डिजिटल प्लेटफार्म पर विदेशी कहानियों के साथ अपनेपन का एहसास करातीं जमीन से जुड़ी हिंदी हार्टलैंड कहानियां
श्रेयांश का कहना है डिजिटल प्लेटफार्म पर अब छोटे शहरों और गांवों की कहानियों पर सभी लोगों की निगाह जा रही है। अभी तो बस शुरुआत हुई है अभी बहुत ज्यादा और अच्छे-अच्छे कंटेंट बनने अभी बाकी हैं।
प्रियंका सिंह/ दीपेश पांडेय, मुंबई। भारत में डिजिलट प्लेटफार्म को शुरुआती दौर में मेट्रो शहरों के युवाओं का प्लेटफार्म माना गया था। हालांकि, अब यह प्लेटफार्म छोटे शहरों और गांवों में भी तेजी से पैर पसार रहा है। हालिया रिलीज वेब सीरीज 'पंचायत 2' इन दिनों काफी चर्चा में है। इससे पहले छोटे शहरों और गावों को दिखाती 'गुल्लक', 'मिर्जापुर', 'जामताड़ा', 'अपहरण', 'परिवार', 'आश्रम', 'रक्तांचल', 'एस्पिरेंट्स', 'कोटा फैक्ट्री', 'रंगबाज', 'रक्तांचल' और 'ये काली काली आंखें' वेब सीरीज अलग-अलग जानर में देश की सर्वाधिक देखी जाने वाली वेब सीरीज की सूची में अपना नाम बना चुकी हैं।
भारत के नक्शे के दिल यानी की मध्य और उसके आसपास बसने वाले उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में हिंदी सहजता से बोली और समझी जाती है। ऐसे में इन प्रदेशों को हिंदी हार्टलैंड का नाम दिया गया है। मेट्रो शहरों की चकाचौंध भरी, भागमभाग, तेज और तमाम उलझनों के भरी जिंदगी से परे, मौजूदा दिनों में डिजिटल प्लेटफार्म पर हिंदी हार्टलैंड की कहानियां काफी दिखाई जा रही हैं। ऐसी कहानियों में न सिर्फ निर्माताओं और विभिन्न प्लेटफाम्र्स की दिलचस्पी बढ़ी है, बल्कि मेट्रो शहरों से लेकर गांव-देहात तक, हर किस्म और वर्ग के दर्शकों ने ऐसी कहानियों पर खूब प्यार लुटाया है। हिंदी हार्टलैंड वाली इन वेब सीरीज की सफलता के बाद न सिर्फ इनके अगले सीजन बन रहे हैं, बल्कि ऐसे कई और शो कतार में हैं।
इस बाबत 'कोटा फैक्ट्री', 'गुल्लक' और 'पंचायत' शो बनाने वाली प्रोडक्शन कंपनी टीवीएफ ओरिजिनल्स के हेड श्रेयांस पांडेय कहते हैं, 'हमारी कोशिश हमारे हार्टलैंड की वास्तविक और सच प्रतीत होने वाली कहानियां दिखाने की होती है, जो बीते काफी समय से हमारे सिनेमा और धारावाहिकों में नहीं दिखाई गई हैं। हमारा सिनेमा बहुत लंबे समय तक एक्स्ट्रीम विषयों पर खेलता रहा है। उसमें हार्टलैंड की या तो बहुत ही ज्यादा आपराधिक और बदला लेने वाली या फिर बहुत ही गरीब और शोषित वर्ग की कहानियां दिखाई जाती रही हैं। हार्टलैंड के मध्यमवर्गीय लोगों की कहानियां काफी समय तक नजरअंदाज की गई हैं। सिनेमा और हार्टलैंड की कहानियों के बीच में एक बहुत बड़ा अंतराल रहा है, हम उसी अंतराल को भरने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी कहानियों को एक बहुत बड़ा वर्ग अपने परिवार के साथ देखना चाहता है। बड़े शहरों के युवाओं को दूर से ही देखकर एक खास किस्म के समझ बना रखी है कि उनके जीवन में क्राइम और ड्रग्स ही चल रहे होते हैं। मुझे यह सोच बहुत गलत लगती है। हमारे युवा पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब कहावत को भली भांति समझते हैं। वह 10 वीं, 12वीं, इंजीनियरिंग, मेडिकल और यूपीएससी जैसी परीक्षाओं की तैयारी में अपना जी-जान लगा देते हैं। ऐसे में जब उन्हें डिजिटल प्लेटफार्म पर 'एस्पिरेंट्स' और 'कोटा फैक्ट्री' जैसी कहानियां मिलती हैं तो वह खुद को उससे आसानी से जोड़ पाते हैं।'
