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    लोकतांत्रिक प्रणाली का विकल्प, मतदान का बहिष्कार नहीं, लोकतंत्र के पर्व में शामिल होना

    By Dhyanendra SinghEdited By:
    Updated: Sun, 05 May 2019 03:22 PM (IST)

    वोट बहिष्कार की बात करने वालों और उनके शहरी समर्थकों को बताना होगा कि शासन की वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली का विकल्प उनके पास क्या है?

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    लोकतांत्रिक प्रणाली का विकल्प, मतदान का बहिष्कार नहीं, लोकतंत्र के पर्व में शामिल होना

    हरेंद्र प्रताप। प्रजातंत्र/लोकतंत्र यानी जहां जनता अपने शासक का चुनाव मतदान के माध्यम से करती है’-स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानियों का यही सपना था जिसे साकार करने हेतु उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। भारत के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था कोई नयी नहीं है। दूनिया ने भारत से ही लोकतंत्र को आयात किया है।भारतीयों के रग-रग में प्रजातंत्र बसता है। पर आज भारतीय लोकतंत्र के ऊपर घरेलू और बाहरी खतरे मंडरा रहे हैं।

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    भारत के उत्तर के पड़ोसी देश चीन में लोकतंत्र नहीं है। नेपाल में वर्षों तक राजतंत्र था, अभी अभी लोकतंत्र का बीजारोपण हुआ पर उस पर भी चीन की टेढ़ी नजर है। भारत के पूर्व और पश्चिम और भारत से ही कटकर बने पाकिस्तान में इस्लामिक और सैनिक तानाशाही, तथा म्यांमार में भी सैनिक तानाशाही में जो प्रजातंत्र दिखाई पड़ता है उसकी जड़ें कमजोर है। दक्षिण में श्रीलंका और मालदीव मे भी राजनीतिक उथल- पुथल चलती रहती है।

    भारत के लोकतंत्र से वामपंथी चीनी शासक सदा डरे रहते थे। वे चाहते थे कि भारत के लोकतंत्र को खत्म कर दिया जाये। उन्हें यह डर सता रहा था कि भारत के लोकतंत्र को देख कर चीन के लोग भी कहीं लोकतंत्र की स्थापना की मांग न कर बैठें। 1984 के थ्यान आन मन चौक की घटना चीनी जनता के लोकतंत्र की चाहत की ही उपज थी जिसे टैंक से कुचला गया। भारतीय लोकतंत्र पर सबसे बड़ा आक्रमण वामपंथ ने ही किया। पं बंगाल के नक्सलबाड़ी में चीन समर्थक चारु मजूमदार के नेतृत्व में प्रारंभ हिंसक आंदोलन का नारा था -‘सत्ता बंदूक के नोक से निकलती है और हमारा नेता माओत्से तुंग’। वोट बहिष्कार का पहला नारा नक्सलबाड़ी की हिंसा के गर्भ से पैदा वामपंथ ने ही दिया।

    मतदान और मतपेटी से प्रजातंत्र के शासक का उदय होता है और शासक स्वदेशी होता है। नक्सलवाद ने प्रजातंत्र को नकारते हुए ‘सत्ता बंदूक की नोक से निकलने का जो नारा दिया वह अंतत: विफल साबित हुआ। चीन प्रेरित नक्सलवाद ही अपना चोला बदलकर आज ‘माओवाद’ के रूप में ‘वोट बहिष्कार’ का नारा देकर भारतीय लोकतंत्र की हत्या करना चाहता है। यह बात और है कि जिस तरह चारु के वोट बहिष्कार का नारा नही चला वैसे ही माओवादियों के भी वोट बहिष्कार का नारा नही चलने वाला है। भारतीय लोकतंत्र पर दूसरा खतरा आंतरिक है।

    आजादी के सात दशक बाद भी लोगों को पेयजल, सड़क-पुल, बिजली, अस्पताल, स्कूल आदि के लिए ‘वोट बहिष्कार’ का नारा देना पड़ता है। यह बहिष्कार अहिंसक होता है और समय रहते इसका समाधान किया जाता भी है। विरोध का यह आयाम लोकतंत्र का ही अंग है क्योंकि संविधान के भाग 3 की धारा 19 में सभी को यह अधिकार प्राप्त है। राजनीतिक दल और नेताओं को वोट बहिष्कार के इस अहिंसक आंदोलन को ध्यान में रखकर विकास की सर्वस्पर्शी और सर्वव्यापी योजनाएं बनानी चाहिए।

    प्रजातंत्र में प्रजा को सर्वोपरी मानते हुए दल को अपना आत्मावलोकन करना होगा। ‘क्या दल लोकतांत्रिक है? क्या उम्मीदवार का चयन लोकतांत्रिक ढंग से हो रहा है? भारतीय मतदाता आतंकवादियों की धमकी तथा ‘विकल्प के अभाव’ में भी इस तपती धुप में मतदान केंद्र पर जाकर ‘नोटा’ बटन को दबाता है तो उसके लोकतंत्र के प्रति समर्पण की प्रशंसा करनी होगी।

      (पूर्व सदस्य, बिहार विधान परिषद)

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