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    अलविदा धर्मेंद्र: वो सुपरस्टार जिसने बदला हिंदी सिनेमा का 'धरम', बहुत कुछ सिखाती है He-Man की कहानी

    Updated: Mon, 24 Nov 2025 09:35 PM (IST)

    Dharmendra Death: एक शायर...एक रोमांटिक हीरो...एक राजनेता...एक अभिनेता....एक परिवार का पिता...एक पति और एक सुपरस्टार, अनगिनत यादें और अनगिनत किरदारों को निभाकर धर्मेंद्र अपने पीछे वो विरासत छोड़ गए हैं, जिसे हिंदी सिनेमा सदियों तक याद रखेगा।

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    धर्मेंद्र: जिसने बदला हिंदी सिनेमा का 'धरम'

    विनोद अनुपम, नई दिल्ली। शोले के वीरू का एक्शन लुभाता है...तो रोमांस और संवादों की भी अपनी अदा है। एक्शन, रोमांस और कामेडी तक लगभग हर जॉनर में अपनी अदाकारी से अमिट छाप छोड़ने वाले धर्मेंद्र अपनी मोहक मुस्कान और सहज स्वभाव से जुड़ी स्मृतियों के साथ सदैव प्रशंसकों के हृदय में धड़कते रहेंगे। चलिए जानते हैं धर्मेंद्र के जीवन के कुछ अनसुने और अनकहे किस्से...

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    जब अवॉर्ड मिला तो रो पड़े थे धर्मेंद्र

    कहते हैं धर्मेंद्र को जब 62 वर्ष की उम्र और 37 वर्ष की अभिनय यात्रा के बाद 1997 में पहले अवार्ड के रूप में फिल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड पहुंचे तो वो किसी नए अभिनेता की तरह रो पड़े थे। इसके पहले सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्मफेयर अवार्ड के लिए उन्हें कई बार नोमिनेशन तो मिला, लेकिन फिल्मफेयर तो क्या, कोई भी अवार्ड उनके हाथों तक नहीं पहुंच सका।

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    समझ सकते हैं, ‘सत्यकाम’, ‘बंदिनी’, ‘चुपके चुपके’, ‘दोस्त’ जैसी फिल्मों के बावजूद हिंदी सिनेमा के लिए ये कितने अंडररेटेड अभिनेता रहे, वाकई यह धर्मेंद्र नहीं, हिंदी सिनेमा की सीमा है, जो उस अभिनेता की क्षमता को पहचानने से चूकती रही, जो 88 वर्ष की उम्र में भी आलिया भट्ट और रणवीर सिंह जैसे ऊर्जावान युवा और शबाना आजमी जैसी अभिनेत्री के सामने फिल्म ‘राकी और रानी की प्रेम कहानी’ में दर्शकों के दिलों पर अपनी पहचान छोड़ गया।

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    सुरैया को देख अभिनेता बनने की ठानी

    धर्मेंद्र हिंदी सिनेमा में स्टार बनने नहीं आए थे, पंजाब के एक गांव में खेतों के बीच दौड़ लगाने वाला यह नौजवान अभिनेता बनने आया था। कहते हैं सुरैया की फिल्म ‘दिल्लगी’ उन्होंने 40 बार से भी अधिक देखी और ठान लिया कि अभिनेता ही बनना है। मुंबई आ गए, टिकने के लिए मजदूरी की और फिर फिल्मफेयर के एक टैलेंट सर्च में चुन लिए गए, उल्लेखनीय है कि बाद के दिनों में इसी माध्यम से राजेश खन्ना भी आए।

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    इस चयन के बाद धर्मेंद्र को एक फिल्म मिलनी थी, लेकिन फिल्म तो नहीं मिली, आगे बढ़ने का हौसला जरूर मिला। कोशिश करते-करते, उनकी मुलाकात अर्जुन हिंगोरानी से हुई और उन्होंने अपनी फिल्म ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ में बलराज साहनी और कुमकुम के साथ नायक के रूप में साइन कर लिया। यह धर्मेंद्र के व्यक्तित्व की विशेषता थी कि अर्जुन हिंगोरानी की फिल्मों के वह स्थायी नाम हो गए।