असली भारत की झलक: आज भी भारत की जनसंख्या का ज्यादातर हिस्सा गांवों में बसता है। बड़े शहरों का भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो छोटे शहरों से या गांव से अपने सपनों और रोजी-रोटी के लिए बड़े शहरों में रहने आया है। हालांकि, उनका दिल अपने मोहल्ले, गांव और कस्बे से ही जुड़ा रहा। यही लोग छोटे शहरों और गांवों से बड़े शहरों के लोगों को जोड़ते हैं। ऐसे में हार्टलैंड की कहानियां उन्हें अपनेपन का अहसास दिलाती हैं। इस बारे में 'पंचायत' और 'कौन बनेगी शिखरवती' वेब सीरीज के अभिनेता रघुबीर यादव कहते हैं, 'हुजूर, हमारा हिंदुस्तान तो गांवों और छोटे शहरों में ही बसता है। सच्चाई और ईमानदारी अभी भी वहीं हंै, लोग वहीं से बड़े शहरों में आकर अपनी जिंदगी में चलाने में लग जाते हैं। जहां उनकी मासूमियत और ईमानदारी मारी जाती है। इसलिए बड़े शहरों की कहानियों में सादगी नहीं रह पाती है।
सरलता और सहजता तो हमारे गांवों और कस्बों में ही बरकरार है। बीते 20-25 वर्षों के दौरान टीवी और सिनेमा अपनी जमीन और संस्कृति को भूलते जा रहे थे। दर्शकों के पास कुछ और देखने का विकल्प नहीं था। लाकडाउन के दौरान लोगों ने जब घर बैठकर 'पंचायत' जैसी हार्टलैंड की कहानियां देखीं, तब उन्हें पता चला कि असली हिंदुस्तान तो गांवों और कस्बों में है। ऐसी कहानियां दर्शकों को अपनी जड़ों से जोड़ती हैं। मैं खुद ग्रामीण परिवेश में पला-बढ़ा हूं। 'पंचायत' करते हुए कई वर्षों बाद मुझे लगा कि मैं कोई काम अपनी जगह और जमीन से जुड़ा हुआ कर रहा हूं। अब बच्चों से लेकर, बड़े और बुजुर्ग सभी परिवार के बीच बैठकर ऐसे ही कहानियां देखना चाहते हैं जो हमारी समाज और संस्कृति को प्रदर्शित करें।'
तैयारी जरूरी: हार्टलैंड के किरदार स्क्रीन पर भले ही साधारण और सादगीपूर्ण लगें, लेकिन कलाकारों के लिए उन्हें स्क्रीन पर प्रस्तुत कर पाना आसान नहीं होता है। वेब सीरीज 'मिर्जापुर' और 'ये काली काली आंखें' में अहम किरदार निभाने वाली श्वेता त्रिपाठी कहती हैं, 'हार्टलैंड के किरदारों की तैयारी की एक प्रक्रिया होती है। बड़े शहरों में रहने वाले कलाकारों के लिए उनका किरदार कैसा होगा, कैसे बात करता होगा, ये सब समझना जरूरी होता है। ऐसे किरदारों के लिए मैं कहानी से संबंधित शहर या गांव का खाना खाती हूं, संगीत सुनती हूं, वहां के स्थानीय लेखकों की लिखी हुई किताबें पढ़ती हूं। स्थानीय भाषा समझ लेने के बाद काफी आसानी हो जाता है। इन्हीं चीजें में हार्टलैंड के मिट्टी की खुशबू होती है, जो किरदार का फ्लेवर पकडऩे के लिए जरूरी है। फिल्म 'मसान' में मैंने छोटे शहर की लड़की का किरदार निभाया था। फिल्म के निर्देशक नीरज घेवन ने मुझे कहा था कि 'नदिया के पार' फिल्म देखो और उसके गाने सुनो। किरदार में जितना ज्यादा लोकल प्लेवर ला पाएं, किरदार में उतनी जान आएगी।'
परिचित माहौल, बेहतर पकड़: लेखक, निर्देशक और कलाकार हार्टलैंड के लोगों, वहां की बोली, परिस्थितियां और रहन-सहन से जितना परिचित होंगे, कहानी और किरदार पर उनकी पकड़ उतनी ही बेहतर होगी। इस बारे में 'पंचायत' और 'कौन बनेगी शिखरवती' वेब सीरीज के अभिनेता रघुबीर कहते हैं, 'मैं मूलत: मध्य प्रदेश से हूं, लेकिन मैंने पारसी थिएटर कंपनी के साथ उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के भी कई गांवों और कस्बों में जाकर नाटक किया है। इस दौरान मुझे बहुत ही सरल और सहज स्वभाव के व्यक्तियों से मिलने का मौका मिला। उस समय मुझे बहुत कम पैसे मिलते थे, लेकिन मैं आज भी उन दिनों को अपनी जिंदगी के सबसे अच्छे दिन मानता हूं। उन लोगों के बीच मैंने सीखा कि जिंदगी जीना कोई मुश्किल काम नहीं है। कोई भी किरदार निभाने के लिए, उसमें पूरा डूबना पड़ता है।
