Emergency Review: इमरजेंसी नहीं इंदु होना चाहिए था शीर्षक, कैसी है Kangana Ranaut की फिल्म? यहां पढ़ें रिव्यू
बॉलीवुड क्वीन कंगना रनौत की फिल्म इमरजेंसी का इंतजार एक लंबे समय से हो रहा था लेकिन किसी न किसी वजह से यह फिल्म सिनेमाघरों में आने से पहले ही विवादों में फंस रही थी। 17 जनवरी को भारत की पहली महिला प्राइम मिनिस्टर इंदिरा गांधी पर बनी फिल्म इमरजेंसी अब सिनेमाघरों में आ गई है। क्या कंगना ने किया कहानी के साथ पूरा न्याय यहां पढ़ें रिव्यू
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। तमाम विवादों और सेंसर बोर्ड की कैंची चलने के बाद कंगना रनौत अभिनीत और निर्देशित फिल्म इमरजेंसी सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। शीर्षक से लग रहा था कि फिल्म के केंद्र में देश का काला अध्याय इमरजेंसी होगी लेकिन उसे प्रसंग के तौर पर शामिल किया गया है।
मूल रूप से यह फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से जुड़े घटनाक्रमों को क्रमबद्ध तरीके से दिखाती है। इसे उनकी बायोपिक कहना उचित होगा। फिल्म का शीर्षक वास्तव में इमरजेंसी न होकर इंदु, इंदिरा या प्रियदर्शिनी होना चाहिए था। बहरहाल यह फिल्म कूमी कूपर द्वारा लिखी किताब 'द इमरजेंसी' और जयंत वसंत सिन्हा की किताब 'प्रियदर्शिनी: द डॉटर ऑफ इंडिया' पर आधारित है।
फिल्म की कहानी में बचपन से लेकर बड़े होने तक का सफर दर्शाया
फिल्म इंदिरा के गूंगी गुड़िया कहलाने से लेकर तानाशाह बनने के सफर को दिखाती है। फिल्म का आरंभ उनके बचपन से होता है जिसमें इंदिरा को एक गुलाब का कांटा चुभता है, जो यह दर्शाता है कि वह अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के प्रभाव से कभी नहीं बच पाएगी, जो हमेशा अपने कोट पर लाल फूल पहनते थे। बाद में वह उनके जैसी बिल्कुल नहीं बनती।
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कहानी बचपन से आरंभ होकर, उनकी युवावस्था, 1962 के युद्ध के परिणाम, नेहरू के बीमार पड़ने, फिरोज गांधी साथ शादी में नाखुश होना, सत्ता पर काबिज होना, 1971 युद्ध से पहले फ्रांस, अमेरिका के राष्ट्रपति से मिलने जाना, बांग्लादेश का निर्माण, बांग्लादेश में उनकी जय जयकार। देश का पहला परमाणु परीक्षण को तेजी से समेटती है।
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12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा चुनाव में सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल का दोषी ठहराते हुए अयोग्य घोषित करना और निर्वाचन को रद करने के फैसले ने इंदिरा को हिलाकर रख दिया था। अदालती फैसले के बाद इंदिरा को पद से हटाने को लेकर जेपी नारायण का आंदोलन। इन घटनाक्रमों से गुजरते हुए मध्यातंर पर इमरजेंसी लगने का ऐलान होता है। इंदिरा विरोधी राजनेताओं और लोगों को जेल में ठूंसा जाता है।
उस समय इंदिरा के बड़े बेटे संजय गांधी का उनका संबल बनकर खड़े होना। जबरन नसबंदी, दिल्ली को खूबसूरत बनाने के लिए गरीबों के घरों को तोड़ना, किशोर कुमार के गानों पर रोक जैसे फैसलों से जनता में नाराजगी फैलना, संजय की कारगुजारियों और इमरजेंसी हटाने को लेकर इंदिरा पर दबाव, इमरजेंसी का हटना और लोकसभा चुनाव में इंदिरा को करारी हार मिलना। विपक्ष द्वारा उन्हें जेल भेजना फिर सत्ता में वापस आना।
