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    क्‍लासिक फिल्‍म है गर्म हवा

    By rohitEdited By:
    Updated: Fri, 14 Nov 2014 12:03 PM (IST)

    सन् 1973 में आई एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ का हिंदी सिनेमा के इतिहास में खास महत्व है। यह फिल्म बड़ी सादगी और सच्चाई से विभाजन के बाद देश में रह गए मुसलमानों के द्वंद्व और दंश को पेश करती है। कभी देश की राजधानी रहे आगरा के ऐतिहासिक

    अजय ब्रह्मात्मज

    सन् 1973 में आई एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ का हिंदी सिनेमा के इतिहास में खास महत्व है। यह फिल्म बड़ी सादगी और सच्चाई से विभाजन के बाद देश में रह गए मुसलमानों के द्वंद्व और दंश को पेश करती है। कभी देश की राजधानी रहे आगरा के ऐतिहासिक वास्तु शिल्प ताजमहल और फतेहपुर सिकरी के सुंदर, प्रतीकात्मक और सार्थक उपयोग के साथ यह मिर्जा परिवार की कहानी कहती है।

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    हलीम मिर्जा और सलीम मिर्जा दो भाई हैं। दोनों भाइयों का परिवार मां के साथ पुश्तैनी हवेली में रहता है। हलीम मुस्लिम लीग के नेता हैं और पुश्तैनी मकान के मालिक भी। सलीम मिर्जा जूते की फैक्ट्री चलाते हैं। सलीम के दो बेटे हैं बाकर और सिकंदर। एक बेटी भी है अमीना। अमीना अपने चचेरे भाई कासिम से मोहब्बत करती है। विभाजन की वजह से उनकी मोहब्बत कामयाब नहीं होती। हलीम अपने बेटे को लेकर पाकिस्तान चले जाते हैं। कासिम शादी करने के मकसद से आगरा लौटता है, लेकिन शादी की तैयारियों के बीच कागजात न होने की वजह से पुलिस उन्हें जबरन पाकिस्तान भेज देती है। दुखी अमीना को फूफेरे शमशाद का सहारा मिलता है, लेकिन वह मोहब्बत भी शादी में तब्दील नहीं होती। दूसरी तरफ सलीम मिर्जा आगरा न छोडऩे की जिद्द पर अमीना की आत्महत्या और पाकिस्तानी जासूस होने के लांछन तक अड़े रहते हैं। संदेह और बेरूखी के बावजूद उनकी संजीदगी में फर्क नहीं आता। उन्हें उम्मीद है कि महात्मा गांधी की शहादत बेकार नहीं जाएगी। सब कुछ ठीक हो जाएगा।

    फिल्म फायनेंस कारपोरेशन के सहयोग से बनी ‘गर्म हवा’ आजादी के बाद पहली बार विभाजन के दुष्प्रभाव को राजनीतिक संदर्भ में वस्तुगत ढंग से प्रस्तुत करती है। सीमित बजट में बनी ‘गर्म हवा’ आज के दौर के इंडेपेंडेट फिल्मकारों जैसी ही पहल कही जा सकती है। इप्टा मे सक्रिय एम एस सथ्यू ने समान विचार के तकनीशियनों और कलाकारों को जोड़ कर यह फिल्म पूरी की। इस्मत चुगताई की कहानी थी। उसे कैफी आजमी और शमा जैदी ने पटकथा में बदला। कैफी आजमी ने फिल्म के शुरू और अंत में भारत-पाकिस्तान की समान स्थिति पर मौजूं गजल पढ़ी। बलराज साहनी ने मुख्य किरदार सलीम मिर्जा की भूमिका निभाई। ए के हंगल चरित्र भूमिका में दिखे। फिल्म के निर्माण में इप्टा के आगरा स्थित रंगकर्मियों और स्थानीय कलाकारों ने सक्रिय सहयोग दिया। प्रगतिशील विचारों से प्रेरित यह फिल्म समानधर्मी कलाकारों और तकनीशियनों का सामूहिक प्रयास थी। अपने समय में यह फिल्म हिंदी सिनेमा के मुख्यधारा के खिलाफ बनी थी।

    सत्यजित राय ने ‘गर्म हवा’ के बारे में लिखा है, ‘विषयहीन हिंदी सिनेमा के संदर्भ में ‘गर्म हवा’ ने इस्मत चुगताई की कहानी लेकर दूसरी अति की। यह फिल्म सिर्फ अपने विषय की वजह से मील का पत्थर बन गई, जबकि फिल्म में अन्य कमियां थीं। सचमुच, इस फिल्म में तकनीकी गुणवत्ता और बारीकियों से अधिक ध्यान कहानी के यथार्थ धरातल और चित्रण पर दिया गया। 1973 में प्रदर्शित हुई अन्य हिंदी फिल्मों की तुलना में ‘गर्म हवा’ छोटी फिल्म कही जा सकती है, जिसमें न कोई पॉपुलर स्टार था और न हिंदी फिल्मों के प्रचलित मसाले।’

    एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ पहली बार विभाजन के थपेड़ों का हमदर्दी और स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ पर्दे पर पेश करती है। हिंदी फिल्मों में इसके पहले भी विभाजन के संदर्भ मिलते हैं, लेकिन कोई भी निर्देशक सतह से नीचे उतर कर सच्चाई के तल तक जाने की कोशिश नहीं करता। देश के विभाजन और आजादी के बाद ‘लाहौर’ (1949), ‘अपना देश’ (1949), ‘फिरदौस’ (1950), ‘नास्तिक’ (1959), ‘छलिया’ (1960), ‘अमर रहे तेरा प्यार’ (1961) और ‘धर्मपुत्र’ (1961) में विभाजन के आघात से प्रभावित चरित्र हैं। इनमें से कुछ में अपहृत महिलाओं की कहानियां है तो कुछ में सिर्फ रेफरेंस है। दशकों बाद गोविंद निहलानी के धारावाहिक ‘तमस’ और डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के ‘पिंजर’ में फिर से विभाजन की पृष्ठभूमि मिलती है। ‘पिंजर’ में डॉ. द्विवेदी ने अपहृत पारो के प्रेम और द्वंद्व को एक अलग संदर्भ और निष्कर्ष दिया,जो मुख्य रूप से ‘पिंजर’ उपन्यास की लेखिका अमृता प्रीतम की मूल सोच पर आधारित है। सन् 2000 में अनिल शर्मा की ‘गदर’ में भी विभाजन का संदर्भ है, लेकिन यह फिल्म भारत के वर्चस्व से प्रेरित अंधराष्ट्रवादी किस्म की है। ‘गदर’ अतिरंजना से बचती तो सार्थक फिल्म हो सकती थी। हिंदी फिल्मों में देश के विभाजन पर फिल्मकारों की लंबी चुप्पी को ‘गर्म हवा’ तोड़ती है। इस फिल्म में लेखक-निर्देशक ने विभाजन की पृष्ठभूमि में आगरा के सलीम मिर्जा और उनके परिवार के सदस्यों के मार्फत मुसलमानों की सोच, दुविधा, वास्तविकता और सामाजिकता को ऐतिहासिक संदर्भ में संवेदनशील तरीके से समझने और दिखाने की कोशिश की।

    विभाजन की राजनीति-सामाजिक विभीषिका देश से हमारा देश कभी उबर नहीं पाया। इस विध्वंस की तबाही आज भी देखी जा सकती है। देश के नेताओं की जल्दबाजी और भूलों के परिणाम के रूप में विभाजन सामने आया। विभाजन में हुई जान-ओ-माल की तबाही के आंकड़े आज भी विचलित कर देते हैं। नेहरू और जिन्ना ने सत्ता हथियाने की होड़ के साथ अपने वर्चस्व और अहं की लड़ाई में यह नहीं सोचा कि देश के टुकड़े होने से स्थानातरण और पुनर्वास के बीच लाखों परिवार ओर जिंदगियां इस भूल से रौंदी जाएंगी। आजादी के 66 सालों के बाद भी प्रभावित व्यक्तियों की कराह हमारे वर्तमान को टीसती रहती है। वैमनस्य और अविश्वास हमारी सोच-समझ का हिस्सा बन गया है। दशकों बाद भी पहले भारत-पाकिस्तान और अब भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश की अनेक समस्याएं समान और परस्पर हैं। इन समस्याओं के बीज विभाजन में ही रोपे गए थे।

    विभाजन के लिए हम अपनी सोच और विचारधारा से किसी एक को दोषी ठहरा देते हैं। वास्तव में दोषी तो राजनेता थे। 1960 में लियोनार्ड मोसली से एक बातचीत में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘सालों की लड़ाई से हम सभी थक गए थे। हम लोगों में से कुछ ही फिर से जेल जाने की स्थिति के लिए तैयार हो पाते - अगर हम संयुक्त भारत के लिए लड़ते तो निश्चित ही हमें जेल के खुले दरवाजे मिलते। हम ने पंजाब में लगी आग देखी और कत्लेआम की खबरें सुनीं। विभाजन की योजना से एक राह मिली और हम ने उसे स्वीकार कर लिया। हम ने उम्मीद की थी कि विभाजन अस्थायी होगा और पाकिस्तान लौट कर भारत में शामिल होगा।’ नेहरू की इस सोच पर आज हैरानी होती है, लेकिन यह तत्कालीन नेताओं के सामूहिक मानस की अभिव्यक्ति है।

