50 साल बाद भी लोगों के दिलों में बसती है धर्मेंद्र-अमिताभ की 'चुपके चुपके', कॉमेडी में कोई नहीं दे पाया टक्कर!
बॉलीवुड की कुछ फिल्मों को सदाबहार का टैग दिया जाता है। इसमें चुपके चुपके फिल्म का नाम भी शामिल है। अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र की यह फिल्म आज भी लोगों के दिलों में बसती है। 50 साल बाद ही इसके किरदार और कहानी की चर्चा सिनेमा लवर्स के बीच चलती है। आइए इस फिल्म के बारे में विस्तार से जानते हैं।
एंटरटेनमेंट डेस्क, मुंबई। 20वीं शताब्दी के सातवें दशक के खून-खराबे वाले एक्शन के दौर में ताजा हवा के शीतल झोंके की तरह आई थी ऋषिकेश मुखर्जीकी ‘चुपके चुपके’। स्वस्थ हास्य और परिवारबोध से परिपूर्ण क्लासिक सिनेमा का उदाहरण बन गई इस फिल्म के 50 साल पूरे होने पर संदीप भूतोड़िया का आलेख...
वर्ष 1975 में फिल्म निर्माण की शैली के लिहाज से हिंदी सिनेमा जैसे किसी दोराहे पर था। एक तरफ ‘दीवार’ थी तो दूसरी तरफ ‘जय संतोषी मां’, इसी तरह ‘मौसम’ और ‘रंगा खुश’… बस सिनेमाई विरोधाभासों के नाम गिनते जाइए। इसका सबसे बेहतर उदाहरण थीं दो फिल्में, दोनों में ही भारतीय सिनेमा के दो सबसे बड़े सितारे थे, मगर उनकी भूमिकाओं में इतनी भिन्नता थी कि यह विश्वास करना मुश्किल है कि वे एक ही समय की कल्पना थीं!
यह वह वक्त था जब अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र की फिल्म ‘शोले’ ने दर्शकों को अपनी हिंसा और उग्रता से स्तब्ध कर दिया था। जबकि ‘शोले’ के चार महीने पहले, अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र (साथ में ‘शोले’ में उनकी सह अभिनेत्री जया भादुड़ी भी) एक और फिल्म में थे, जो मिजाज में बिल्कुल अलग थी। शुरू से अंत तक हंसाने वाली, ‘चुपके चुपके’ अब भारतीय सिनेमा की कॉमेडी क्लासिक मानी जाती है, जो इस महीने अपने प्रथम प्रदर्शन की 50वीं वर्षगांठ (11 अप्रैल, 1975) मना रही है।
चुपके चुपके फिल्म लेकर आई बदलाव
‘चुपके चुपके’ उस दौर में प्रदर्शित हुई थी जब ‘शोले’ और ‘दीवार’ मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा को परिभाषित कर रही थीं। हल्की-फुल्की, संगीत आधारित नाटकीय किस्सागोई पर एक्शन भरे ब्लॉकबस्टर्स भारी पड़ने लगे थे। इस बदलते परिदृश्य में, ऋषिकेश मुखर्जीकी ‘चुपके चुपके’ अपनी हल्की-फुल्की सिचुएशनल कॉमेडी और स्वस्थ हास्य से ताजगी भरा बदलाव लेकर आई।
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Photo Credit- IMDB
फिल्म की कहानी एक नवविवाहित जोड़े परिमल (धर्मेंद्र) और सुलेखा (शर्मिला टैगोर) के इर्द-गिर्द घूमती है। परिमल सुलेखा के जीजाजी (ओमप्रकाश) को मूर्ख बनाने के लिए एक मजाकिया परिस्थिति उत्पन्न करता है, जिन्हें सुलेखा बहुत सम्मान देती है। कहानी सरल सी लगती है, लेकिन ‘चुपके चुपके’ को जो बात खास बनाती है वह यह कि यह फिल्म अपने पात्रों, हास्य की बारीकियों और मानवीय संबंधों को कैसे संभालती है। एक अर्थ में, ‘चुपके चुपके’ इस विचार की प्रतिपादक है कि हंसी वह गोंद है जो परिवारों को एक साथ जोड़े रखता है।
फिल्म की इन चीजों को किया गया था पसंद