भारतीय सेना द्वारा अमृतसर स्थित हरिमंदिर साहिब परिसर को खालिस्तान समर्थक जनरैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों से मुक्त कराने के लिए चलाया गया अभियान ऑपरेशन ब्लू स्टार के पांच महीने बाद अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की अपने ही सुरक्षा दस्ते द्वारा हत्या के साथ फिल्म खत्म होती है।
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इमरजेंसी लगाने के घटनाक्रम झकझोर देंगे
फिल्म की लेखक और निर्देशक कंगना रनौत ने इन सारे घटनाक्रमों को क्रमबद्ध तरीके से अपनी कहानी में समेटा है। कहानी तेजी से आगे बढ़ती है। किसी भी घटनाक्रम की गहराई में नहीं जाती है। उसके लिए इतिहास से परिचित होना जरूरी है। देश में इमरजेंसी लगाने का ऐलान होने के बाद के घटनाक्रम झकझोरते हैं। चूंकि फिल्म असल राजनेता की जिंदगानी पर आधारित है ऐसे में 1971 युद्ध के दौरान राजनेताओं का संसद और सैन्य प्रमुख मानेक शॉ का गाने का प्रसंग उसके साथ सुसंगत नहीं लगता।
हालांकि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है सुनना अच्छा लगता है। फिल्म को विश्वसनीय बनाने के लिए परमाणु परीक्षण, स्वर्ण मंदिर में ब्लू स्टार ऑपरेशन की वास्तविक क्लिप का भी इस्तेमाल किया गया है। इमरजेंसी लगाने के बाद फिल्म उस दौर के घटनाक्रमों और निरंकुश निर्णयों को दिखाती हैं जो सत्ता के दुरुपयोग को दिखाती है। फिल्म परमाणु परीक्षण को उपलब्धि के तौर नहीं बल्कि राजनेताओं का ध्यान भटकाने के तौर पर बताती है। यह खटकता है।
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क्या इंदिरा गांधी की भूमिका के साथ न्याय कर पाईं कंगना?
फिल्म में इंदिरा गांधी की भूमिका निभाने के साथ कंगना रनौत ने इसकी कहानी लिखी है और निर्देशन किया है। इससे पहले वह फिल्म मणिकर्णिका : द क्वीन ऑफ झांसी का निर्देशन कर चुकी हैं। डेविड मालिनोव्स्की द्वारा किए गए प्रोस्थेटिक्स ने कंगना को इंदिरा सरीखा दिखाया है। कंगना ने मुखर होकर इंदिरा गांधी के जटिल चरित्र को निभाया है। उन्होंने महत्वाकांक्षा और अपने निर्णयों की भारी कीमत के बीच फंसी महिला का चित्रण सटीक तरीके से किया है।
उन्होंने अपनी आवाज पर भी काफी काम किया है। अच्छी बात यह है कि उन्होंने अटल बिहारी, राज नारायण के पात्रों के साथ उनकी शक्ल मिलाने को लेकर उन्हें कैरीकेचर नहीं बनने दिया। संजय गांधी बने विशाक नायर का काम उल्लेखनीय है। उन्होंने संजय की आक्रामकता और जिद को बहुत सहजता से आत्मसात किया है। जयप्रकाश नारायण की भूमिका में अनुपम खेर जंचते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका में श्रेयस तलपड़े भी अपनी भूमिका साथ न्याय करते हैं।
जगजीवन राम की भूमिका में सतीश कौशिक हैं। वह भले ही अब हमारे बीच नहीं है लेकिन दिए गए दृश्यों में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं। प्रोडक्शन टीम ने पिछली सदीं के सातवें दशक को वेशभूषा से लेकर परिवेश के मामले में विश्वसनीय बनाया गया है। कंगना रनौत की इमरजेंसी राजनीतिक नेतृत्व की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं पर विचार करने के लिए मजबूर करती है। इमरजेंसीको राजनीतिक दस्तावेज कहना उचित होगा। इस फिल्म के साथ यह भी विचारणीय है कि विदेशी फिल्ममेकर रिचर्ड एटनबरो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर फिल्म गांधी बनाकर ऑस्कर में छा जाते हैं वहीं अटल बिहारी वाजपेयी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जैसे राजनेताओं पर बनी बायोपिक उस स्तर को छू नहीं पाती हैं।
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