Lok Sabha Election 2024: दिल्ली में कितनी बदल गई चुनावी तस्वीर? पढ़िए पहले चुनाव से अब तक का दिलचस्प सफर
Lok Sabha Election 2024 देश में 18वां लोकसभा चुनाव जारी है। आज चुनावी अभियान के तौर तरीके बदल चुके हैं। एक दौर था जब चुनाव की दिशा प्रचार से तय होती थी। आज नारे नहीं हैं प्रचार के वो तौर तरीके भी नहीं हैं। प्रचार सामग्री का प्रसिद्ध सदर बाजार भी खुद को अब बदल रहा है। जानिए पहले चुनाव से अब तक कितनी बदली दिल्ली की चुनावी तस्वीर।

नेमिष हेमंत, नई दिल्ली। आजादी की 75वीं वर्षगांठ के साथ लोकतंत्र और गाढ़ा, जीवंत और परिपक्व होता जा रहा है। देश में महा उत्सव का माहौल है। आम चुनाव में हर मतदाता अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों को समझते हुए भविष्य के नेतृत्व को गढ़ रहा है। वादे, नारे, आरोप-प्रत्यारोप के साथ नित नए मुद्दे चुनावी रैलियों में उछल रहे हैं। विश्व टकटकी लगाए इस अद्भुत नजारे को देख रहा है।
हाल ही में जब जी-20 का सम्मेलन हुआ तो भारत मंडपम में 'लोकतंत्र की जननी' पवेलियन में आदिकाल से भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था से विश्व का साक्षात्कार कराया गया था। उन्हें बताया गया कि वाद-विवाद और शास्त्रार्थ की लंबी परंपरा है, जो इस लोकतंत्र को मजबूत बनाती है।
1951-52 में हुए पहले चुनाव
दिल्ली के लोगों में स्वाधीनता के साथ मिले बंटवारे का जख्म था तो नये भारत को लेकर नए सपने थे। इसलिए स्वाधीनता बाद वर्ष 1951-52 में जब पहला आम चुनाव हुआ तो तब 'नया हिंदुस्तान जिंदाबाद' के नारे सड़कों पर गूंज रहे थे। दिल्ली में जगह-जगह पाकिस्तान से आए शरणार्थी लोगों को कैंप में बसाया जा रहा था। साथ ही उनके भी मतदान प्रक्रिया में शामिल कराने की चिंता थी।
उसमें भी मतदाताओं का बड़ा वर्ग अशिक्षित था, महिलाओं की अपनी पहचान न के बराबर थी। मतदाता सूची से लेकर मतदाता पत्र तैयार करने के साथ ही सभी प्रत्याशियों के अलग-अलग बैलेट बाक्स जुटाने, उनके लिए परिवहन की व्यवस्था करने जैसे अनगिनत मामले सामने थे। लेकिन लोगों का उत्साह और जिजविषा थी, जो उत्साहपूर्वक चुनाव हुआ। विशेष बात कि पहले लोकसभा चुनाव में हर प्रत्याशी के लिए मतदान केंद्रों पर अलग-अलग मत पेटिका रखी गई थी।
झंडों पर होती थी चिन्हों की छपाई
आज की तरह पहले इतने संसाधन नहीं थे, लेकिन जोश काफी था। जिस लोकतंत्र के लिए सैकड़ों सालों की लड़ाइयां लड़ी गई। उनके लिए मतदाताओं को जागरूक करने तथा उन्हें अपने पक्ष में मतदान के लिए प्रभावित करने के लिए तमाम उपाय किए जाते थे। सदर बाजार 1960–70 के दशक से चुनाव प्रचार सामग्रियों का अहम ठिकाना बनकर उभरने लगा था।
वहां के एक दुकानदार गुलशन खुराना की दुकान करीब 60 वर्ष पुरानी है। वह बताते हैं कि पहले हाथों से झंडे, टोपी और बैनर सिले जाते थे। तब हर रंग का अलग-अलग कपड़ा होता था तो उसे काट-काटकर फिर हाथ से सिलकर झंडा तैयार करते थे। जब चुनाव चिह्न अंकित करने की बारी आती थी तब उस पर हाथ से छापा मारते थे।
