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Lok Sabha Election: पलायन की पीड़ा सीने में समेटे सुबक रहे उत्तराखंड के पहाड़

दैनिक जागरण देहरादून कार्यालय में राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया। इसमें पहाड़ पलायन की पीड़ा को लेकर सवालों की थाह लेने और समाधान ढूंढने के लिए मंथन हुआ।

By Sunil NegiEdited By: Published: Thu, 28 Mar 2019 08:29 PM (IST)Updated: Thu, 28 Mar 2019 09:55 PM (IST)
Lok Sabha Election: पलायन की पीड़ा सीने में समेटे सुबक रहे उत्तराखंड के पहाड़
Lok Sabha Election: पलायन की पीड़ा सीने में समेटे सुबक रहे उत्तराखंड के पहाड़

देहरादून, सुमन सेमवाल। उत्तराखंड के पहाड़ पलायन की पीड़ा को सीने में समेटे अकेले सुबक रहे हैं। वर्ष 2001 में जहां मानवविहीन हो चुके गांवों की संख्या 968 थी, वह आज 1700 को पार कर गई है। सैकड़ों की संख्या में गांव खाली होने के कगार पर खड़े हैं। उत्तराखंड में राज्य गठन के बाद तीन लोकसभा चुनाव हो चुके हैं और चौथा चुनाव चल रहा है। अफसोस कि पलायन का मुद्दा अब तक के चुनावों में हमेशा गायब ही रहा। क्या इस चुनाव में पलायन का मुद्दा जोर-शोर से उठाया जाना चाहिए और यह मुद्दा आखिर क्यों सबसे बड़ा होना चाहिए? इन्हीं सवालों की थाह लेने और समाधान ढूंढने के लिए दैनिक जागरण ने राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया।

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विभिन्न क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले बुद्धिजीवियों और जागरूक वर्ग के लोगों ने इस पर गहन मंथन किया। जो कारण निकलकर सामने आए, उससे साफ हो गया कि पलायन से अधिक उसके कारण बड़े हैं। पलायन एक सतत् प्रक्रिया है और विकास की खातिर यह लाजिमी भी है। मगर, उत्तराखंड में पलायन की वजह मजबूरी है, बेरोजगारी है, शिक्षा व स्वास्थ्य का समुचित अभाव है। ...और भी कई कारण हैं, जिनसे पहाड़ों की गोद से सब कुछ धीरे-धीरे फिसल रहा है। 

एक करोड़ एक लाख से अधिक आबादी वाले उत्तराखंड में महज 35 लाख लोग ही पर्वतीय क्षेत्रों में रह गए हैं, जबकि 13 में से राज्य के नौ जिले पूरी तरह से पर्वतीय हैं। इसके अलावा इस बात पर भी बल दिया गया कि उत्तराखंड में वनाधिकार कानून लागू करने की सख्त जरूरत है। सामाजिक क्षेत्र में काम कर रहे प्रतिभागियों ने अपने अनुभव के आधार पर बताया कि किस तरह लोगों को स्थानीय संसाधनों का उपभोग करने के लिए भी अनुमति लेने की जरूरत पड़ रही है। कानून की जटिलताओं के चलते भी लोग पहाड़ों से विमुख होते चले जा रहे हैं।

5000 की आमदनी से कैसे होगा गुजारा

भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी व उत्तराखंड पलायन आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. एसएस नेगी ने बताया कि पर्वतीय क्षेत्रों में प्रति परिवार की औसत आमदनी महज पांच हजार रुपये महीना है। ऐसे में वह दो जून की रोटी का जुगाड़ भी बमुश्किल कर पाते हैं, तो बच्चों की बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य का प्रबंधन कर पाना दूर की कौड़ी है। यदि इस तरह के परिवार पलायन नहीं करेंगे तो क्या करेंगे। सरकारी सुविधाएं अधिकतर 250 व इससे अधिक की आबादी वाले गांवों तक सिमटी हैं, जबकि बड़ी संख्या 20-25 व 50 की आबादी वाले गांव की है।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी घट रहा