    इस पृष्ठभूमि में विभाजन और उसके प्रभाव को लेकर फिल्मों में न के बराबर प्रयास हुए। साहित्य में विभाजन की स्थिति और पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति हुई। हिंदी, उर्दू, बाग्ला, सिंधी और पंजाबी भाषा के साहित्यकारों ने विभाजन को स्वीकार नहीं किया। वे विभाजन के अभिशप्त किरदारों को शब्दों के जरिए पन्नों पर उतारते रहे। आश्चर्य है कि उसे पर्दे पर लाने का सक्रिय प्रयास नहीं दिखता। न केवल भारतीय और पाकिस्तानी फिल्मकार विभाजन की विभीषिका के प्रति उदासीन रहे, बल्कि पश्चिम देशों में के फिल्मकारों ने भी भारतीय उपमहाद्वीप की इस विपदा को फिल्मों के विषय के रूप में नहीं चुना। विश्व युद्ध और दूसरी विपदाओं पर दर्जनों फिल्में बना चुके विदेशी फिल्मकार की निष्क्रियता भी उल्लेखनीय है। उन्होंने दक्षिण एशिया के इस भूभाग के विभाजन और विस्थापन से उपजी मानवीय त्रासदी पर ध्यान नहीं दिया।

    हिंदी फिल्मों में विभाजन के प्रति विरक्ति को गुलजार और श्याम बेनेगल ने अपने लेखों और इंटरव्यू में रेखांकित किया है। गुलजार ने उल्लेख किया है कि आजादी मिली, मगर वह पार्टीशन के दंगों में बहे खून से सनी थी। हवा में घृणा, विद्वेष और उदासी भरी थी। श्याम बेनेगल ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘सन् 1947 में विभाजन हुआ। हर भारतीय की स्मृति में वह इतिहास का सबसे बड़ा सदमा था। राष्ट्र का सिद्धांत हमारे लिए भले ही नया हो, मगर एक देश के रूप में हमारा अस्तित्व सदियों पुराना था। इस सदमे का भारी असर हुआ। दो राष्ट्र के सिद्धांत को धर्म से जोड़ कर पाकिस्तान का निर्माण किया गया। पाकिस्तान बन जाने के बाद दोनों तरफ से आबादी का विस्थापन और पलायन हुआ। भारत से मुसलमान पाकिस्तान गए। इस पलायन के बावजूद मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा देश में रह गया। वे अपने पूर्वजों की जमीन छोडऩे के लिए तैयार नहीं थे, मगर बाद में उनकी वफादारी पर शक किया गया। देश में रह गए मुसलमानों ने सीधा सवाल किया कि हम ने तो पाकिस्तान नहीं मांगा था फिर हम पर क्यों अविश्वास किया जा रहा है?’

    इस प्ररिप्रक्ष्य में ‘गर्म हवा’ का निर्माण निश्चित ही आवश्यक साहसिक कदम था।‘गर्म हवा’ के निर्माण के बाद आरंभ में इसे सेंसरशिप की मुश्किलों से गुजरना पड़ा। सेंसर बोर्ड के अधिकारियों की राय थी कि ऐसे विषय से हम बचें। इसके विपरीत फिल्मकार और सचेत सामाजिक एंव राजनीतिक एक्टिविस्ट विभाजन के बाद से दबे विषयों पर बातें करने के लिए तत्पर थे। छह महीनों तक फिल्म अटकी रही। दिल्ली में फिल्म के पक्ष में समर्थन जुटाने की कोशिश में राजनीतिक हलकों और सांसदों के बीच फिल्म का प्रदर्शन किया गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सूचना प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल की पहल और समर्थन से फिल्म सेंसर हुई और दर्शकों के बीच पहुंची।

    ‘गर्म हवा’ का आरंभ फिल्म को सही परिप्रेक्ष्य देता है। कास्टिंग रोल में आजादी का साल 1947 बताने के बाद भारत का अविभाजित नक्शा उभरता है। सबसे पहले मीात्मा गांधी की तस्वीर आती है। फिर माउंनबेटेन और लेडी माउंट बेटेन के साथ महात्मा गांधी दिखते हैं। आजादी के संघर्ष में शामिल पटेल, नेहरू, जिन्ना की तस्वीरों के बाद पर्दे पर सत्ता हस्तानंतरण की तस्वीरें, लाल किले से नेहरू का संबोधन, हर्ष और उल्लास की छवियों के बीच देश के विभाजित नक्शे को हम देखते हैं।

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