हाथ से लिखते थे नारे
तब गत्ते, टीन और प्लास्टिक के प्रचार सामग्रियां तैयार होती थी। इसी तरह कागज की झंडी और पोस्टर तैयार होते थे और उस पर प्रत्याशी या उनके समर्थक खुद हाथ से नारे लिखते थे। रात भर उसे दीवारों पर चिपकाने का काम होता था। सुतली में लेई से झंडियों को चिपकाकर कतार में लहराई जाती थी। तब टिन के बने बिल्ले को लेकर बड़ा उत्साह होता था।
पार्टी को लेकर चुनावी माहौल का अंदाजा बिल्ला लगाने से होता था। वह बताते थे कि तब सदर बाजार इतना बड़ा बाजार नहीं था। कुछ ही दुकानें चुनाव प्रचार सामग्रियों की होती थी और दिल्ली के प्रत्याशी ही खरीदारी करने आते। कई प्रत्याशी खुद बैठकर प्रचार सामग्री तैयार कराते थे
देर रात तक जमता था चुनावी रंग
चांदनी चौक में तो चुनाव की धमाचौकड़ी तो महीनों पहले शुरू हो जाती थी। टिकट दावेदारों के बैनर पोस्टरों के साथ टिकट की घोषणा के साथ प्रत्याशियों के हाथ जोड़े पोस्टर हर दीवार, गली कोने पर स्वागत करते मिलते थे। तब निर्दलीय भी खूब दांव आजमाते थे। बात चाहे 1971 व 1977 की हो या 1991 चुनाव की, महीनों पहले से चुनावी मिजाज बनने लग जाता था। पार्टियों के समर्थकों की बहस से बाजार गुलजार रहते थे। यहीं नहीं, रात तक गलियां में राजनीतिक गतिविधियां बनी रहती थी।
कूचे, कटरों में स्थित कोठियों और हवेलियों में देर रात में चुनावी संवाद कार्यक्रम आयोजित होते थे। पुरानी दिल्ली की चाट-पकौड़ी के साथ इन संवादों में मतदाताओं को लुभाने में प्रत्याशी कोई कोर कसर नहीं छोड़ते थे। भागीरथ पैलेस के दुकानदार अजय शर्मा के अनुसार पहले चांदनी चौक का इतना व्यवसायीकरण नहीं हुआ था। लोग कूचों, कटरों में रहते थे। ऐसे में गलियों में जो सबसे बड़ा घर, हवेली या कोठी होती, उसके यहां प्रत्याशियों का चुनावी संवाद का कार्यक्रम रखा जाता था।
गली-गली में प्रचार
पहले इस संसदीय क्षेत्र की सीमा पुरानी दिल्ली के दीवारों के भीतर ही थी। जबकि दिल्ली सदर की सीट इससे सटी होती थी। चांदनी चौक के मतदाताओं का बड़ा हिस्सा व्यापारी वर्ग का पहले आम चुनाव से है। इसलिए यहां अधिकतर चुनावी सभाएं दुकानें बंद करने के बाद रात में ही रखी जाती, जो देर रात एक- दो बजे तक चलती थी। जिसमें खाना-पीना भी होता था।
कई बार ऐसा होता कि एक स्थान पर एक के बाद एक प्रत्याशियों का आना और अपनी बातें रखने का क्रम चलता था। इसी तरह रात में गलियों में जुलूस निकलता, जिसमें पंफलेट, झंडा व बिल्ले इकट्ठा करने को लेकर बच्चों में होड़ रहती। पोस्टरों, बैनरों में लुभाने वाले नारे लिखे जाते थे। स्थिति यह कि सड़कें और गलियां चुनाव प्रचार सामग्रियों से पटी रहती थी। बच्चों में बिल्ले और झंडे इकट्ठा करने की होड़ लगी रहती। रिक्शे पर भोंपू लगाकर चुनाव प्रचार होता, प्रत्याशी या पार्टी की खूबियां बताई जाती। इसके बाद क्रमश: आटो, जीप व कारों के साथ ई रिक्शा तक पहुंची है।
टाउन हाल और जामा मस्जिद में सभाएं