    जमीन से गहरा जुड़ाव

    धर्मेंद्र को करीब से जानने वाले कहते हैं कि हिंदी सिनेमा की चकाचौंध के बीच भले ही उन्होंने 60 से अधिक वर्ष बिताए, लेकिन अपना गांव, अपने पंजाब को उन्होंने अपने साथ बसा रखा था। गांव की ईमानदारी और सहजता उनके साथ हमेशा बनी रही। हाल के दिनों में जब वह टीवी के लाइव शो में अतिथि के रूप में आने लगे थे तो यही सहजता और हाजिरजवाबी दर्शकों को मुग्ध करती थी, कहीं से भी न तो अपने दर्शकों और ना ही अपने मेजबान को वह अपने कालजयी स्टारडम का अहसास होने देते थे। यही सहजता उनके अभिनय में भी बनी रही, इसीलिए हर तरह के निर्देशक उनके साथ काम करने में सहज रहे। अर्जुन हिंगोरानी के साथ तो उन्होंने शुरुआत की।

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    बाद के दिनों में एक ओर बिमल राय, चेतन आनंद, असित सेन, राजेंद्र सिंह बेदी, मोहन कुमार, विजय आनंद, यश चोपड़ा, हृषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी जैसे भावनात्मक कहानियों के लिए प्रतिष्ठित निर्देशकों की पहली पसंद बने रहे, वहीं राज खोसला, प्रमोद चक्रवर्ती, प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, रमेश सिप्पी जैसे निर्देशकों ने भी उन्हें सरमाथे रखा। धर्मेंद्र निर्देशकों के लिए कितने सहज थे, यह इससे भी समझ सकते हैं कि लगभग हर बड़े निर्देशक ने कई बार उनके साथ काम किया।

    हर जॉनर के महारथी

    वाकई यह धर्मेंद्र के अभिनय की व्यापकता ही थी कि एक ओर ‘यादों की बारात’, ‘शोले’, ‘मेरा गांव मेरा देश’,‘धर्मवीर’,‘जुगनू’,‘कहानी किस्मत की’, ‘लोफर’ जैसी फिल्मों के कारण एक्शन हीरो माना जा रहा था, दूसरी ओर शुरुआती दौर की ‘अनुपमा’, ‘फागुन’ और ‘बंदिनी’ जैसी फिल्मों को छोड़ भी दें तो ‘एक महल हो सपनों का’, ‘झील के उस पार’, ‘दिल्लगी’, ‘दोस्त’ जैसी फिल्में उनके भावनात्मक अभिनय का मुरीद बनाती थीं। हृषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशक के साथ उन्होंने एक ओर ‘अनुपमा’ और ‘सत्यकाम’ जैसी गंभीर फिल्में कीं तो दूसरी ओर ‘चुपके चुपके’ में उनके अभिनय का अलग ही रंग दिखा।

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    1983 में मतलब 48 वर्ष की उम्र में उनकी तीन फिल्में आईं, एक थी राज कुमार कोहली के निर्देशन में कामेडी ‘नौकर बीवी का’, दूसरी थी राज एन सिप्पी के निर्देशन में एक्शन ‘कयामत’ और तीसरी थी ‘पाकीजा’ के बाद कमाल अमरोही की महत्वाकांक्षी फिल्म ‘रजिया सुल्तान’, जिसमें उन्होंने हब्शी गुलाम जमालुद्दीन याकूत की भूमिका निभाई थी। यह था धर्मेंद्र पर उनके निर्देशकों का विश्वास। ‘शालीमार’ जैसे इंटरनेशनल प्रोजेक्ट के साथ जब कृष्णा शाह भारत आए तो वह मुख्य भूमिका के लिए धर्मेंद्र पर ही भरोसा कर सके।

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    शोले ने बदली जिंदगी

    शोले धर्मेंद्र की सबसे सफल फिल्मों में है। इस फिल्म में वह पहले ठाकुर का रोल करना चाहते थे, पर हेमा मालिनी के प्रति आकर्षण का ही असर था कि वह वीरू के रोल के लिए तैयार हो गए। फिल्म की शूटिंग के दौरान ही उनकी प्रेम कहानी परवान चढ़ी। दोनों ने साथ में प्रतिज्ञा, दिल्लगी, पत्थर और पायल समेत कई हिट फिल्में दीं। वर्ष 1980 में उन्होंने हेमा से शादी की।