गति फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष अनूप नौटियाल ने कहा कि वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2006 में उत्तराखंड की विधानसभा सीटों के परिसीमन में 40 में से छह सीटें घट गईं। अब पहाड़ में 34 सीटें रह गई हैं और मैदान में 36 सीटें हो गई हैं। सवाल भविष्य का है, जब वर्ष 2026 में परिसीमन होगा। क्योंकि घटती आबादी में उत्तराखंड की राजनीतिक में पर्वतीय प्रतिनिधित्व के और घटने के आसार पैदा होने लगे हैं। पलायन के बड़े स्वरूप में भी देखें तो बेहद बड़े हिमालयी क्षेत्र में देश की महज चार फीसद ही आबादी शेष है। इसी कारण संसदीय सीटों की संख्या में हिमालयी राज्यों का स्थान महज पांच फीसद है।

परिवार टूट रहे, घट रही खेती

दून यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के डीन डॉ. एचसी पुरोहित ने पलायन को घटती कृषि व खेतों की कम उर्वरा क्षमता से भी जोड़ा। उन्होंने कहा कि रोजगार आदि की खातिर परिवारों का विघटन हो रहा है और कम उर्वरा क्षमता वाले पहाड़ों के खातों में लोग कृषि कार्य से मुंह मोडऩे लगे हैं। ऐसे में यहां के लोगों के पास पहाड़ों से निकलकर मैदानी शहरों में छोटी-मोटी नौकरी करने का ही विकल्प बच गया है। ऐसा नहीं है कि बेहतर नौकरी पलायन का कारण बन रही है, पहाड़ों से टूट रहे अधिकतर लोग मैदानी शहरों में किसी तरह गुजर बसर कर रहे हैं।

कृषि व पर्यटन की उपेक्षा से जड़ों से उखड़ रहे लोग

सामाजिक कार्यकर्ता द्वारिका प्रसाद सेमवाल का कहना है कि राज्य गठन के बाद कृषि व पर्यटन के सेक्टर में जिस तरह का काम होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। आज भी प्रदेश में ऐसे उदाहरण हैं, जहां इस सेक्टर में कई लोग बेहतर काम कर रहे हैं और उन्होंने पलायन को आईना दिखाने का भी काम किया। हालांकि, यह प्रयास व्यक्तिगत स्तर के हैं और सरकारी स्तर पर समग्र प्रयास के बिना खाली होते पहाड़ों को थामना संभव नहीं।

छोटे-छोटे प्रयासों का अभाव

पर्वतीय क्षेत्रों में करीब 20 वर्षों से काम कर रहे समाजशास्त्री लोकेश ओहरी का कहना है कि उत्तराखंड में सरकार बड़े-बड़े ख्वाब दिखाती है, मगर वह धरातल पर नहीं उतर पाते हैं। इससे बेहतर हो कि छोटे स्तर पर बड़ी संख्या में प्रयास किए जाएं। स्थानीय संसाधनों के आधार पर रोजगार दिलाने के प्रयास किए जाएं तो पलायन को रोका जा सकता है। इससे इतर जहां भी लोगों को अवसर मिलेगा, वह पलायन करते रहेंगे।

जो मजबूर, वही रुके गांवों में

सुविधाविहीन गांवों में वही लोग रुके हैं, जो मजबूर हैं और अन्यत्र नहीं बस सकते। यह कहना है कि दून यूनिवर्सिटी के मॉस कम्युनिकेशन के प्रवक्ता डॉ. हर्ष डोभाल का। ऐसे लोग अधिकतर ऊंचाई वाले इलाकों में अधिक हैं, हालांकि इनका जीवन बेहद दुरूह होता जा रहा है।

