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    Election 2024: विभाजन के बाद उद्धव ठाकरे की शिवसेना का महत्व घटा! धोखा दिया, क्या इसीलिए मिला...

    शिवसेना में बगावत के बाद दो तिहाई से अधिक विधायक ही शिंदे के साथ नहीं आए बल्कि दो तिहाई अधिक सांसद भी शिंदे के साथ आ गए। ये सांसद उस समय शिंदे के साथ न भी आते तो कोई फर्क न पड़ता। संभवतः सांसदों को अहसास था कि पिछला लोकसभा चुनाव वे भाजपा के साथ गठबंधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़े थे।

    By Jagran News Edited By: Amit Singh Updated: Wed, 27 Mar 2024 04:19 AM (IST)
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    उद्धव के लिए वैचारिक समर्थन वाले अपने मतदाताओं का भरोसा बनाए रखना होगा मुश्किल

    ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। कहावत है कि जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वह खुद भी गड्ढे में ही गिरता है। आज की शिवसेना (यूबीटी) पर यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है। 2019 का विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद और परिणाम आने से एक दिन पहले तक तब की अविभाजित शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भाजपा के साथ थे। चुनाव होने तक वह भाजपा नेताओं के साथ चुनावी सभाएं कर रहे थे और चुनाव बाद उन्हीं भाजपा नेताओं के साथ बहुत अच्छे माहौल में प्रेस कान्फ्रेंस करते नजर आ रहे थे। लेकिन जैसे ही चुनाव परिणाम आने शुरू हुए, उन्होंने भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस का फोन उठाना बंद कर दिया।

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    उद्धव ही नहीं, पूरी शिवसेना भाजपा के लिए ‘नॉट-रीचेबल’ हो गई, क्योंकि तब उद्धव ठाकरे अपनी खिचड़ी शरद पवार और कांग्रेस नेताओं के संग पकाने लग गए थे। यह खिचड़ी बढ़िया पकी। एक नए गठबंधन महाविकास आघाड़ी का गठन हो गया और उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गए।

    पूरा नहीं हो सका आश्वासन

    महाविकास आघाड़ी (मविआ) की यह सरकार स्थिर रह सके, इसलिए तब शरद पवार ने उद्धव ठाकरे को पूरे पांच साल मुख्यमंत्री बनाए रखने का आश्वासन सार्वजनिक रूप से दिया था, लेकिन उनका यह आश्वासन पूरा नहीं हो सका। क्योंकि समझौता शरद पवार और उद्धव ठाकरे में तो हो गया था, लेकिन उद्धव की पार्टी की विधायकों और सांसदों को यह गठबंधन चुभने लगा था। उन्हें अहसास था कि वह भाजपा के साथ गठबंधन करके राजनीति करते आए हैं और उसी कारण से चुनकर भी आए हैं।

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    अचानक फूटा बुलबुला

    मविआ सरकार के ढाई साल बीतते-बीतते यह बुलबुला अचानक फूटा और शिवसेना को अभूतपूर्व बगावत का सामना करना पड़ा। 20 जून, 2022 को राज्य में हुए विधान परिषद चुनावों के तुरंत बाद शिवसेना के एक वरिष्ठ मंत्री एकनाथ शिंदे ने अपने 15 साथियों के साथ शिवसेना से बगावत कर दी। पहले वह सूरत गए, फिर बागी विधायकों की कुल संख्या 40 तक पहुंच गई और वे सभी गुवाहाटी चले गए। बगावत के करीब 10 दिन बाद ही महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा, और एकनाथ शिंदे ने नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली।

    खास बात यह कि शिवसेना में हुई इस बड़ी बगावत में दो तिहाई से अधिक विधायक ही शिंदे के साथ नहीं आए, बल्कि दो तिहाई अधिक सांसद भी शिंदे के साथ आ गए। ये सांसद उस समय शिंदे के साथ न भी आते तो कोई फर्क न पड़ता। संभवतः सांसदों को अहसास था कि पिछला लोकसभा चुनाव वे भाजपा के साथ गठबंधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़े थे।

    यदि अब अनुच्छेद 370, राममंदिर, लाभार्थियों को मिल रहे कई लाभों के बावजूद वह भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ेंगे तो उनका जीतना मुश्किल होगा। इसलिए शिवसेना के 18 में से 12 सांसद शिंदे की बगावत के कुछ सप्ताह बाद ही उनके साथ आ गए। एक और सांसद गजानन कीर्तिकर ने भी कुछ दिनों बाद उद्धव का साथ छोड़ दिया।

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