'रंगीला' को पूरे हुए 30 साल, आशा भोसले समेत इन गायकों ने दी थी गानों को आवाज; पढ़ें फिल्म में क्या-क्या था खास?
फिल्म रंगीला ने हिंदी सिनेमा में एक नया अध्याय जोड़ा। इस मूवी को 8 सितंबर को 30 साल पूरे हो गए हैं। 90 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के दौर में युवाओं को रंगीला ने खूब आकर्षित किया। 63 साल की आशा भोसले की जवां आवाज ने सबको चौंका दिया।

आशा बत्रा, मुंबई। ‘रंगीला’ जब पहली बार सिनेमाघरों में आई तो हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। आठ सितंबर को जब यह फिल्म 30 साल पूरे होने का जश्न मनाएगी, उसी दिन आशा भोसले की 92वीं जन्मतिथि का जश्न भी जुड़ जाता है। एक फिल्म जिसने पूरी पीढ़ी को बदला, वहीं एक आवाज, जिसने हर दौर में खुद को नया बनाए रखा। इस दोहरे जश्न पर आशा बत्रा का आलेख...
रंगीला फिल्म को पूरे हुए 30 साल
20वीं वीं शताब्दी के अंतिम दशक में भारत में आर्थिक उदारीकरण हो रहा था और युवा ग्लोबलाइजेशन की तरफ बढ़ रहे थे। वीटीवी और एमटीवी जैसे म्यूजिक चैनल बड़ी तेजी से नौजवानों की पसंद बन रहे थे। इसी वक्त ‘रंगीला’ फिल्म सिनेमाघरों में आई। ये बिल्कुल अलग फिल्म थी। हीरोइन का लुक, स्क्रीनप्ले, गीत-संगीत, सिनेमेटोग्राफी, संवाद सब कुछ तरोताजा थे और इस नई ताजगी का सबसे बड़ा आश्चर्य थीं 63 साल की आशा भोसले।
फिल्म में उनकी आवाज इतनी जवां सुनाई दी कि हर कोई दंग रह गया। हालांकि राम गोपाल वर्मा को रोमांटिक कामेडी (रोम-काम) खास पसंद नहीं थी, किंतु वो मणिरत्नम की फिल्मों में गानों के फिल्मांकन से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने एक्सपेरिमेंट करने का सोचा। उर्मिला मातोंडकर की सुंदरता और नृत्य देखकर उन्हें लगा- यही उनकी खोज है।
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कैसे निकली थी फिल्म की कहानी?
राम गोपाल वर्मा अपने कालेज के दिनों में कुछ दबंगों की टोली का हिस्सा हुआ करते थे। उनका एक दबंग दोस्त किसी लड़की से प्यार करता था, लेकिन वह किसी अमीर और हैंडसम युवक को चाहती थी। एक सच्चे आशिक की तरह अपनी दबंगई के जोर पर उस लड़की को पाने की चाह ना रखते हुए वह उसे आशिक के साथ ही रहने की चाह रखता था। रामगोपाल, इस बात से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे ‘रंगीला’ में मुन्ना (आमिर खान) के रूप में जीवित किया। याद है वो सीन, जब मुन्ना पीली शर्ट-पैंट पहनकर मिली को होटल ले जाता है और वेटर से एसी का मुंह अपनी ओर करने को कहता है। ये सीन उसी दोस्त की हरकतों पर आधारित था, जो अतरंगी कपड़े पहनकर लड़की का ध्यान खींचने की कोशिश करता था।
रामगोपाल वर्मा हिंदी सिनेमा के दिग्गज जैसे जावेद अख्तर, नीता लुल्ला और सरोज खान को फिल्म में लेना चाहते थे, लेकिन इन सभी को अपनी-अपनी व्यस्तता के कारण यह फिल्म छोड़नी पड़ी। फिर इसे किस्मत कहें या मजबूरी, एक नई टीम बनी। 19 साल का अहमद खान कोरियोग्राफर, नए गीतकार महबूब, सहायक से कास्ट्यूम डिजाइनर बने मनीष मल्होत्रा, पहली बार हिंदी फिल्म के लिए संगीत रचते ए. आर. रहमान थे और रामगोपाल वर्मा खुद भी हिंदी सिनेमा में बिना किसी हिट के खड़े थे। यह फिल्म दरअसल नए सपनों का कारवां थी और शायद सबसे बड़ी ताकत भी। गीतकार महबूब ने अपने गीत ‘रंगीला रे’ की इन पंक्तियों द्वारा इस टीम के भावों को बड़ी खूबसूरती से कहा है- ‘इतने चेहरों में अपने चेहरे की, पहचान तो हो पहचान तो हो। बड़े बड़े नामों में अपना भी नामोनिशान तो हो पहचान तो हो।’