नीति का अभाव बढ़ा रहा पलायन

स्वराज अभियान से जुड़े तुषार रावत का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों के हिसाब से नीति नहीं बनाई जा रही है। जिसके चलते कोई भी योजना धरातल पर प्रभावी साबित नहीं हो पाती है। नीति में बदलाव किए बिना पलायन पर अंकुश लगा पाना संभव नहीं हो पाएगा।

नीति-नियंता सभी मैदानों में जमे

राज्य निर्माण आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती का कहना है कि ग्राम प्रधान से लेकर, विधायक, मंत्री व सांसदों के घर मैदानी क्षेत्रों में हैं। वहीं, सरकारी शिक्षकों से लेकर तमाम अधिकारी भी मैदानों में ही बसे हैं। यही वजह है कि पहाड़ों का विकास नहीं हो पा रहा और लोगों को वहां से पलायन करना पड़ रहा है।

संसाधनों के विपणन के इंतजाम नहीं

पर्वतीय क्षेत्रों के संसाधनों को बाजार मुहैया कराने का काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता देवेश का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में तमाम प्राकृतिक संसाधन हैं, मगर उनके विपणन (मार्केटिंग) की व्यवस्था न होने के चलते लोग पहाड़ों से विमुख हो रहे हैं।

रोजगार के बिना पलायन पर अंकुश संभव नहीं

राजकीय पूर्व माध्यमिक शिक्षक संघ के उपाध्यक्ष सतीश घिल्डियाल रोजगार के अभाव को पलायन का सबसे बड़ा कारण मानते हैं। उनका कहना है कि बेहतर रोजगार की जगह लोग दो जून तक की रोटी के जुगाड़ के लिए अपनी जड़ों से उखड़ने को मजबूर हैं। पहाड़ों में न तो उद्योग हैं, न ही स्वरोजगार की पर्याप्त व्यवस्था।

पलायन रोकने के सुझावों पर भी अमल नहीं

राज्य माल और सेवा कर विभाग के सेवानिवृत्त संयुक्त आयुक्त एसपी नौटियाल का कहना है कि पलायन आयोग के सुझावों तक पर काम न हो पाना खेद की बात है। अब तक आयोग को 222 सुझाव प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें से 40 सुझाव अकेले उनके हैं। यदि सरकार वास्तव में पलायन रोकना चाहती है तो सुझावों पर अमल जरूरी है।

लोगों ने इस तरह किया पलायन

  • 35.69 फीसद लोग अपने मूल स्थान से प्रदेश के विभिन्न जिलों में बसे।
  • 28.72 फीसद लोग प्रदेश से बाहर कर चुके पलायन।
  • 19.46 फीसद लोग नजदीकी कस्बों में शिफ्ट हुए।
  • 15.18 फीसद लोगों ने जिला मुख्यालयों में किया पलायन।
  • 0.96 फीसद लोग देश से बाहर कर चुके पलायन।

(नोट: यह आंकड़ा पलायन कर चुके कुल लोगों में से है।)

पलायन से निर्जन हो चुके गांव

  • जिला--------गांवों की संख्या
  • पौड़ी---------------------517
  • अल्मोड़ा----------------162 
  • बागेश्वर----------------150
  • टिहरी-------------------146
  • हरिद्वार---------------132
  • चंपावत----------------119
  • चमोली----------------117
  • पिथौरागढ़--------------98
  • रुद्रप्रयाग---------------93
  • उत्तरकाशी-------------83
  • नैनीताल----------------66
  • ऊधमसिंहनगर---------33
  • देहरादून----------------27

