Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Lok sabha Election 2024: चुनावी मौसम में गूंज रहे लुभावने नारे, जानिए ये किस तरह मतदाताओं पर डालते आ रहे प्रभाव

    Updated: Wed, 01 May 2024 12:44 PM (IST)

    Lok sabha Election 2024 चुनाव का मौसम आते ही विभिन्न पार्टियां नारों से मतदाताओं को प्रभावित करती है। लोकसभा चुनाव में ये 1952 से प्रभावित करते रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार नारे चुनाव में न सिर्फ अहम भूमिका निभाते हैं बल्कि जनमत को दिशा देने का कार्य भी करते हैं। ऐसे नारों का क्या मनोविज्ञान होता है। ये किस तरह मतदाताओं को प्रभावित करते हैं? पढ़िए रिपोर्ट...।

    Hero Image
    Lok sabha Election 2024: किसी भी चुनाव में नारे मतदाताओं को काफी प्रभावित करते हैं।

    Lok sabha Election 2024: अबकी बार... मोदी सरकार’ 2014 में यह नारा लोगों की जुबां पर ऐसा छाया कि भाजपा पूरे बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज हो गई। अब 10 साल बाद इस नारे को विस्तार मिला है-’ फिर एक बार...मोदी सरकार’। नारे चुनाव में न सिर्फ अहम भूमिका निभाते हैं, बल्कि जनमत को दिशा देने का कार्य भी करते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. एसके द्विवेदी कहते हैं कि ‘चुनावी नारों का बहुत महत्व होता है। कम शब्दों में अपनी बात को प्रभावी ढंग से इन्हीं के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया जाता है। बड़ी संख्या में अशिक्षित लोगों को नारों के माध्यम से ही राजनीतिक दल अपनी बात समझाते हैं।’ चुनावी नारों के अतीत और वर्तमान पर राज्य ब्यूरो के वरिष्ठ संवाददाता आशीष त्रिवेदी की दृष्टि...।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    नारों की लड़ाई, चाहे कांग्रेस हो या भाजपाई

    इस बार भी नारों की लड़ाई है। चुनाव प्रचार करने निकल रहीं भाजपा कार्यकर्ताओं की टोलियां ‘एक ही नारा एक ही नाम, जय श्रीराम जय श्रीराम’ और ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे’ नारे के साथ दिख रहीं हैं तो विरासत टैक्स को लेकर मचे घमाचान के बीच चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मंच से यह कहना कि ‘कांग्रेस की लूट जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी’ अब धीरे-धीरे लोगों की जुबान पर चढ़ रहा है। वहीं कांग्रेस की अगुवाई वाला आइएनडीआइए ‘हाथ बदलेगा हालात’ का चुनावी नारा लेकर मैदान में कूदा है। वह बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की आय दोगुणी न होने के मुद्दे को जोर-शोर से उठा रही है।

    यह भी पढ़ें: चुनावी किस्सा: मंच नहीं था, स्कूल की छत पर चढ़ गए थे चौधरी चरण सिंह, अपने भाषण से जनता को बना दिया था मुरीद

    नारों की भूमिका पर क्या कहते हैं विशेषज्ञ?

    लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. डीआर साहू कहते हैं कि ‘चुनाव में ये नारे उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। ये कहीं न कहीं लोगों को प्रभावित जरूर करते हैं। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, वे अपनी बातों को लोगों तक आसानी से इनकी मदद से पहुंचा देता है।’ आइएनडीआइए ने उत्तर प्रदेश के लिए ‘न्याय का हाथ, सपा का साथ, बदलेंगे यूपी के हालात’ और ‘झूठ का चश्मा उतारिए, सरकार बदलिए-हालात बदलिए’ आदि नारे लोगों के बीच दिए हैं। सपा ‘अबकी बार भाजपा साफ’ का नारा लगा रही है। अखिलेश अपनी चुनावी सभाओं में यह नारा लगाने से नहीं चूकते।

    नारों में छिपा होता है मनोविज्ञान

    लखनऊ विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्ष प्रो. अर्चना शुक्ला कहती हैं कि ‘चुनावी नारों से पार्टियां अपनी बात रखती हैं। इसे मनोविज्ञान की भाषा में अतिरिक्त सकारात्मक पुष्टि कहा जाता है। चाहे वह कोई दल हो या व्यक्ति विशेष, इसके जरिए लोग उससे सीधा जुड़ते हैं।’ बसपा के नेता अपना भाषण ‘जय भीम-जय भारत’ से शुरू कर अपना परंपरागत वोट बैंक साधने में जुटे हैं। मायावती के भतीजे आकाश आनंद अपनी चुनावी सभाओं में ‘मुझे मुफ्त राशन नहीं, बहनजी का शासन चाहिए’ का नारा जोर-शोर से लगा रहे हैं।

    चुनावी मौसम आए तो नारों की बयार भी खूब बहती है। कोई भी चुनाव हो तो उसके तमाम नारे लोगों के मन-मस्तिष्क पर छाते हैं। भाते हैं। वे न केवल सत्ता के द्वार खोलने का जरिया बनते हैं, बल्कि बाहर करने में भी अहम भूमिका निभाते रहे हैं। इस बार भी भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा के मंचों से नारे गूंज रहे हैं।

    जब चुनाव चिह्नों पर बन गए थे जुमले

    देश में वर्ष 1952 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी था। जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था। ऐसे में जनसंघ ने नारा दिया ‘देखो दीपक का खेल, जली झोपड़ी भागे बैल।’ जवाब में कांग्रेस ने नारा दिया ‘दीपक में तेल नहीं सरकार बनाना खेल नहीं।’

    ‘कांग्रेस लाओ, गरीबी हटाओ’ का नारा चुनाव में कांग्रेस ने लगाया था। आज भी कांग्रेस को उसके विरोधी चुटकी लेकर इसकी याद दिलाते हैं। बसपा प्रमुख मायावती अपने वोट बैंक को आज भी ‘बीएसपी की क्या पहचान, नीला झंडा हाथी निशान’ जरूर बताती हैं। देश में इमरजेंसी के दौरान भी एक नारा लगा था कि ‘जमीन गई चकबंदी में, मर्द गए नसबंदी में।’

    जब चुनावी नारों ने बदल दी सरकार

    ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’ इस नारे ने 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था। 2007 के विस चुनाव में बसपा ने ‘चढ़ गुंडन की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर’ नारे को बड़ा मुद्दा बनाया। ब्राह्मण वोट बैंक को साधने के लिए ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है’। ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा हाथी बढ़ता जाएगा’ का नारा देकर सरकार बनाई।

    2014 में भाजपा ने नारा लगाया कि ‘अबकी बार मोदी सरकार।’ ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’ 2019 में ‘मोदी है तो मुमकिन है’ लोगों की जुबां पर रहा। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा भाजपा ने दिया फिर इसमें ‘सबका विश्वास’ और ‘सबका प्रयास’ भी चरणबद्ध ढंग से जोड़ा। उधर, कांग्रेस ने 2004 में भाजपा के ‘इंडिया शाइनिंग’ नारे की हवा निकाल दी थी।

    यह भी पढ़ें: Lok Sabha Election 2024: 'ओडिशा में भाजपा ही नंबर वन, बीजद ने तो बिचौलिए के हाथ दे दी पार्टी', खास बातचीत में और क्या बोले धर्मेंद्र प्रधान