Badass Ravikumar Review: बहुत ही बैड है इंस्पेक्टर रवि की कहानी, थिएटर में बस एक चीज कर पाएंगे बर्दाश्त
बार-बार एक्टिंग में किस्मत आजमाना और फेल होने के बाद भी उठ खड़ा होकर खुद पर मेहनत करते रहना कोई सिंगर हिमेश रेशमिया से सीखे। आपका सुरूर और कर्ज जैसी फिल्मों के बाद हाल ही में उनकी फिल्म बैडएस रविकुमार सिनेमाघरों में रिलीज हुई। ट्रेलर में हिमेश के डायलॉग्स सुनकर ऑडियंस ने सीटियां बजाई थी लेकिन क्या थिएटर में भी ये फिल्म तालियों की हकदार है? यहां पर पढ़ें रिव्यू

प्रियंका सिंह, मुंबई। बुरी फिल्में क्या होती हैं, उसका ताजा उदाहरण संगीतकार, गायक और अभिनेता हिमेश रेशमिया ने पेश किया है। साल 2014 में रिलीज हुई उनकी अभिनीत फिल्म 'द एक्सपोज' के बाद वह इसका यूनिवर्स ही लेकर आ गए। उस फिल्म के पात्र रवि कुमार पर उन्होंने पूरी फिल्म बना दी।
मनमौजी पुलिस ऑफिसर की कहानी है बैडएस रविकुमार
कहानी है मनमौजी पुलिस ऑफिसर रवि कुमार (हिमेश रेशहमिया) की जिसे बार-बार सस्पेंड किया जाता है, क्योंकि वह लंबे बाल रखता है, सीनियर्स के ऑर्डर नहीं मानता है, खुद कानून अपने हाथों में ले लेता है। उसे एक रील ढूंढने का जिम्मा सौंपा जाता है, जिसमें देश की खुफिया जानकारियां हैं। पाकिस्तानी से ताल्लुक रखने वाला बशीर (मनीष वाधवा) उस रील से जानकारियां लेकर भारत को तबाह करना चाहता है। वह कार्लोस (प्रभु देवा) को पैसे देकर रील लाने का काम सौंपता है। आगे जो होता है, उसे यहां समझना बेहद कठिन है, क्योंकि इस कहानी का कोई सिर-पैर नहीं है।
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सिनेमा के स्वर्णिम दौर का जश्न मनाने निकले थे हिमेश रेशमिया
फिल्म की शुरुआत में हिमेश अपनी आवाज में यह बात साफ करते हैं कि पिछली सदी के आठवें दशक के सिनेमा के स्वर्णिम दौर का जश्न वह इस फिल्म से मनाएंगे, जहां तर्क वैकल्पिक होगा। हालांकि, फिल्म देखने के बाद यह जश्न से ज्यादा उस दौर की फिल्मों की अपमान लगता है। क्या हिमेश यह कहना चाहते हैं कि उस दौर में बनी मिस्टर इंडिया, मासूम, कर्ज, सदमा, अर्ध सत्य, कयामत से कयामत तक, परिंदा, मैंने प्यार किया समेत कई कमाल की फिल्मों में कोई तर्क नहीं था।
कम संसाधनों और तकनीक के बावजूद दिग्गज लेखकों की कलम से निकली कहानी को उस दौर के निर्देशकों ने पर्दे पर खूबसूरती से साकार किया है। जबकि उस दौर की स्टाइल वाली फिल्म कहकर हिमेश न उस दौर का स्टाइल दिखा पाते हैं, न ही मनोरंजन दे पाते हैं। लेखक बंटी राठौड़ के लिखे डायलॉग्स वाट्सएप पर फॉरवर्ड होने वाले मैसेजेस की तरह लगते हैं। कहानी हिमेश की ही है। स्क्रीनप्ले उन्होंने कुशल बख्शी के साथ मिलकर लिखा है।
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साल 1971 में हुई भारत-पाकिस्तान के युद्ध का जिक्र बेईमानी है। कार्लोस बार-बार ताजमहल की कसम क्यों खाता है? पता नहीं। क्लाइमेक्स देखकर लगता है कि बस अब यह फिल्म खत्म हो जाए। तीसरे बादशाह हम है संवाद की तर्ज पर रवि कुमार का ताश खेलना, क्लाइमेक्स में हीरो की मां, दादी और प्रेमिका को दुश्मनों का अगवा कर लेना हास्यास्पद लगता है, जबकि यह तो कॉमेडी फिल्म भी नहीं है।
हिमेश रेशमिया को इस बात को समझने की जरूरत
एक कहावत है कि जिसका काम उसी को साजे और करे तो डंडा बाजे, इस पर हिमेश को गौर करने की जरुरत है। वह कमाल के संगीतकार हैं, जिसे वह इस फिल्म के हर गाने में साबित करते हैं। इंटरवल के बाद उन्होंने एक ही गाने में इतनी वेराइटी दी है, जिसे देखकर यही ख्याल आता है कि हिमेश अभिनय में समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं। प्रभु देवा, कीर्ति कुल्हारी, संजय मिश्रा, जानी लीवर, सौरभ सचदेवा जैसे मंझे हुए कलाकारों को इस बिना तर्क वाली फिल्म को करने की क्या जरुरत थी, इसका तर्क वही बेहतर समझा पाएंगे। अंत में एक्सपोज यूनिवर्स की नई फिल्म का संकेत भी है, जिसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
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