निर्दलीय या वोटकटवा: अगर इनके चुनाव लड़ने पर लगी रोक तो क्या होगा! पढ़ें विधि आयोग की सिफारिश
Lok Sabha Election 2024 देश के पहले चुनाव में खूब निर्दलीय संसद तक पहुंचे। मगर अब धीरे-धीरे संसद में इनकी संख्या कम होती जा रही है। कुछ निर्दलीयों को वोटकटवा मानते हैं। इनका मानना है कि निर्दलीय लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं। विधि आयोग भी अपनी सिफारिश में कह चुका है कि निर्दलीय प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने में रोक लगनी चाहिए।

भारत का संविधान सबको चुनाव लड़ने का अधिकार देता है। एक समावेशी लोकतंत्र के लिए यह एक अनिवार्य शर्त भी है। स्वतंत्रता के बाद से बहुत से निर्दलीय उम्मीदवारों ने इस अधिकार का प्रयोग करते हुए चुनाव लड़ा और संसद और विधानसभा पहुंचे।
बहुत से निर्दलीय सांसद और विधायकों ने संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने में अहम योगदान दिया है, लेकिन समय के साथ एक स्वर उभर रहा है कि निर्दलीय उम्मीदवार वोटकटवा के रूप में चुनाव लड़ते हुए लोकतंत्र को मजबूत करने के बजाय उसे कमजोर कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए विधि आयोग भी सिफारिश कर चुका है।
विधि आयोग ने की थी ये सिफारिश
विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए। सिर्फ चुनाव आयोग के पास पंजीकृत राजनीतिक दलों को ही विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ने का अधिकार होना चाहिए।
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पहले चुनाव में जीते थे खूब निर्दलीय
1952 में हुए पहले आम चुनाव में बड़ी संख्या में निर्दलीय जीत कर संसद पहुंचे थे, लेकिन अब बहुत कम निर्दलीय उम्मीदवार जीत कर संसद या विधानसभा पहुंच पा रहे हैं। राजनीतिक दल दूसरे दलों के उम्मीदवारों को हराने के लिए और मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए भी डमी उम्मीदवार खड़े करते हैं। ऐसे में यह पड़ताल का मुद्दा है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या सबको चुनाव लड़ने के अधिकार को सीमित किया जाना चाहिए?
चुनाव में और हावी हो जाएगा धन बल
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती सबके लिए एक समान अवसर और अधिकार है। सहज शब्दों में कहें तो यह व्यवस्था लोकतंत्र की आत्मा है, अंतिम पंक्ति में बैठे लोगों के लिए सत्ता में भागीदारी की उम्मीद है। यह उम्मीद टूटनी भी नहीं चाहिए।
खुद को असहज महसूस करते कम संसाधन वाले
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में धन-बल, तकनीक, संसाधन आदि का जिस तरह से उपयोग बढ़ा है। उसमें कम आय वाले, कम संसाधन वाले, सीमित तकनीक में गुजर करने वाले, प्रचार-प्रसार की चकाचौंध से दूर रहने वाले खुद को असहज महसूस करते हैं।
पाबंदी से इन्हें लगेगा झटका
लोकतंत्र सभी से है और सभी के लिए है। इसे चुनाव आयोग और लोकतंत्र की जीवंतता में विश्वास रखने वालों को गंभीरता से लेना होगा। ऐसी स्थिति में यदि निर्दलीय के तौर पर चुनाव मैदान में उतरने वालों पर किसी तरह की पाबंदी लगाई जाती है तो पहला झटका उस उम्मीद को लगेगा, जो अंतिम पंक्ति के लोगों को लोकतंत्र से बांधकर रखने में गोंद की भूमिका अदा करता है।
डमी प्रत्याशी भी खड़े करते हैं सियासी दल
यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि बहुत कम निर्दलीय उम्मीदवार जीत कर संसद या विधानसभा पहुंच पाते हैं। बहुत से निर्दलीय सिर्फ चर्चा में आने के लिए चुनाव लड़ते हैं। चुनाव को लेकर उनका रवैया गंभीर नहीं होता है। राजनीतिक दल प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों को हराने के लिए भी निर्दलीयों का सहारा लेते हैं और मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए डमी प्रत्याशी खड़े करते हैं।
दोहरी सजा देना किसके हित में?
आखिर दूध का दूध और पानी का पानी करने की जिम्मेदारी से चुनाव आयोग और इससे जुड़े तंत्र खुद को अलग कैसे कर सकते हैं। हम सभी जानते हैं कि दल को सक्रिय रखने के लिए बड़ी धनराशि की जरूरत होती है। अब जिनके पास धनराशि का अभाव है, उन्हें दोहरी सजा देना किसके हित में होगा? लोकतंत्र के लिए तो कतई नहीं। निर्दलीय के लिए दरवाजा बंद करने से धनबल चुनावी प्रक्रिया में भागीदारी के लिए पहली शर्त हो जाएगी। समान अवसर की अवधारणा धूमिल नहीं होगी क्या?
धीरे-धीरे घटने लगी निर्दलीयों की संख्या
1952 और 1957 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव स्वतंत्रता आंदोलन की छाया में लड़ा गया। इसमें कई ऐसे नाम थे, जिनकी ख्याति थी। वह निर्दलीय भी मैदान में आते थे तो भारी समर्थन जुटाने में सफल होते थे। धीरे-धीरे ऐसे लोगों की संख्या कम होती गई।
1962 से 2019 की तुलना करें तो निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या में 600 प्रतिशत से अधिक का उछाल देखा गया। वहीं, जीत का ग्राफ छोटा होता गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में तीन हजार 460 निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में थे।
इसमें सिर्फ चार लोकसभा पहुंचने में सफल रहे। उस समय 25वां चुनाव हारने वाले 75 वर्षीय विजय प्रकाश कोंडेकर खासे चर्चित हुए थे। उन्होंने कहा था कि मैं लोगों को सिर्फ यह बताना चाहता हूं कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सिर्फ दलगत राजनीति ही एकमात्र रास्ता नहीं है। इसे खारिज किया जा सकता हैं क्या? प्रो. एसपी शाही, कुलपति, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया।
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