Kathal Movie Review: ठीक से पक नहीं पाया 'कटहल', बेस्वाद रहा व्यंग्य के साथ संदेश का तड़का
Kathal Movie Review कटहल में सान्या मल्होत्रा एक ऐसी पुलिस अफसर के रोल में हैं जो विधायक का खोया हुआ कटहल ढूंढ रही है। फिल्म की कहानी व्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने पर व्यंग्य कसती है। नेटफ्लिक्स पर फिल्म रिलीज हो गयी है।
प्रियंका सिंह, मुंबई। Kathal Movie Review: छोटे शहरों और जरूरी मुद्दों पर बात करती कहानियों को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म अहम भूमिका निभा रहा है। नेटफ्लिक्स पर आयी व्यंग्यात्मक कामेडी ड्रामा कटहल- अ जैकफ्रूट मिस्ट्री (Kathal- A Jackfruit Mystery) उन्हीं फिल्मों में से एक है, जो हंसाते हुए कुछ जरूरी मुद्दों पर सतही तौर पर बात करते हुए आगे बढ़ जाती है।
कटहल फिल्म की कहानी क्या है?
विधायक मुन्नालाल पटेरिया (विजय राज) के बगीचे में लगे कटहल के पेड़ से दो 15-15 किलो के कटहल चोरी हो जाते हैं। वह कटहल देसी नहीं, बल्कि मलेशिया के अंकल हॉन्ग नस्ल का था। विधायक के लिए कटहल इसलिए मायने रखता है, क्योंकि उसका अचार बनाकर उन्हें मुख्यमंत्री के घर भिजवाना है, ताकि वह उन्हें खुश करके मंत्री पद ले सके।
कटहल की खोज करने का जिम्मा सब इंस्पेक्टर महिमा बसोर (सान्या मल्होत्रा) को सौंपा जाता है। कॉन्स्टेबल से प्रमोट होकर सब इंस्पेक्टर बनी महिमा छोटी जाति की है। उसे कांस्टेबल सौरभ द्विवेदी (अनंतविजय जोशी) से प्यार है, लेकिन सौरभ के घरवालों को महिला की सौरभ से ऊंची पोस्ट और छोटी जाति दोनों से दिक्कत है।
छानबीन के दौरान महिमा को पता चलता है कि विधायक के घर में काम करने वाले माली की बेटी गायब है। पुलिस स्टेशन में बंद फाइलों में कई ऐसी लड़कियां हैं, जो गुमशुदा हैं। महिमा पर कटहल को खोजने का दबाव है। वह अब क्या करेगी? क्या वह माली की बेटी को खोजेगी या फिर कटहल को? कहानी इसी दिशा में आगे बढ़ती है।
कैसे हैं कटहल के पटकथा और संवाद?
पिछले दिनों आई दहाड़ वेब सीरीज के कई प्रसंग भी कुछ-कुछ इसी कहानी से मिलते-जुलते हैं। हालांकि, वह गंभीर कहानी थी। इस फिल्म में यशोवर्धन मिश्रा और अशोक मिश्रा ने जरूरी मुद्दों के बीच कामेडी का तड़का लगाया है, हालांकि व्यंग्यात्मक नजरिया अपनाने में कहानी कमजोर पड़ जाती है।
उच्च जाति वालों के घर में छोटी जाति वालों के जाने पर गंगाजल छिड़कना या फिर कॉन्स्टेबल को उसकी गलती पर डांटने पर, उच्च जाति के कांस्टेबल का यह फुसफुसाना कि कौवे हंसों को तमीज सीखा रहे हैं, यह समाज में अब भी छोटी जाति वालों के प्रति भेदभाव की झलक दिखाती है।
हालांकि, समाज के इस रवैये के प्रति लेखकों ने कोई ठोस जवाब वाले सीन नहीं डाले हैं। इस तरह की कहानियों पर विवादों के चलते लेखकों ने सुरक्षित रास्ता अपनाते हुए किसी वास्तविक जगह की बजाय मोबा नामक एक काल्पनिक शहर दिखाया है। बोलचाल का अंदाज मध्य प्रदेश की ओर इशारा करता है। छोटे शहर का रहन-सहन और अंदाज फिल्म में सिनेमैटोग्राफर हर्षवीर ओबेरॉय ने बखूबी दिखाया है।
कैसा है कलाकारों का अभिनय?
सान्या मल्होत्रा इस तरह के जानर की मास्टर बनती जा रही हैं। उनकी पिछली फिल्म पगलैट भी एक ऐसी लड़की की कहानी थी, जो रूढ़ीवादी समाज की सोच से लड़ती है। पुलिस डिपार्टमेंट में महिला अफसर पर बुरी नजर, छोटी जाति का ताना सुनते हुए भी अपने काम को ईमानदारी से करने वाली पुलिस अफसर के रोल में सान्या जंचती हैं।
कॉन्स्टेबल की भूमिका में अनंतविजय उस युवा को प्रस्तुत करते हैं, जिसे जात-पात से कोई फर्क नहीं पड़ता। विधायक के रोल में विजय हंसाते हैं। घर के भीतर खुद का पुतला बनवाकर रखना, उसकी दबंग छवि को दर्शाता है। स्थानीय पत्रकार अनुज की भूमिका में राजपाल यादव ने स्क्रिप्ट के दायर में रहकर काम किया है।
हालांकि, पत्रकारों की छवि को लेकर फिल्मकारों को एक बार फिर रिसर्च करने की जरूरत है। अशोक मिश्रा का लिखा गीत निकर चलो रे... और राधे राधे, कहानी के साथ सुसंगत है।
कलाकार- सान्या मल्होत्रा, अनंतविजय जोशी, विजय राज, राजपाल यादव आदि।
निर्देशक- यशोवर्धन मिश्रा
अवधि- एक घंटा 56 मिनट
प्लेटफॉर्म- नेटफ्लिक्स
रेटिंग- ढाई