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    12th Fail Review: अभिनय की परीक्षा में विक्रांत मैसी अव्‍वल नम्बरों से पास, कोचिंग संस्थानों की खुली पोल

    By Manoj VashisthEdited By: Manoj Vashisth
    Updated: Wed, 25 Oct 2023 12:14 PM (IST)

    12th Fail Review विधु विनोद चोपड़ा निर्देशित फिल्म एक छात्र के संघर्ष और जज्बे की कहानी है। कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता जो ट्वेल्थ फेल फिल्म का सार है। इसकी कहानी आइपीएस मनोज कुमार शर्मा के जीवन पर आधारित है जिस पर इसी नाम से किताब भी आ चुकी है। फिल्म में मेधा शंकर ने फीमेल लीड रोल निभाया है।

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    12th फेल सिनेमाघरों में रिलीज होगी। फोटो- इंस्टाग्राम

    स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। 12th Fail Review: अक्‍सर लोग बुनियादी सुविधाएं न होने का रोना रोते हैं। वहीं, कुछ मेहनतकश इन परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्‍य को हासिल करके ही दम लेते हैं। इनमें चंबल से ताल्‍लुक रखने वाले आइपीएस मनोज कुमार शर्मा (IPS Manoj Kumar Sharma) भी शामिल हैं।

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    गरीबी, कमजोर आर्थिक स्थिति को उन्‍होंने अपने सपनों के आड़े नहीं आने दिया। अपने जज्‍बे और कड़ी मेहनत के दम पर उन्‍होंने अपने लक्ष्‍य को हासिल किया। उनकी जिंदगी पर अनुराग पाठक द्वारा लिखी किताब ट्वेल्‍थ फेल पर विधु विनोद चोपड़ा ने फिल्‍म 12वीं फेल बनाई है।

    क्या है 12th फेल की कहानी?

    कहानी का आरम्भ गांव में रहने वाले मनोज (विक्रांत मैसी) द्वारा 12वीं की परीक्षा पास करने को लेकर नकल के लिए पर्चियां बनाने से होता है। स्‍थानीय विधायक द्वारा संचालित स्‍कूल में पढ़ रहे मनोज को यकीन होता है कि नकल के दम पर वह पास हो जाएगा, लेकिन अचानक से डीएसपी दुष्‍यंत सिंह (प्रियांशु चटर्जी) स्‍कूल पहुंच कर प्रिंसिपल को गिरफ्तार कर ले जाते हैं।

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    उधर, उसके ईमानदार पिता को सरकारी नौकरी से निलम्बित कर दिया जाता है। वह अपने मामले को चुनौती देने अदालत जाते हैं। इस दौरान घर की जिम्‍मेदारी मनोज और उसका भाई संभालते हैं। घटनाक्रम मोड़ लेते हैं, मनोज भी दुष्‍यंत की तरह ईमानदार पुलिस आफिसर बनना चाहता है।

    बीए पास करने के बाद उसके इस निर्णय का उसकी दादी (सरिता जोशी) समर्थन करती है। ग्‍वालियर होते हुए मनोज दिल्‍ली के मुखर्जी नजर पहुंचता है। जहां शुरू होता है उसका असली संघर्ष।

    कैसा है फिल्म का स्क्रीनप्ले और अभिनय?

    हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था पर बतौर निर्माता विधु विनोद चोपड़ा फिल्‍म थ्री इडियट्स भी बना चुके हैं। उन्‍हें बखूबी पता है, संघर्षों और सफलताओं के बारे में कहानियों को कैसे चित्रित करना है। उन्‍हें कैसे ड्रामा और तनाव को कहानी के साथ जोड़ना है।

    यहां पर उन्‍होंने प्रेरणात्‍मक कहानी को दर्शाने के साथ ह्यूमर का तड़का भी रखा है जो कहानी साथ बांधने के लिए जरूरी भी था। इंटरवल से पहले कहानी और किरदारों को स्‍थापित करने में काफी समय लिया गया है। वह थोड़ा खिंचा हुआ लगता है।

    बच्‍चों को उत्‍तीर्ण कराने के नाम पर जमी जमाई व्‍यवस्‍था के तहत नकल कराकर किस प्रकार से बच्‍चों का भविष्‍य बर्बाद किया जा रहा है, उस पर विधु ने सधे तरीके से कटाक्ष किया है। कई कोचिंग संस्‍थान प्रचारित करते हैं कि कई आइएएस, आइपीएस, पीसीएस छात्र उनके यहां पढ़कर परीक्षा में उत्‍तीर्ण हुए पर हकीकत कई बार उलट होती है। उसकी पोल भी उन्‍होंने यहां पर खोली है।

    हिंदी मीडियम में पढ़े मनोज अंग्रेजी में काफी कमजोर थे। ऐसे छात्रों को बहुत बार हीनता का सामना करना पड़ता है। उन्‍हें पढाई में भी बहुत दिक्‍कतें आती हैं, उन्‍हें विधु समुचित तरीके से नहीं दर्शा पाए हैं। फिल्‍म में मनोज के संघर्ष के साथ श्रद्धा (मेधा शंकर) साथ उनकी प्रेम कहानी भी चलती है।

    टूरिज्‍म को टेरिज्‍म पढने वाले मनोज अंग्रेजी को कैसे सुधारते हैं? अंग्रेजी में अच्‍छी होने के बावजूद श्रद्धा क्‍यों मनोज की मदद नहीं करती? उसका जिक्र नहीं है। फिल्‍म में फिजिक्‍स पढ़ाने वाले शिक्षक ही कबीर का दोहा पढ़ा रहे हैं, यह बात गले नहीं उतरती।

    फिल्‍म में मनोज की दयनीय और खस्‍ता आर्थिक स्थिति आपको झकझोरती है। फिल्‍म के संवाद कहीं-कहीं चुटीले हैं। मसलन, ''आइएएस बनना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि जिस कुर्सी पर आप बैठेंगे उससे आपकी इज्‍जत न हो, बल्कि आप से उस कुर्सी की इज्‍जत बढ़े।'' हताश छात्रों में स्‍फूर्ति भरने के लिए 'रीस्‍टार्ट' जैसे संवाद प्रेरणादायक हैं।

    कलाकारों में मनोज के संघर्ष, मनोदशा और जज्‍बे को विक्रांत मैसी ने बहुत शिद्दत से परदे पर उतारा है। उन्‍हें अपनी प्रतिभा का नया आयाम दिखाने का अवसर मिला है, जिसमें वह खरे उतरे हैं। यह उनके करियर की सर्वश्रेष्‍ठ परफार्मेंस है।

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    नवोदित अभिनेत्री मेधा शंकर ने श्रद्धा की मासूमियत, हावभाव और निडरता को समुचित तरीके से आत्‍मसात किया है। फिल्‍म का एक अन्‍य आकर्षण अनंत विजय जोशी और अंशुमन पुष्‍कर हैं। दोनों अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज कराते हैं। प्रियांशु चटर्जी अपनी संक्षिप्‍त भूमिका में प्रभावित करते हैं। दादी की संक्षिप्‍त भूमिका में सरिता जोशी का काम उल्‍लेखनीय है। स्‍वानंद किरकिरे लिखित गीत और शांतुन मोइत्रा का संगीत कथ्‍य को गाढ़ा करते हैं।