Dilip Kumar 100th Birth Anniversary: दस अंडों का आमलेट खाते थे दिलीप कुमार, ऐसे बने थे सिनेमा के ट्रेजडी किंग
Dilip Kumar 100th Birth Anniversary अगर हिन्दी सिनेमा के दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार जिंदा होते तो आज 11 दिसंबर को अपना 100वां जन्मदिन मना रहे होते। साल 1944 में फिल्म ज्वार भाटा से अपना करियर शुरू करने वाले ट्रेजडी किंग खाने के काफी शौकीन थे।

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई।Dilip Kumar 100th Birth Anniversary: दिलीप कुमार अभिनय के किसी स्कूल में नहीं गए, लेकिन भारत या विदेश में ‘मैथड एक्टिंग’ (पात्रों की तरह रहना और उनकी चाल-ढाल के मुताबिक काम करना) की शैली गढ़े जाने से पहले ही उन्होंने भावनाओं को व्यक्त करने का अपना तरीका विकसित किया। आज उनके जन्म की 100वीं वर्षगांठ पर हम बता रही हैं उनकी जिंदगी से जुड़े कुछ रोचक किस्से...
‘ज्वार भाटा’ थी पहली फिल्म
हिंदी सिनेमा में ट्रेजडी किंग के नाम से विख्यात दिलीप कुमार के जन्म की आज 100वीं वर्षगांठ है। अविभाजित भारत के पेशावर में 11 दिसंबर, 1922 को जन्मे यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार को फिल्मों में पहला मौका देविका रानी ने अपने प्रोडक्शन हाउस बांबे टाकीज के तहत बनने वाली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ (1944 में रिलीज) में दिया था। फिल्म के लिए उनका नाम यूसुफ से बदलकर दिलीप कुमार कर दिया गया।यह भारतीय सिनेमा में एक नई किंवदंती का शुभारंभ था।
इसके बाद लगा फिल्मों का तांता
उसके बाद उन्होंने ‘शहीद’ (1948), ‘अंदाज’ (1949), ‘देवदास’ (1955), ‘नया दौर’ (1957), ‘गंगा जमना’ (1961) से लेकर ‘आजाद’ (1955), ‘कोहिनूर’ (1961) तक दिलीप कुमार ने एक के बाद फिल्म में अभिनय को अकेले ही
पुनर्परिभाषित किया। ‘मुगल-ए-आजम’ (1960) और ‘राम और श्याम’(1967) से लेकर, ‘गोपी’ (1970), ‘क्रांति’ (1981), ‘शक्ति’ (1982), मशाल (1984) और ‘सौदागर’ (1991) तक दिलीप कुमार ने अपने शानदार करियर में अभिनय को उत्कृष्ट कला के रूप में परिष्कृत किया।
सबको भाया देवदास का अंदाज
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘देवदास’ पर साल 1936 में रिलीज कुंदनलाल सहगल अभिनीत फिल्म हिट रही थी। वहीं वर्ष 1955 मे रिलीज हुई ‘देवदास’ में दिलीप कुमार ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। हालांकि जब दिलीप कुमार को बिमल राय (जिन्हें प्यार से सब बिमल दा बुुुलाते थे) ने इस फिल्म के लिए संपर्क किया था तो उन्होंने के. एल. सहगल की फिल्म नहीं देखी थी, न ही उन्होंने शरतचंद्र लिखित उपन्यास पढ़ा था। दिलीप ने इस फिल्म के लिए उनसे थोड़ा समय मांगा। जिसके बाद उन्हें अनूदित उपन्यास दिया गया।
ठुकरा दी थी गुरुदत्त की कागज के फूल
उपन्यास की शुरुआत पढ़कर दिलीप कुमार को लगा कि यह किरदार दर्द और निराशा में डूबा है। यह प्यार में धोखा खाए युवाओं को यह यकीन दिलाएगा कि उस वेदना से निकलने में शराब पीना मददगार हो सकता है मगर जैसे-जैसे वह उपन्यास पढ़ते गए उन्हें लगा कि अगर उन्होंने अपने पात्र को समुचित तरीके से निभाया तो यह यादगार फिल्म बन सकती है। बिमल दा यह बात समझते थे कि दिलीप कुमार कहानी पर काम करने पर जोर देते थे। सो, उन्होंने नवेंदु घोष और राजेंद्र सिंह बेदी जैसे लेखकों के साथ उन्हें भी लेखन की प्रक्रिया में शामिल किया। ‘देवदास’ के संवादों को बेहद संवेदनशील, सहजता और सार्थक शब्दों के साथ लिखा गया।
