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    Haq Review: 'मुहब्बत से बढ़कर आत्मसम्मान...' दर्दभरे संवाद दिमाग में छोड़ेंगे कई सवाल, रुला देगी 'हक' की लड़ाई

    By Priyanka SinghEdited By: Surabhi Shukla
    Updated: Wed, 05 Nov 2025 12:36 PM (IST)

    Haq Review: सिनेमाघरों में रिलीज हुई यामी गौतम (Yami Gautam) और इमरान हाशमी (Emraan Hashmi) की फिल्म 'हक़' बेहद प्रभाव छोड़ती है। यह उस तरह की फिल्म नहीं है जो आपका ध्यान आकर्षित करे, अपनी आवाज़ बुलंद करे या अपने संदेश को सनसनीखेज बनाए, फिर भी, यह आपको उस तरह झकझोर देती है जैसा बहुत कम फिल्में कर पाती हैं। सुपर्ण वर्मा द्वारा निर्देशित, 'हक़' ऐतिहासिक शाहबानो मामले से प्रेरित है।

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    फिल्म हक में यामी गौतम और इमरान हाशमी (फोटो-जागरण ऑनलाइन)

    फिल्म – हक

    मुख्य कलाकार – यामी गौतम, इमरान हाशमी, शीबा चड्ढा, असीम हट्टंगडी, वर्तिका सिंह

    निर्देशक – सुपर्ण एस वर्मा

    अवधि – 136 मिनट

    रेटिंग – साढ़े तीन

    प्रियंका सिंह, मुंबई। कभी-कभी मुहब्बत काफी नहीं होती है, हमें अपनी इज्जत भी चाहिए... फिल्म हक में यामी गौतम का पात्र शाजिया बानो जब यह संवाद अपने पति की दूसरी बीवी के सामने कहती हैं, तो साफ संदेश देती है कि वह अपना हक चाहती है, वह भी पूरे सम्मान के साथ।

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    यह फिल्म साल 1985 में सर्वोच्च न्यायालय के उस ऐतिहासिक फैसले से प्रेरित है, जिसमें उन्होंने शाह बानो के हक में फैसला सुनाया था कि तलाक के बाद उसके पति अहमद खान को उसे गुजारा भत्ता देना होगा। इस फैसले को जहां मुस्लिम पर्सनल ला में न्यायपालिका का हस्तक्षेप माना गया था, वहीं मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के संघर्ष की लड़ाई की ओर लोगों का ध्यान भी आकर्षित हुआ।

    क्या है फिल्म की कहानी?

    कहानी साल 1985 में शाजिया बानो (यामी गौतम) के टेप रिकार्डर के साथ हो रहे इंटरव्यू से होती है। वह अपने वकील पति अब्बास खान (इमरान हाशमी) के खिलाफ गुजारा भत्ता पाने का केस जीत चुकी है। वहां से कहानी 17 साल पीछे जाती है। शाजिया और अब्बास की अरेंज मैरिज होती है। शाजिया एक अच्छी बेगम की तरह अब्बास का घर संभालती है। अब्बास भी उसे प्यार देता है। शादी के नौ साल बाद एक दिन अब्बास पाकिस्तान चला जाता है। वापस लौटता है, तो साथ में दूसरी बीवी सायरा (वर्तिका सिंह) होती है। शाजिया, बेगम से पहली बेगम बन जाती है। हालात ऐसे बनते हैं कि अब्बास उसे तलाक दे देता है। कुछ महीने बाद वह पैसे भेजना भी बंद कर देता है। फिर शाजिया अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाती है।

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    फिल्म की शुरुआत में ही साफ कर दिया गया कि फिल्म सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले और जिग्ना वोरा की लिखी किताब बानो : भारत की बेटी से प्रेरित है। ऐसा करके फिल्म के निर्देशक और लेखक कहानी को फिल्मी दायरों में मनोरंजक तरीके से दिखाते हुए राजनीतिक पचड़ों और सांप्रदायिक बहस से दूर रख पाए हैं।