मुझे ग्रामीण परिस्थितियों का अनुभव काफी है, इसलिए उनमें डूबना थोड़ा सहज रहता है।' वहीं वेब सीरीज 'रक्तांचल 2' के लेखक और 'आश्रम' के डायलाग लेखक संजय मासूम कहते हैं, 'मेरी पैदाइश गाजीपुर में हुई है तो मैं पूर्वांचल के आम लोगों, बाहुबलियों समेत हर तरह के किरदार और उनके रहन-सहन अच्छी तरह से जानता हूं। इसे मुझे लिखने में थोड़ी आसानी होती है। 'रक्तांचल 2' को मैंने अपने पूर्वांचल के राजनीतिक अनुभवों के आधार पर लिखा था। उसमें मेरी कोशिश यही थी कि अपराध और राजनीति के बीच जो गठजोड़ है, उसके नए पहलुओं पर प्रकाश डाला जाए। जब आप अपनी कहानी और उसकी दुनिया को अच्छी तरह से जानते हैं, तभी उसको पूरी ईमानदारी के साथ लिख सकते हैं। 'आश्रम' के किरदार और कहानी दोनों काल्पनिक है। उसका डायलाग लिखते समय हमने ऐसी भाषा का प्रयोग करने की कोशिश की है, जिससे दर्शकों को उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा की शैली का एहसास हो।'
अपनी मिट्टी का अहसास: डिजिटल प्लेटफार्म की पहुंच कई देशों में होती है। इस प्लेटफार्म के माध्यम से शो एक साथ कई देशों के दर्शकों तक पहुंचता है। ऐसे में इस प्लेटफार्म के जरिए हार्टलैंड की कहानियों से न सिर्फ विदेशी दर्शक रूबरू होते हैं, बल्कि विदेश में रहने वाले भारतीय दर्शकों को भी इन कहानियों से अपने देश और मिट्टी की खुशबू मिलती है। वेब सीरीज 'गुल्लक' के लेखक दुर्गेश सिंह का कहना है, 'डिजिटल प्लेटफार्म पर हर तरह का कंटेंट है। जैसे दूसरे देशों की कहानियां हम अपने यहां देखते हैं, वैसे ही विदेश में हमारी कहानियां भी देखी जाती हैं। विदेशी दर्शकों के साथ ही हार्टलैंड की कहानियों से वहां रहने वाले भारतीय भी जुड़ते हैं। 'गुल्लक सीजन 3' के बाद मेरे मैनेजर के पास अमेरिका, कनाडा समेत कई देशों से ईमेल आए। वहां वर्षों से रह रहे भारतीयों ने हार्टलैंड की कहानी के लिए धन्यवाद कहा। जो लोग अपने घर, अपना देश छोड़कर दूसरे देश में बसते हैं, वह इन कहानियों और किरदारों के सुख-दुख को देखकर उससे खुद को जोड़ पाते हैं। देश के बाहर वे हार्टलैंड की कहानियां देखकर अपनी धरती, अपने गांव, अपनी जमीन के लिए ज्यादा इमोशनल होते हैं।'
लंबा चलेगा दौर: इंडस्ट्री के जानकारों के मुताबिक, हार्टलैंड की अभी काफी कहानियां लोगों के सामने लायी जानी बाकी हैं, ऐसे में हार्टलैंड की कहानियों का यह दौर अभी काफी समय तक चलेगा। इस बाबत डायलाग लेखक संजय मासूम का कहना है, 'हर तरह की कहानियों का एक दौर होता है, जैसे पहले फिल्मों में मुंबई की कहानियां बहुत कही जाती थीं। लोगों ने कुछ वर्षों तक वहां की बहुत सारी कहानियां देखीं, लेकिन दर्शकों को भी वक्त के साथ बदलाव चाहिए होता है। इसी बीच कुछ निर्माताओं ने हिंदी हार्टलैंड की कहानियां बनाईं। जब लोगों ने उन कहानियों को पसंद किया तो दूसरे फिल्मकारों की निगाह भी उस तरफ गई। लोगों की दिलचस्पी हिंदी हार्टलैंड की कहानियों में बढ़ी है। जब तक इस तरह की कहानियां बनेंगी और लोग पसंद करते रहेंगे, तब तक इसे हिंदी हार्टलैंड की कहानियों का दौर ही कहा जाएगा। हमारे हार्टलैंड में बहुत सारी कहानियां है, जो अभी तक दर्शकों के सामने नहीं आई है, तो मुझे लगता है यह दौर अभी लंबा चलेगा।' वहीं श्रेयांश का कहना है, 'अब छोटे शहरों और गांवों की कहानियों पर सभी लोगों की निगाह जा रही है। अभी तो बस शुरुआत हुई है, अभी बहुत ज्यादा और अच्छे-अच्छे कंटेंट बनने बाकी हैं।'