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    बिहार विधानसभा चुनाव: 'वोटर' युवा और 'नेता' बुजुर्ग, अनुभव Vs जोश की लड़ाई में कौन आगे?

    Updated: Sun, 28 Sep 2025 11:29 AM (IST)

    बिहार के चुनावी इतिहास में युवाओं की भागीदारी कम रही है। 40 वर्ष से कम उम्र के प्रत्याशियों का जीत प्रतिशत बेहद कम है क्योंकि मतदाता अनुभव और स्थापित राजनीतिक परिवारों को प्राथमिकता देते हैं। टिकट वितरण में भी युवाओं का हिस्सा कम रहता है। युवा मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं लेकिन विधानसभा में उनकी समस्याओं को उठाने वाले युवा प्रतिनिधि कम ही दिखाई देते हैं।

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    बिहारी वोटरों को पसंद नहीं आते युवा प्रत्याशी

    व्यास चंद्र, पटना। दूसरों के चुनावी भविष्य का निर्धारण करने वाले युवाओं के अपने भाग्य में जीत के किस्से कम, हार की कहानियां अधिक हैं। बिहार के चुनावी इतिहास में अभी तक तो यही है। इस बार भी युवा आकांक्षाएं विधायी राजनीति के आकाश में कुलांचे भरने के लिए आतुर हैं।

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    हालांकि, मालिक की हैसियत वाली जनता के पुराने रुख से इत्मीनान नहीं। बिहार की राजनीति में युवाओं की बड़ी भूमिका की अपेक्षा तो सभी करते हैं, लेकिन बागडोर सौंपने के समय कन्नी काट जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 40 वर्ष से कम उम्र के प्रत्याशियों का जीत प्रतिशत बेहद कम है।

    चुनाव में यवाओं की सफलता बेहद कम

    कारण स्पष्ट है, बिहारी वोटर अभी अनुभव, जातीय समीकरण और स्थापित राजनीतिक परिवारों को ही ज्यादा प्राथमिकता दे रहे। कुछ युवा प्रत्याशी सफल हुए हैं, लेकिन जनसंख्या के समानुपातिक स्थिति में अल्पसंख्यक कहे जा सकते हैं।

    प्रदेश की राजनीति में परंपरागत नेताओं और स्थापित चेहरों का दबदबा इतना अधिक है कि युवा प्रत्याशी पूरी तरह उभर नहीं पा रहे हैं।

    चुनावी मैदान में युवाओं की संख्या तो है, पर उनकी सफलता की दर बेहद सीमित रहती है। इससे यह साफ होता है कि राजनीति में बदलाव की चाह रखने वाले युवा मतदाता और नेतृत्व में बदलाव लाने वाले युवा प्रत्याशी के बीच अब भी गहरी खाई है।

    टिकट वितरण में युवाओं का हिस्सा बेहद कम

    आंकड़े बताते हैं कि टिकट वितरण में युवाओं का हिस्सा बेहद कम रहता है। उदाहरण के लिए, 2010 का विधानसभा चुनाव है। तब 25 से 40 वर्ष के आयु वर्ग के मात्र 13 प्रतिशत प्रत्याशी ही विजयी हो पाए थे।

    2015 के विधानसभा चुनाव में इस उम्र के 1,416 प्रत्याशी मैदान में थे। उनमें से 30 सदन तक पहुंचे, लेकिन 2020 में चुनाव लड़ने वाले युवाओं की संख्या बढ़ी।

    उस अनुपात में परिणाम उत्साहवर्द्धक नहीं रहा। कुल 1,599 युवाओं में से 22 को ही सफलता मिली। अधिसंख्य विजेता विरासत वाले थे।

    बुजुर्ग नेताओं का वर्चस्व मजबूत

    स्थानीय स्तर पर बुजुर्ग नेताओं का वर्चस्व इतना मजबूत होता है कि युवा प्रत्याशियों को स्वयं की पहचान बनाने में कठिनाई होती है।

    यही कारण है कि विधानसभा में युवा विधायकों की संख्या सीमित रह जाती है। राज्य की जनसंख्यात्मक संरचना बताती है कि बिहार सबसे युवा राज्यों में से एक है।

    बड़ी संख्या में युवा मतदाता हर चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। वे रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और आधुनिक विकास की आशा के साथ मतदान केंद्रों तक जाते हैं, लेकिन जब विधानसभा में उनकी समस्याओं को उठाने वाला, उन्हीं की उम्र का प्रतिनिधि कम दिखाई देता है, तो लोकतांत्रिक असमानता पीड़ा देती है। क्षोभ के साथ पटना विश्वविद्यालय के प्रो. मनोज प्रभाकर कुछ यही बता रहे।

    युवाओं की हिस्सेदारी लगभग 21 प्रतिशत

    प्रतिनिधित्व के साथ यह भी ध्यान देने योग्य है कि चुनाव में युवा मतदाताओं की भूमिका बेहद अहम मानी जाती है। राज्य की मतदाता सूची में युवाओं की हिस्सेदारी लगभग 21 प्रतिशत है, यानी 30 वर्ष से कम उम्र के मतदाता ही चुनाव परिणाम को निर्णायक दिशा दे सकते हैं।

    इसके अलावा लगभग आठ लाख पहली बार मतदान करने वाले हैं। यह आंकड़ा बताता है कि युवा मतदाता न सिर्फ़ संख्यात्मक रूप से, बल्कि चुनावी रुझानों और मुद्दों के लिहाज़ से भी बड़ा प्रभाव डालते हैं।

    आज के युवा मतदाता पारंपरिक प्रचार से अधिक इंटरनेट मीडिया और डिजिटल कैंपेन से प्रभावित होते हैं। एक्स, इंस्टाग्राम, फेसबुक और वाट्सएप ग्रुप के जरिए चुनावी बहस और प्रचार में युवा अभी से सक्रिय दिख रहे हैं।

    अनुभव के सामने नहीं टिक पाता जोश

    ग्रामीण क्षेत्रों में वोटरों की मानसिकता आज भी “अनुभव बनाम जोश” के तराजू पर टिकती है। बुजुर्ग मतदाता मानते हैं कि राजनीति में उम्र के साथ परिपक्वता आती है।

    वे युवा प्रत्याशियों पर उतना भरोसा नहीं कर पाते। यही कारण है कि कई ऊर्जावान और पढ़े-लिखे चेहरे मैदान में उतरने के बावजूद विधानसभा तक नहीं पहुंच पाते।

    युवाओं की हार का सबसे बड़ा कारण संगठन और संसाधन की कमी है। बड़े दलों में टिकट बंटवारे के समय भी युवा चेहरों को हाशिये पर रखा जाता है। जो टिकट पाते भी हैं, उनके पास न तो व्यापक जनाधार होता है और न ही चुनाव लड़ने के लिए जरूरी धनबल।

    दूसरी ओर, पुराने नेताओं की पैठ और कार्यकर्ताओं का मजबूत नेटवर्क चुनावी नतीजे बदल देता है। हालांकि, इस तस्वीर में बदलाव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।