निश्छल प्रेम, महिलाओं की देह पर फोकस...समय के साथ कैसे बदलता चला गया Raj Kapoor का कहानी कहने का तरीका
राज कपूर की फिल्मों में यथार्थ और रोमांस का ऐसा मिश्रण होता था जिसमें गीत-संगीत से ऐसी मिठास घुली होती थी कि दर्शक चार दशकों तक यादे करें। राज कपूर की जन्मशती का उत्सव ग्रेट शो मैन का स्मरण पर्व भी है। 14 नवंबर को उनकी बर्थ एनिवर्सरी है। इस खास मौके पर आपको बताएंगे कैसे समय के साथ बदलता गया उनका कहनी कहने का नजरिया।
अनंत विजय, मुंबई। दस-ग्यारह वर्ष का एक बालक बाग में एयर गन से खेल रहा था। पेड़ पर चिड़ियां चहचहा रही थीं। अचानक बालक ने एयर गन से चिड़ियों के झुंड पर फायर कर दिया। एक बुलबुल पेड़ से नीचे गिरी। उसकी मौत हो चुकी थी। बालक ने उसको प्यार से उठाया। बाग में ही गड्ढा खोदकर बुलबुल को उसमें डालकर मिट्टी से ढक दिया। फिर कुछ फूल लाकर उसने उस जगह पर रखे। बुलबुल को श्रद्धांजलि दी। साथ खेल रहे भाई-बहनों से भी फूल डलवाया। बाद में इस कहानी को उसने बेहद संवेदनशील तरीके से अपने परिवार वालों को सुनाया।
शुरू से आता था कहानी कहने का तरीका
मधु जैन ने अपनी पुस्तक में इस घटना का रोचक वर्णन करते हुए लिखा है कि वो बालक मास्टर स्टोरी टेलर राज कपूर थे। ये कहना गलत नहीं होगा कि राज कपूर को बचपन से ही कहानी कहने का ना केवल शऊर था बल्कि उसमें समय के अनुरूप रोचकता का पुट मिलाने का हुनर भी। वो कहानियों में संवेदना को उभारते थे। राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया।
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मुमताज को फिल्म में रखने के लिए कहा
किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता ) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का ऑफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज, मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज को रख लेना,वो बेहद खूबसूरत हैं। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया ।
बरसात फिल्म से हुई पैसों की बारिश
स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से उन्होंने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन,कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है।
निश्छल प्रेम की कहानी है आवारा
फिल्म ‘बरसात’ के बाद राज कपूर ने आरके स्टूडियो की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म ‘आवारा’ बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि यह भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी। फिल्म ‘आवारा’ से लेकर ‘राम तेरी गंगा मैली ’ तक पर विचार करने के बाद लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही।
राज कपूर ने दिखाया रोमांस का अलग रूप
राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरा वादी हिंदू हैं। राज कपूर ने अपनी फिल्मों में रोमांस का एक ऐसा स्वरूप पेश किया जो मिजाज में तो पश्चिमी था लेकिन उसमें भारतीयों के तत्व भी भरे हुए थे। उन्होंने एक ऐसी शैली विकसित की जिसमें पश्चिम की छाप थी लेकिन वातावरण और सामाजिक प्रतिरोध भारतीय था ।
नर्गिस के साथ थी रोमांस की चर्चा
‘आवारा’ में नर्गिस एक समय में दो पुरुषों से प्यार करती है। एक ऐसी नारी जो सोच और परिधान से पश्चिम से प्रभावित है लेकिन भारतीय वातावरण में रह रही है। इसका नायक भी समाज के तमाम बंधनों से मुक्त है। राज कपूर ने कैमरे की आंख से बाहर निकलकर एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जो दर्शकों को झटके भी दे रहा था लेकिन पसंद भी आ रहा था। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में राज कपूर ने लाइटिंग से दृश्यों को जीवित किया। रंगीन फिल्मों का दौर आया तो राज कपूर ने इंद्रधनुषी रंगों का बेहतरीन उपयोग करके दर्शकों को बांधने में सफलता प्राप्त की। नर्गिस से उनका रोमांस चरम पर था। देश-विदेश में उनके साथ के दौरे चर्चा में रहते थे।
समय के साथ फिल्मों का रास्ता बदलता रहा
बहाव के साथ बदला रास्ता राज कपूर की जिंदगी और उनकी फिल्मों का रास्ता बदलता है 1960 में। जब वो पद्मिनी को लेकर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ बनाते हैं। यहां से राज कपूर की फिल्मों में नारी देह पर कैमरा फोकस करने लगता है जो ‘राम तेरी गंगा मैली ’ तक निरंतर बढ़ता चला गया । इस बात पर बहस हो सकती है कि राज कपूर की फिल्मों में नारी देह का चित्रण होता है या सौंदर्य को उद्घाटित करने वाला। 1964 में राज कपूर की फिल्म आती है ‘संगम’। इस फिल्म से राज कपूर पूरी तरह से व्यावसायिक राह पर चल पड़े।
डिप्रेशन में चले गए थे राज कपूर
1970 में आई फिल्म ‘मेरा नाम जो कर’। फिल्म बिल्कुल नहीं चली। राज कपूर पर इस असफलता का गहरा प्रभाव पड़ा । यही वो दौर था जब उनके पिता का अमेरिका में इलाज चल रहा था। राज कपूर डिप्रेशन में तो गए लेकिन टूटे नहीं। पांच वर्ष बाद जब उनकी फिल्म ‘बाबी ’ आई तो उसने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। हिंदी फिल्मों में रोमांस का रास्ता भी बदल दिया। ‘बाबी ’ के बाद की बनी कई फिल्मों में स्वाधीनता के बाद जन्मी पीढ़ी के किशोर और अल्हड़ प्रेम का प्लाट भी अन्य निर्माता-निर्देशकों के हाथ लग गया ।
देह पर कैमरा करने लगा था फोकस
नारी देह पर घूमने वाला राज कपूर का कैमरा ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में जीनत अमान की देह के विभिन्न कोणों पर पहुंचता है। लेकिन फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। नारी देह दिखाने का राज कपूर का फार्मूला हर फिल्म में नहीं चला। ‘संगम’ में वैजयंती माला के अंग प्रदर्शन को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन ‘मेरा नाम जोकर’ में सिमी ग्रेवाल की नग्न टांगों को और ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में जीनत के उत्तेजक दृश्यों को पसंद नहीं किया गया। फिर ‘राम तेरी गंगा मैली ’ में मंदाकिनी के देह दर्शन ने फिल्म को सफलता दिलाई।
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