आशा भोसले की आवाज ने बनाया था फिल्म को खास
इस नई टीम के बीच एक आवाज पुरानी थी- आशा भोसले, लेकिन उतनी ही ताजा। 63 साल की उम्र में भी सुरों में वही खनक और लचक। गीतकार महबूब ने अपने एक साक्षात्कारमें बताया था कि जब आशा भोंसले ‘तन्हा-तन्हा’ गाने की रिकार्डिंग में आईं तो वो बहुत घबराए हुए थे। रिकार्डिंग से बाहर आते ही आशा जी ने महबूब से कहा, ‘आज तुमने मुझे पंचम की याद दिला दी।’ महबूब कहते हैं, ‘बस फिर क्या, मैं गद-गद हो गया और मुझे समझ आ गया कि इतिहास बनने जा रहा है।’ इसी फिल्म से 17 साल बाद आशा जी फिल्मफेयर की सूची में लौटीं। आशा जी ने खुद कहा था, ‘फिल्म ‘रंगीला’ के गानों ने मुझे जवान बना दिया।’
फिर आते हैं ए. आर. रहमान! उन्होंने तो फिल्मी संगीत की परिभाषा ही बदल दी। इलेक्ट्रानिक बीट्स और भारतीय धुनों का ऐसा संगम कि सुनने वालों को एक नई ध्वनि सुनाई दी। सराहनीय बात ये भी है कि आशा जी ने भी इस प्रयोग को खुले मन से अपनाया। वह कहती हैं, ‘चेन्नई में जब रहमान के घर के एक छोटे से कमरे में रिकार्डिंग कर रही थी तो मैंने देखा कि सिर्फ एक माइक और मुझे उस पर गीत गाना है, अगले दिन जब गाने की रिकार्डिंग सुनी तो उसमें दर्जनों लेयर और वाद्ययंत्र जुड़ चुके थे।’ ये वही जादू था, जिसने फिल्म को अलग बनाया।
फिल्म के तीन किरदार थे- स्टार कमल के रूप में जैकी श्राफ, टपोरी मुन्ना के रूप में आमिर खान और अभिनेत्री बनने का सपना देखती मिली के रूप में उर्मिला। इनका कैरेक्टराइजेशन इतना परिपक्व था कि आज भी दर्शकों की यादों में है, लेकिन फिल्म का अंत अत्यंत ही निराला है। न आलिंगन, न आंसुओं से भीगा मिलन-बस झगड़ते-हंसते प्रेमी और किनारे खड़ा तीसरा किरदार, जो मुस्कुराहट में आंसू छिपाए हुए है। यह अंत उस दौर के सोच की तरह खुला हुआ था- कुछ पुराना, कुछ नया।
रंगीला ने सिनेमा को दिया कुछ नया
किसी भी फिल्म को लोगो का प्यार तभी मिलता है जब वो उस पीढ़ी को एंटरटेन करे। उस समय का दर्शक तो दो दुनिया में जी रहा था। एक तरफ भारतीय फिल्मों की आदत, दूसरी तरफ ग्लोबलाइजेशन का असर। वीटीवी और एमटीवी एक दौर का निर्माण कर रहे थे और रामगोपाल ने उस वक्त को समझा। ‘रंगीला’ बेहद सफल हुई और फिर तमिल और तेलुगु में भी बनी।
आज जब हम ‘रंगीला’ के 30 साल मना रहे हैं और साथ ही आशा भोसले के 92 बरस पूरे होने का उत्सव भी है, तो यह महज तारीखों का मेल नहीं है। यह उन दो यात्राओं का संगम है, जिन्होंने सिखाया कि नया वही है, जो समय की कसौटी पर ताजा बना रहे। ‘रंगीला’ ने हिंदी सिनेमा में नएपन की परिभाषा दी और आशा भोसले ने साबित किया कि उम्र सिर्फ कैलेंडर में दर्ज होती है, आवाज में नहीं। ‘रंगीला’ और आशा भोसले- दोनों यही बताते हैं कि असली जादू तभी होता है जब परंपरा और आधुनिकता हाथ मिलाएं और आज जब हम ‘तन्हा तन्हा’ या ‘रंगीला रे’ सुनते हैं, तो समझ आता है कि जादू कभी पुराना नहीं होता।
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