    संवाद काफी आकर्षित करते हैं

    रेशू नाथ की लिखी कहानी और संवाद बेहद प्रभावशाली हैं। इसमें उन्हें सुपर्ण एस वर्मा जैसे अनुभवी निर्देशक का साथ भी मिला है, जो कोर्ट रूम ड्रामा बनाने में माहिर हैं। खास बात यह है कि मुस्लिम पर्सनल ला बनाम सेक्यूलर ला की इस लड़ाई में उन्होंने बिना ड्रामा किए केवल खामियों पर प्रकाश डाला है। दूसरी कोर्ट रूम ड्रामा फिल्मों की तरह इसमें चीखना-चिल्लाना भी नहीं है।

    कुरान पढ़ने पर डाला गया जोर

    संवादों के जरिए उन पर भी कटाक्ष है, जो बिना अपने धार्मिक ग्रंथ पढ़े, सही और गलत का फैसला करते हैं। कुरान रखने, पढ़ने और समझने में बहुत फर्क होता है..., ना हम कौम के गद्दार हैं, न ही अपने किए पर शर्मसार हैं, हम सही हैं..., हमारी लड़ाई सुकून की नींद से सौदा कर चुकी थी..., जब कोई आपकी आवाज न सुने तो दर्द होता है... जैसे संवाद तालियां बटोरते हैं। कुरान के पहले शब्द इकरा यानी पढ़ो की बात करते हुए फिल्म मुस्लिम लड़कियों को कुरान पढ़ने की अहमियत पर भी गहराई से बात करती है।

    फिल्म के कुछ दृश्यों को जल्दबाजी में निपटाया दिया गया है। दंगे का एक दृश्य है, लेकिन वह क्यों किसकी वजह से हुआ, उसका कारण साफ नहीं है। फिल्म के अंत में यामी का पात्र कहता है कि हमारी लड़ाई हमसे बड़ी है, जहां उसे चिंता है कि अगर फैसला उसके पक्ष में नहीं आया, तो उसके बेटे कहीं शादी के बाद दूसरे की बेटियों के साथ ऐसा ना करे या उसकी बेटी का वजूद उसके लिए सवाल न बन जाए, इस सोच को एक संवाद में समेटने की बजाय सीन के जरिए और सशक्त बनाया जा सकता था।

    विशाल मिश्रा का गाया गाना ओ रब्बा दिल तोड़ गया तू... याद रह जाता है। प्रथम मेहता अपने कैमरे से पिछली सदी से आठवें दशक में ले जाते हैं।

    मजबूत मां के रोल में नजर आईं यामी

    अभिनय की बात करें, तो यामी अपने अभिनय से आपको शाजिया के सफर पर पहले ही सीन से ले जाती हैं। शौहर के लिए समर्पित बेगम से लेकर तलाकशुदा होने के बाद अपने बच्चों की परवरिश के लिए चिंतित, पर मजबूत मां के रोल में वह साबित करती हैं कि उनमें हर तरह के रोल करने की काबिलियत हैं। तीन बार अपने शौहर से तलाक शब्द सुनने के बाद जब वह अपने हाथ को दीवार से रगड़े हुए चलती हैं, तो वहां किसी संवाद के बिना वह एक तलाकशुदा असहाय महिला का दर्द महसूस कराती हैं।

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    शाजिया की असली ताकत उसके पिता

    क्लाइमेक्स में उनका और इमरान हाशमी का मोनोलाग फिल्म का सबसे दिलचस्प सीन है। इमरान का अभिनय शानदार है। उनका पात्र सही और गलत के बीच एक महीन रेखा पर चलता है। ऐसे में इमरान ने इस रोल को बड़े ही संतुलित तरीके से निभाया है। अदालत में उनकी जिरह एक बार के लिए दर्शकों को मानने पर मजबूर कर देगी कि वह जो कह रहे हैं, कहीं सही तो नहीं। बानो की वकील बेला जैन की भूमिका में शीबा चड्ढा तेज-तर्रार और दमदार लगी हैं। वहीं शाजिया की असली ताकत उसके पिता के रोल में असीम हट्टंगड़ी अपनी छाप छोड़ते हैं। उनका कहा संवाद लड़की नहीं, मेरी बच्ची का नाम बानो है याद रह जाता है। सायरा की छोटी सी भूमिका में वर्तिका सिंह प्रभावशाली लगी हैं।

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