भागीरथ पैलेस के दुकानदार और पुरानी दिल्ली निवासी अजय शर्मा पुराने चुनावोंको याद कर बताते हैं कि टाउन हाल, लालकिले, जामा मस्जिद व फव्वारा चौक पर प्रत्याशियों की सभाएं होती थी, जिसमें राजनीतिक दलों के प्रमुख नेता संबोधित करते थे। तब अगर रोशनी का इंतजाम नहीं हो पाता तो पेट्रोमैक्स जला लिए जाते थे।
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तब इतनी तड़क भड़क नहीं थी। एक-दो चौकी रख दी जाती, जिस पर प्रत्याशी खड़े होकर अपनी बात कहता। लाउडस्पीकर भी धीरे-धीरे आया। वर्ष 1971 में पाकिस्तान से जीत तथा बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र बनने के बाद हुए आम चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ऐतिहासिक रैली टाउन हाल पर हुई थी, जिसमें एक लाख से अधिक लोग जुटे थे। तब उस चुनाव में सुभद्रा जोशी ने कांग्रेस पार्टी से जीत दर्ज की थी।
लाल किले पर लगता था मतगणना बोर्ड
मतदान के दिन लोगों के बीच पार्टियों का प्रदर्शन जानने को लेकर हर पल उत्कंठा रहती थी। तब घरों में इतने टीवी नहीं हुआ करते थे। मोबाइल फोन तो अस्तित्व में नहीं था। ले देकर लोग रेडियो को कान से लगाए रहते। ऐसे में मतदान का रूझान जानने के लिए राष्ट्रीय राजधानी के प्रसिद्ध स्थानों पर आकाशवाणी द्वारा बड़े-बड़े स्कोर बोर्ड लगवाए जाते थे। जहां लोग देशभर में चुनाव परिणामों की पल-पल जानकारी लेते थे।
लाल किले के बाहर लकड़ी का विशाल स्कोर बोर्ड लगवाया जाता था। जिस पर पूरे देश में राजनीतिक दलों के प्रदर्शनों की पल-पल की स्थिति बताई जाती है। इसके लिए बकायदा कर्मचारी तैनात होते थे। जो सीढ़ी के माध्यम से स्कोर बोर्ड तक पहुंचकर स्कोर बदलते रहते हैं। इसे देखने के लिए नेताओं के साथ ही लोग दूर-दूर से आते थे। कई लोग साइकिल और बैलगाड़ी से भी आते।
दो दिन तक चलती थी मतगणना
जहां चाट-पकौड़ी, नमकीन, चाय बेचने वालों की दुकानें भी लग जाती और राजनीतिक चर्चाएं जोर पकड़ लेती। चांदनी चौक निवासी सुमन गुप्ता बताते हैं कि पहले मतदान मतपत्र से होते थे तो मतगणना दो दिन तक चलती थी। ऐसे में लालकिले में लगे मतगणना स्कोर को देखने के लिए लोग पुरानी दिल्ली व चांदनी चौक अपने परिचित व रिश्तेदारों के घरों कई दिन पहले से जुट जाते थे।
गांवों तक पहुंचने को बैलगाड़ी सहारा
भाजपा नेता सुभाष आर्य बताते हैं कि 1960–70 के दशक तक में शहर से दूर गांव तक पहुंचने के उतने साधन नहीं थे। गांव भी दूर दूर बसे होते, ऐसे में प्रत्याशी या प्रचार में जुटे समर्थक मतदाताओं तक पहुंचने के लिए बैलगाड़ी या घोड़ा गाड़ी का इस्तेमाल करते, जबकि, साइकिल उन कार्यकर्ताओं को दी जाती जो चुनाव प्रबंधन से जुड़े होते थे।
टिन के कनस्तर से होती मुनादी
पहले जब चुनाव प्रचार की टोली निकलती तो लोगों का ध्यान आकर्षण कराने के लिए एक व्यक्ति टिन के कनस्तर पीटते हुए कुछ आगे आगे चलता और जोर जोर से लोगों को आवाज लगता। यह क्रम रैलियों और सभाओं की जानकारी देने के लिए होती।
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