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दरअसल: पानी के लिए लड़ते किरदार

विक्रमादित्य का विषय आज की मुंबई और मुंबई की रोज़मर्रा की समस्याएं हैं। उनमें पानी एक विकट समस्या है।

By Manoj KhadilkarEdited By: Published: Sat, 02 Jun 2018 04:32 PM (IST)Updated: Sat, 02 Jun 2018 04:40 PM (IST)
दरअसल: पानी के लिए लड़ते किरदार
दरअसल: पानी के लिए लड़ते किरदार

अजय ब्रह्मात्‍मज

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विक्रमादित्य मोटवानी का सुपरहीरो भावेश जोशी मुंबई के वाटर माफिया के खिलाफ खड़ा होता होता है। भावेश जोशी 21वीं सदी का सजग युवक है,जो मुंबई में रहता है। वह अपने आसपास के भ्रष्टाचार और समाज के स्वार्थी व्यक्तियों के आचरण से उक्ता गया  है। उसे कोई रास्ता नहीं सूझता तो वह नक़ाब पहन कर उन्हें बेनक़ाब करने की मुहीम पर निकलता है। यह सिस्टम से नाराज़ आज के युवक की कहानी है।

विक्रमादित्य अपनी पीढ़ी के संवेदनशील फ़िल्मकार हैं। इस बार वे किरदारों के परस्पर मानवीय रिश्तों और उनकी उलझनों से निकल कर समाज से जूझते और टकराते किरदार को सुपरहीरो के तौर पर पेश कर रहे हैं। यथार्थ कठोर और जटिल हो तो साहित्य और फिल्मों में फंतासी का सहारा लिया जाता है। ज़िन्दगी में नामुमकिन लग रही मुश्किलों को फंतासी से सुलझाने का क्रिएटिव प्रयास किया जाता है। विक्रमादित्य का विषय आज की मुंबई और मुंबई की रोज़मर्रा की समस्याएं हैं। उनमें पानी एक विकट समस्या है। ख़बरों और फिल्मों के जरिये महानगरों में पर्याप्त पानी के लिए तरसते नागरिकों की व्यथा हम देखते रहे हैं।

हम में से अधिकांश भुक्तभोगी भी रहे हैं। पानी के नियंत्रण और वितरण में अमीरों और अमीर बस्तियों का खास ख्याल रखा जाता है। मुंबई में मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय इमारतों और बस्तियों के बाशिंदे वाटर और टैंकर माफिया के नियमित शिकार होते हैं। यहाँ बहुमज़िली इमारतों के टॉप फ्लोर के बाथरूम में पानी पहुँचने में दिक्कत नहीं होती,लेकिन मलिन बस्तियों की नालों से बूँदें भी नहीं टपकतीं। इस सन्दर्भ में 1946 में बनी चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ की याद आती है। कान फिल्म फेस्टिवल में उसी साल इसे ग्रैंड प्रिक्स अवार्ड से सम्मानित किया गया था।चेतन आनंद ने समाज में उंच-नीच के बढ़ते भेद और स्वार्थ को गहराई से चित्रित किया था।

इस फिल्म ने सत्यजीत राय को फिल्म निर्देशन में उतरने की प्रेरणा दी थी। हयातुल्लाह अंसारी की कहानी को स्क्रिप्ट का रूप देने में ख्वाजा अहमद अब्बास ने मदद की थी। हिंदी फिल्मों सामाजिक यथार्थ की फिल्मों की यह शुरुआत थी। उन दिनों मुंबई में इप्टा (इंडियन पीपल थिएटर एसोसिएशन) के सदस्य बहुत एक्टिव थे। वामपंथी सोच के इन संस्कृतिकर्मियों का फिल्म  से अच्छा राब्ता था। उनमें से कुछ फिल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम का उपयोग करना चाहते थे। हिंदी फिल्में पारसी थिएटर के प्रभाव में मेलोड्रामा,फंतासी,ऐतिहासिक और मिथकीय चरित्रों से बाहर नहीं निकल पा रही थी। ऐसे दौर में ख्वाजा अहमद अब्बास,चेतन आनद,बलराज साहनी और कैफ़ी आज़मी जैसे क्रिएटिव दिमाग फिल्मों में कुछ नया और सार्थक करने के लिए बेताब थे।

ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘नया संसार’ ऐसी पहली कोशिश थी। ‘नीचा नगर’ में उस फिल्म की गलतियों से सीखते हुए नाच-गाने भी रखे गए थे। कान फिल्म फेस्टिवल के लिए फ्रांस भेजते समय एक गाना और नृत्य के दृश्य हटा दिए गए थे। ‘नीचा नगर’ में लेखक-निर्देशक ने ऊंचा नगर और नीचा नगर का रूपक गढ़ा था। समाज में अमीर और गरीब के बीच की बढ़ती खाई और ख्वाहिशों को यह फिल्म आज़ादी के ठीक पहले की पृष्ठभूमि में रखती है। दोनों नगर काल्पनिक हैं। ऊंचा नगर में आलीशान हवेली में सरकार निवास करते हैं। उनकी नज़र नीचा नगर के पास की उस दलदल पर है,जहाँ ऊंचा नगर का गंदा नाला जाता है। वे गंदे नाले का रुख नीचा नगर की तरफ मोड़ देते हैं ताकि दलदल सूखने पर वे मकान बना कर पैसे कमा सकें। नीचा नगर के बाशिंदों को यह बात नागवार गुजरती है। गंदा नाला अपने साथ बीमारियां भी लाया है। विद्रोह होता है तो सरकार के नुमाइंदे पानी बंद कर देते हैं। नीचा नगर में प्यास से त्राहि-त्राहि होने लगती है। फिर भी वे हिंसक नहीं होते। वे (गाँधी की प्रभाव में) अहिंसा का मार्ग अपनाते हैं। क़ुर्बानियों और संघर्ष के बाद आख़िरकार उनकी मांगे मानी जाती हैं।

नीचा नगर के बाशिंदों को गंदे नाले से निजात मिलती है और पानी मिलता है। कुछ सालों पहले शेखर कपूर ने भी ‘पानी’ शीर्षक से फिल्म बनाने की घोषणा की थी। अब पानी की समस्या से विक्रमादित्य मोटवानी का भावेश जोशी अपने ढंग से निबट रहा है। ‘नीचा नगर’ कामिनी कौशल की पहली फिल्म थी। चेतन आनंद की पत्नी उमा आनंद ने भी इस फिल्म में काम किया था। मशहूर संगीतज्ञ रवि शंकर भी इस फिल्म के साथ बतौर संगीतकार जुड़े थे।

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