Uttarakhand Loksabha Election: मोदी की सुनामी में लुटी अपनों की मारी कांग्रेस
उत्तराखंड में कभी अपने मजबूत किले को लेकर इतराती रही कांग्रेस के सामने अब अब बिखरते वजूद को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है। लगातार दूसरे आम चुनाव में पार्टी हार गई।
देहरादून, राज्य ब्यूरो। उत्तराखंड में कभी अपने मजबूत किले को लेकर इतराती रही कांग्रेस के सामने अब अब बिखरते वजूद को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है। लगातार दूसरे आम चुनाव में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। यही नहीं राज्य में लोकसभा की पांच सीटों पर पार्टी प्रत्याशियों को जिसतरह बड़े अंतर से शिकस्त मिली है, उससे चुनाव को लेकर पार्टी की तैयारियों पर सवाल उठने लाजिमी हैं।
मोदी की सुनामी में एक के बाद एक चुनाव में पैर उखड़ते चले जाने के बावजूद कांग्रेस ने खुद को सांगठनिक और पार्टी क्षत्रपों में एकजुटता के मोर्चे पर खुद को मजबूत बनाने में गंभीरता नहीं दिखाई।
सत्रहवीं लोकसभा के चुनावी नतीजे गवाही दे रहे हैं कि मोदी सुनामी ने राज्य में यदि किसी पर कहर बरपाया है तो वह कांग्रेस ही है। वर्ष 2014 में पहली बार मोदी लहर में उत्तराखंड की पांच लोकसभा सीटों पर कब्जा छोड़ने को मजबूर हुई कांग्रेस को पांच साल बाद भी संभलने का मौका नहीं मिला है।
विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त मिलने के बाद पार्टी प्रदेश की सियासत में वापसी के लिए हाथ-पांव मार रही है। यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के दबाव के चलते पार्टी ने भाजपा के मुकाबले अपने सभी मजबूत समझे जाने वाले नेताओं पर दांव खेला।
मोदी लहर और भाजपा के मजबूत संगठन के आगे ये दांव भौंथरा साबित हो गया है। भाजपा ने वर्ष 2014 से भी ज्यादा मतों के अंतर से कांग्रेस को पराजित किया।
काम नहीं आया दिग्गजों पर दांव
नैनीताल सीट से दिग्गज नेता कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत काफी ज्यादा मतों के अंतर से हार गए। कमोबेश यही हाल वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव जीत चुके और वर्तमान में राज्यसभा सदस्य प्रदीप टम्टा का हुआ।
अल्मोड़ा संसदीय सीट पर पार्टी ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया था। इसीतरह टिहरी संसदीय सीट पर कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह को चुनाव मैदान में उतारा था। प्रीतम सिंह भी कमाल नहीं दिखा सके और काफी ज्यादा मतों के अंतर से हार गए। पौड़ी सीट पर पार्टी ने भाजपा के आंतरिक असंतोष को हवा देने और हरिद्वार में स्थानीयता के मुद्दे पर धु्रवीकरण के जिस हथियार को आजमाया, वह भी काम नहीं आ सका।
दो साल से नहीं बनी नई प्रदेश कमेटी
जाहिर है कि पार्टी को मिली इस हार के बाद अब उनके तमाम कारणों पर चर्चा छिडऩी तय है। पार्टी की हार पर गौर करते हुए इस तथ्य से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि पार्टी अपना मजबूत संगठन तक खड़ा नहीं कर पाई। प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बने हुए दो साल हो चुके हैं, लेकिन उनकी अपनी टीम अब तक नहीं बन पाई है।
नई टीम के गठन में लेटलतीफी के पीछे अंदरखाने खींचतान को लोकसभा चुनाव तक टालने की रणनीति भी असर नहीं छोड़ पाई। पार्टी हाईकमान भी प्रदेश में मजबूत संगठन खड़ा करने को लेकर उदासीन बना रहा है।
गुटों में हावी वर्चस्व की जंग
कांग्रेस की बड़ी चिंता क्षत्रपों के बीच वर्चस्व की अंदरखाने छिड़ी रहने वाली जंग है। वर्तमान में भी पार्टी के भीतर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत खेमे और प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह व विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश की जोड़ी के बीच तनातनी जगजाहिर है। गाहे-बगाहे ये तनातनी पार्टी की एकजुटता के आड़े आती रही है।
हालत ये है कि कई मौकों पर पार्टी नेताओं ने भाजपा की चुनौती से साथ मिलकर निपटने के बजाय एकदूसरे की टांगखिंचाई में ज्यादा रुचि ली। लोकसभा चुनाव के दौरान प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार पर भी कांग्रेस की अंदरूनी सियासत भारी पड़ी है।
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