मध्यवर्गीय भारतीय जीवन को एक कोमल लेकिन हास्यपूर्ण स्पर्श के साथ दर्शाने में कुशल ऋषिकेश मुखर्जी की ‘चुपके चुपके’ को इसकी अद्भुत स्टारकास्ट के लिए याद किया जाता है, जिनमें से कई ने इसे कला और कामिक टाइमिंग का बेहतरीन मिश्रण बना दिया। धर्मेंद्र, जो ‘रखवाला’ और ‘शोले’ जैसी फिल्मों में अपनी दमदार छवि के लिए जाने जाते हैं, ने परिमल को आकर्षण और संवेदनशीलता के मिश्रण के साथ निभाया। प्रेम में पागल आदमी की उनकी भूमिका ने साबित कर दिया कि उनकी अभिनय सीमा एक्शन भूमिकाओं से कहीं परे है, जिनसे वे अक्सर जुड़े होते हैं।
दूसरी ओर, शर्मिला ने अपने पात्र में ऐसी गरिमा डाली जो धर्मेंद्र के हल्के-फुल्के अभिनय को संतुलित करती थी। परिमल के दोस्त के रूप में फिल्म में अमिताभ बच्चन की हास्य प्रतिभा भी दिखाई देती है, जो उस कालखंड में एंग्री यंगमैन की छवि में आ रहे थे। अनुभवी अभिनेता ओम प्रकाश ने शर्मिला के जीजाजी के रूप में सहज प्रदर्शन किया। जया भादुड़ी, असरानी, डेविड, लिली चक्रवर्ती सहित केश्टो मुखर्जी (जिनकी फिल्म में कैमियो भूमिका थी) ने हास्य टाइमिंग और सहज अभिनय के साथ इसे सदाबहार फिल्म बना दिया।
चुपके चुपके में दिखाई गई थी ऐसी कहानी
‘आनंद’ (1971) और ‘बावर्ची’ (1972) जैसी फिल्मों के साथ ऋषिकेश मुखर्जी हमेशा ही गर्मजोशी भरी अनूठी कहानियां फिल्माने के लिए जाने जाते थे। ‘चुपके चुपके’ में, उन्होंने पारिवारिक विचार को गलतफहमी, शरारत और हास्यपूर्ण स्थितियों के जाल में बदल दिया। स्क्रिप्ट का कुशल प्रबंधन, कमाल की टाइमिंग और कलाकारों को खिलंदड़े मिजाज बनाए रखने की छूट ऐसी फिल्म में परिणित हुई जो क्लासिक है।
इसके अतिरिक्त, गुलजार द्वारा लिखित फिल्म के संवाद चुटीले होने के साथ पात्रों के व्यक्तित्व को भली भांति स्थापित करते हैं। यहां तक कि साधारण संवादों को भी हास्य की भावना से तैयार किया गया है, जिससे प्रत्येक दृश्य एक आनंददायक अनुभव बन जाता है। विशेष रूप से, फिल्म में शुद्ध हिंदी का उपयोग (धर्मेंद्र और ओम प्रकाश के बीच) सिनेमा का पाठ बन गया है। यहां भाषा पर अंग्रेजी की तर्कहीनता बनाम हिंदी की तर्कसंगतता के मजाक आज के समय में विशेष रूप से प्रासंगिक हैं।
अमिताभ और धर्मेंद्र की जोड़ी ने जीता दिल
जयवंत पठारे के नेतृत्व में फिल्म की सिनेमैटोग्राफी ने इसके दृश्य स्वरूप को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ‘चुपके चुपके’ मुख्य रूप से इनडोर सेट्स में शूट की गई थी और सिनेमैटोग्राफी ने पात्रों के चारों ओर गर्मजोशी और परिचय भाव को अच्छी तरह से व्यक्त किया। सचिन देव बर्मन द्वारा रचित फिल्म का संगीत आनंददायक है। गीत ‘चुपके चुपके चल री पुरवइया’ की धुन जैसे फिल्म के हल्के-फुल्के रोमांटिक माहौल को कैद करती है। इसके अलावा, परिचय में मोहम्मद रफी-किशोर कुमार का डुएट ‘सारेगामा’ धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की अद्भुत जोड़ी के साथ-साथ फिल्म के टोन को स्थापित करता है।
Photo Credit- Jagran
आज तेज गति वाले फिल्म निर्माण और डिजिटल कंटेंट के युग में ‘चुपके चुपके’ यह याद दिलाती है कि कैसे एक कुशल निर्देशक, काबिल कलाकार और कहानी का बढ़िया ट्रीटमेंट एक ऐसा सिनेमाई अनुभव रच सकते हैं जो कालातीत हो। पीछे मुड़कर देखें तो, भले ही इसे ‘शोले’ और ‘दीवार’ के समान व्यापक व्यावसायिक सफलता नहीं मिली हो, मगर ‘चुपके चुपके’ ने हमारे दिलों में खास जगह और वह खास प्रशंसक वर्ग बना लिया है, जो इसे बार-बार देखते हैं।
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