देवदास के लिए भी पहले किया था इनकार
इस फिल्म में उनके साथ वैजयंतीमाला थीं, जिनके साथ उन्होंने बाद में कुल सात फिल्में की थीं, दर्शकों को यह जोड़ी पसंद भी आई। आधे मन से स्वीकारी फिल्म फिल्म ‘नया दौर’ को लेकर भी रोचक किस्सा है। जब बी. आर. चोपड़ा ने कहानी को पूरा किया तो उस पर राय लेने के लिए फिल्मकार महबूब खान के पास गए। वह स्वतंत्रता के बाद का दौर था और पटकथा लेखक राष्ट्रीय गौरव से ओतप्रोत सार्वभौमिक प्रासंगिकता वाली कहानी की खोज करके भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय फिल्म प्रतियोगिताओं में मंच देने के लिए प्रयासरत थे। महबूब साहब ने कहानी पढ़ी मगर उन्हें यह मनोरंजन लायक नहीं लगी।
ऐसे मिली थी नया दौर
चोपड़ा साहब ने तय कर लिया था कि अगर दिलीप कुमार इसमें काम करने को राजी हो गए तो वह फिल्म जरूर बनाएंगे। उन्होंने दिलीप कुमार को फिल्म का सार बताया। उन्हें आइडिया पसंद आया, लेकिन क्लाइमेक्स नहीं। हालांकि यह बात उन्होंने अपने तक ही रखी थी। दरअसल वह भी इस फिल्म को स्वीकार नहीं करने वाले थे। उस समय दिलीप कुमार ज्ञान मुखर्जी की फिल्म करने की स्वीकृति दे चुके थे, जिसे दिलीप कुमार को ही ध्यान में रखकर लिखा गया था। उन्होंने चोपड़ा साहब से कहा कि उन्हें आइडिया पसंद है, लेकिन दो फिल्मों पर एक साथ काम करना संभव नहीं होगा।
हिट रही थी ‘नया दौर’
उन्होंने बताया कि इसी वजह से उन्होंने गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ करने से इनकार कर दिया था। यह सुनकर चोपड़ा साहब थोड़ा परेशान हुए, लेकिन इंतजार करने के लिए सहमत हो गए। कहते हैं कि हर फिल्म की अपनी किस्मत होती है। आर्थिक दिक्कतों की वजह से ज्ञान मुखर्जी की फिल्म शुरू नहीं हो पाई। ऐसे में दिलीप कुमार ‘नया दौर’ के लिए तैयार हो गए। इस फिल्म के दौरान बी. आर. चोपड़ा के भाई यशराज चोपड़ा और धरम चोपड़ा से उनकी अच्छी दोस्ती हो गई। सभी खाने के बेहद शौकीन थे। यश चोपड़ा को दिलीप कुमार की जरूरतों का ध्यान रखने के लिए कहा गया था।
आमलेट खाने के थे शौकीन
जल्द ही उन्हें समझ आ गया कि दोनों की आदतें एक समान है। दोनों ही आमलेट खाने के शौकीन थे। वह दस अंडों का आमलेट बनाकर खाते थे। खैर ‘नया दौर’ बाक्स आफिस पर हिट रही। बी. आर. चोपड़ा ने फिल्म के सौवें दिन बांबे (अब मंबई) के एक सिनेमाघर में महबूब खान को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया। यह महबूब खान की उदारता थी कि उन्होंने आमंत्रण को स्वीकार किया और दर्शकों के सामने यह भी बताया कि वह फिल्म को लेकर कितने गलत थे।
‘नया दौर’ के गीत भी सुपहिट रहे थे। उसका गीत ‘यह देश है वीर जवानों का’ आज भी राष्ट्रीय पर्वों पर सुनाई दे जाता है। बहरहाल दिलीप कुमार उन अभिनेताओं में से रहे जिन्होंने हमेशा अपने सिद्धांतों पर काम किया और अपने काम को गंभीरता से लिया। उनके इन्हीं गुणों ने हिंदी सिनेमा को बुलंदियों पर पहुंचाया।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।