 पलायन रोकने को दिए सुझाव

  • डॉ. एसएस नेगी (उपाध्यक्ष, उत्तराखंड पलायन आयोग) का कहना है कि विकास की योजनाओं को पहाड़ पर केंद्रित करना जरूरी है। इसके लिए नीति में भी बदलाव करने की जरूरत है। पहाड़ की परिस्थिति अलग हैं, लिहाजा इसी के अनुरूप योजनाएं लागू होनी चाहिए।
  • तुषार रावत (स्वराज अभियान) का कहना है कि नेतागणों को चाहिए कि स्थानीय जरूरतों के हिसाब से नीतियां बनाएं। सबसे खास बात यह कि पर्वतीय क्षेत्रों के हिसाब से नीति तैयार की जाए। इसी तरह पलायन को रोका जा सकता है।
  • लोकेश ओहरी (समाजशास्त्री) का कहना है कि होम-स्टे योजना का विस्तार करने की जरूरत है। इसके लिए अधिक संसाधनों की जरूरत भी नहीं पड़ती है और लोगों को उनके घर पर ही रोजगार मिलने लगेगा। इस दिशा में काम होना चाहिए।
  • अनूप नौटियाल (संस्थापक अध्यक्ष, गति फाउंडेशन) का कहना है कि सरकार फैसिलिटेटर बनकर काम करे, इंप्लीटेटर की तरह नहीं। सरकार खुद जुट जाने की जगह लोगों को जोड़े। यहां काम करने वालों की कमी नहीं है। इस तरह स्वरोजगार के नए अवसर पैदा होंगे।
  • प्रोफेसर एचसी पुरोहित (डीन, स्कूल ऑफ मैनेजमेंट, दून यूनिवर्सिटी) का कहना है कि सर्विस सेक्टर से संबंधित खासकर शिक्षण संस्थानों को पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ावा देने की जरूरत है। इसके अलावा निचले स्तर के कार्मिकों के लिए ब्लॉक कैडर निर्धारित किया जाना चाहिए।
  • डॉ. हर्ष डोभाल (प्रवक्ता मास कम्युनिकेशन, दून यूनिवर्सिटी) का कहना है कि  सरकारी सिस्टम से जुड़े हर व्यक्ति को जिम्मेदार होना पड़ेगा। यह प्रवृत्ति छोड़ने की जरूरत है कि पहाड़ों में तैनात कर्मी दून या अन्य मैदानी क्षेत्रों से आवागमन करें। वहीं रहकर सेवा करनी चाहिए।
  • प्रदीप कुकरेती (राज्य निर्माण आंदोलनकारी) का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों के कार्यालयों में तैनात कार्मिकों की उपस्थिति की रेंडमली चेकिंग जरूरी है। जब लोग वहां रहकर काम करेंगे तो स्थानीय रोजगार के नए अवसर भी पैदा होंगे। 
  • सतीश घिल्डियाल (उपाध्यक्ष, राजकीय जूनियर हाईस्कूल शिक्षक संघ) का कहना है कि विकेंद्रीकृत योजना की सोच को विकसित करने की जरूरत है। आज विकास का पैमाना मैदान हो गए हैं और पहाड़ों का विकास हाशिये पर सिमट पर रहा है। 
  • द्वारिका सेमवाल (सामाजिक कार्यकर्ता) का कहना है कि इस बात का अध्ययन करना चाहिए कि खाली होते पहाड़ों में सांस्कृतिक विषमता किस तरह पैदा हो रही है। नहीं तो भविष्य में इसके गंभीर परिणाम सामने आएंगे।
  • एसपी नौटियाल (सेवानिवृत्त संयुक्त आयुक्त, स्टेट जीएसटी) का कहना है कि स्थानीय लोगों को वनाधिकार दिए जाने की जरूरत है। आज लोग अपने आसपास के संसाधनों का उपभोग करने के लिए भी केंद्र के भरोसे बैठे हैं। इसकी अनुमति के लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ता है।
  • देवेश (सामाजिक कार्यकर्ता) का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी लागू की जाए। इसके बिना स्थानीय संसाधनों का समुचित प्रयोग संभव नहीं हो पाएगा। इससे रोजगार के भी नए अवसर पैदा होंगे।

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