ¨सह संधु बहादुरगढ़ के गांव जसौरखेड़ी के लिए चल पड़े थे। इसकी खबर पहले से गांव में थी। फिर क्या था, युवाओं तो क्या, बच्चों और बूढ़ों के सीने में भी जोश उमड़ने लगा था। सरदार किशन ¨सह की अगुवानी के लिए गांव से सैकड़ों लोग कई किलोमीटर दूर दिल्
जागरण संवाददाता, बहादुरगढ़ : बात 1942 की है। जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। गांवों में बिजली कहीं-कहीं थी। संचार के नाम पर सिर्फ पत्र हुआ करते थे। यातायात के साधन बैलगाड़ी ही बनते थे। देश को आजादी दिलाने की भावना बलवती हो रही थी। इसी दौर में शुरू हुआ अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन। लोगों में जोश भरने को तब के समय की शख्सियतें गांव तक पहुंचने लगी थी। देश के लिए कुर्बान हुए भगत ¨सह के पिता सरदार किशन ¨सह संधु बहादुरगढ़ के गांव जसौरखेड़ी के लिए चल पड़े थे। इसकी खबर पहले से गांव में थी। फिर क्या था, युवाओं तो क्या, बच्चों और बुढ़ों के सीने में भी जोश उमड़ने लगा था। सरदार किशन ¨सह की अगुवानी के लिए गांव से सैकड़ों लोग कई किलोमीटर दूर दिल्ली-रोहतक रोड पर खरखौदा मोड़ के पास पहुंच गए थे। गांववासी अकेले नहीं आए थे। अपने बैलों को साथ लाए थे। उस वक्त यह अपनी तरह का पहला नजारा रहा होगा, जब 500 बैलों का जुलूस सरदार किशन ¨सह की अगुवानी करता हुआ गांव के प्राचीन मंदिर तक पहुंचा था। बैलों के गले में बजते घुंघरूओं ने आजादी पाने का तब ऐसा जोश भरा की जसौरखेड़ी गांव से स्वतंत्रता के आंदोलन में कूदने वालों की कमी नही रही।
बहादुरगढ़ से खरखौदा होते हुए सोनीपत मार्ग पर आसौदा गांव को पार करते ही आता है जसौरखेड़ी गांव। वैसे तो यहां दो पंचायतें हैं। एक जसौरखेड़ी के नाम से और दूसरी खेड़ी जसौर के नाम से। रिकार्ड में तो इन्हें दो गांवों के तौर पर गिना जाता है, लेकिन दोनों गांवों के बीच कहीं कोई सीमा नहीं। बताते हैं कि विक्रमी सम्वत 1360 में जसौरख गांव को जसराज नाम के बा¨शदे ने बसाया था। तब यहां केवल जसौर ही बसा था। बाद में उनकी पुत्री की संतान ने आकर खेड़ी गांव बसाया। तब से ही इन्हें जसौरखेड़ी और खेड़ीजसौर के नाम से पहचाना गया। पंचायती व्यवस्था की शुरूआत से ही यहां पर दो पंचायतें रही हैं, मगर तालाब-कुएं सब भाईचारे के तौर पर इकट्ठे ही रहे हैं। ---विश्व के मानचित्र पर उभरा है जसौरखेड़ी इस गांव को अब पूरी दुनिया जानेगी। इसी गांव की 200 एकड़ से ज्यादा भूमि पर वैश्विक परमाणु ऊर्जा साझेदारी केंद्र जो बन रहा है। इसके बनने के बाद यहां पर कई देशों के परमाणु वैज्ञानिक शोध करने के लिए आएंगे। इस केंद्र में अलग-अलग पांच संस्थानों का निर्माण होना है। इसका निर्माण 2020 तक पूरा होगा। विश्व स्तर का यह केंद्र यहां की तरक्की का अगुवा भी बनेगा। ----आजादी आंदोलन में कूद पड़े थे जसौरखेड़ी वासी आजादी के आंदोलन के समय का वाक्या यहां सभी को पता है। वर्ष 1942 में शुरू हुए अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में जब शहीद भगत ¨सह के पिता सरदार किशन ¨सह जब यहां पर लोगों में जोश भरने आए तो उसका परिणाम भी क्रांतिकारी रहा। गांव के निवासी ओमप्रकाश बताते हैं कि गांव से फतेह ¨सह, साहब राम, चंदगीराम, रिसाल ¨सह, सूरत ¨सह, देवी ¨सह व लस्से स्वतंत्रता सेनानी रहे। और भी लोगों ने किसी न किसी रूप में देश की आजादी की लड़ाई लड़ी। ----पहलवान और समाजसेवी भी हैं प्रसिद्ध हरियाणा में पहलवानों की कमी नही रही है। ऐसे ही एक पहलवान जसौरखेड़ी से हुए नंदलाल। उनकी ताकत के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं। यहां के समाजसेवी नंबरदार नेकीराम, दानवीर लाला धज्जाराम, ओमप्रकाश भी गांव में चर्चित रहे हैं। ---गांवों में बने मंदिर हैं गहरी आस्था का केंद्र खेड़ी जसौर में बना हर¨सही देवी मंदिर और जसौरखेड़ी में बना मांडव ऋषि आश्रम यहां की प्राचीन धार्मिक धरोहर हैं। ये मंदिर गांव ही नहीं आसपास के एरिया के लिए भी गहरी आस्था का केंद्र हैं। नवरात्रों में यहां भीड़ उमड़ती है तो आस्था और प्रगाढ़ रूप लेती है।
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