    परिवार और गांव के चहीते धर्मेंद्र

    पंजाब के लुधियाना जिले के नसराली गांव में केवल कृष्ण व सतवंत कौर के घर 8 दिसंबर, 1935 को जिस बालक का जन्म हुआ, उसे उन्होंने नाम दिया धरम। लुधियाना के सरकारी स्कूल में आरंभिक पढ़ाई-लिखाई हुई। बाद में मेहनत और जुनून से धरम बालीवुड में धर्मेंद्र बनकर ऐसा छाए कि पूरे गांव को उन पर गर्व हुआ।

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    राजनीति की संक्षिप्त पारी भी उन्होंने खेली और राजस्थान की बीकानेर सीट से वर्ष 2004 में लोकसभा चुनाव जीता। वर्ष 2012 में उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया। फिल्मों से दूरी बनाने के बाद उन्हें जिस काम में सुकून मिलता था वो थी कृषि। अपने फार्म हाउस में फल-फूल उगाने की तस्वीरें वह प्रशंसकों से इंटरनेट मीडिया पर साझा करते रहते थे।

    शिष्टाचार से हर दिल को छुआ

    धर्मेंद्र जितने सहज और सरल वास्तविक जीवन में थे, वही उनके अभिनय में प्रतिबिंबित होता था। धर्मेंद्र का व्यक्तित्व ऑनस्क्रीन हो या ऑफस्क्रीन, कभी अपने स्टारडम या अपनी खूबसूरती से आतंकित नहीं करता था। शायद यही वजह थी कि उस दौर में पूरा मध्यवर्ग उनसे जुड़ाव महसूस करता था। धर्मेंद्र शानदार व्यक्तित्व के स्वामी थे।

    एक बार दिलीप साहब ने कहा था, कभी भगवान से मिला तो कहूंगा अगले जन्म में मुझे धर्मेंद्र की तरह खूबसूरत बनाना। धर्मेंद्र ने हिंदी सिनेमा को सिर्फ फिल्में ही नहीं दीं, शिष्टाचार और स्वभाव भी दिया। आज उनकी फिल्मों को ही नहीं और उनके अभिनय को ही नहीं, उनके स्वभाव और सहजता को भी स्मृतियों में बनाए रखने की आवश्यकता है।

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    सदाबहार नायक रहे धर्मेंद्र

    धर्मेंद्र को न तो जुबली कुमार कहा गया ना ही सुपरस्टार, न ही हिट मशीन, जबकि यदि धर्मेंद्र की फिल्मोग्राफी पर निगाह डालें तो लगभग तीन दशक तक धर्मेंद्र की फिल्में बाक्स आफिस पर राज करती रहीं। लगभग 200 फिल्मों में उनकी 100 से अधिक फिल्में हिट मानी जा सकती हैं, ये हिट 60-70 के दशक की हैं, जब फिल्में 25 सप्ताह चलने पर ही हिट मानी जाती थीं। धर्मेंद्र की फिल्मों की खासियत उनकी रिपीट वैल्यू था, उस दौर में ही नहीं आज भी उनकी ‘चुपके चुपके’,‘शोले’,‘सीता और गीता’ जैसी फिल्में देखी जा रही हैं।

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    ‘बंदिनी’ और ‘सत्यकाम’ जैसी फिल्में तो किसी टेक्स्ट बुक की तरह बार बार देखी जाती हैं। हिंदी सिनेमा में शीर्ष पर रहते हुए भी वह अपनी माटी अपनी भाषा से कभी दूर नहीं रह सके, पंजाबी सिनेमा की बेहतरी के लिए उन्हें जब भी अवसर मिला, ‘दो शेर’, ‘दुःख भंजन तेरा नाम’,’ तेरी मेरी इक जिंदड़ी’ आदि फिल्मों में अपना योगदान देने से नहीं चूके।

    एक शायर...एक रोमांटिक हीरो...एक राजनेता...एक अभिनेता....एक परिवार का पिता...एक पति और एक सुपरस्टार, अनगिनत यादें और अनगिनत किरदारों को निभाकर धर्मेंद्र अपने पीछे वो विरासत छोड़ गए हैं, जिसे हिंदी सिनेमा सदियों तक याद रखेगा।

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