Bihar Politics: जमुई की सियासत में मुस्लिम मतदाता बने महज वोट बैंक, 63 सालों से देख रहे सिर्फ एक सपना
जमुई में मुस्लिम मतदाताओं की स्थिति दशकों से उपेक्षित है। 12% आबादी होने पर भी कोई मुस्लिम नेता विधानसभा नहीं पहुंचा। 1962 में मुस्ताक अहमद शाह की जीत के बाद प्रतिनिधित्व थम गया। कई उम्मीदवारों ने प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली। पार्टियाँ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करती हैं पर टिकट नहीं देतीं। मुस्लिम समुदाय आज भी अपने प्रतिनिधि का इंतजार कर रहा है।

संवाद सूत्र, सोनो (जमुई)। जमुई की राजनीति में मुस्लिम मतदाताओं की स्थिति पिछले छह दशकों से उपेक्षित ही रही है। लगभग 12 प्रतिशत आबादी के बावजूद आज तक कोई मुस्लिम चेहरा विधानसभा तक नहीं पहुंच सका। 1962 में कांग्रेस प्रत्याशी मुस्ताक अहमद शाह ने सिकंदरा विधानसभा सीट से जीत दर्ज कर इतिहास रचा था, लेकिन 1967 में इस सीट के आरक्षित हो जाने के बाद मुस्लिम प्रतिनिधित्व का सिलसिला अचानक थम गया।
इसके बाद से जमुई, झाझा और चकाई विधानसभा क्षेत्रों में कई बार मुस्लिम उम्मीदवारों ने अपनी किस्मत आजमाई, मगर हर बार नतीजा निराशाजनक ही रहा। मुस्लिम समाज के उम्मीदवार केवल नाम भर के प्रत्याशी बनकर रह गए और विधानसभा की दहलीज तक पहुंचने का उनका सपना अधूरा ही रह गया।
1967 के चुनाव में कांग्रेस ने झाझा से मु. कुदुस को उम्मीदवार बनाया। उस समय यह प्रयास मुस्लिम समाज के लिए उम्मीद जगाने वाला माना गया, लेकिन संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के शिवनंदन झा ने उन्हें मात्र 716 वोटों से शिकस्त दे दी। यह हार इतनी बड़ी साबित हुई कि उसके बाद बड़े दलों ने लंबे समय तक मुस्लिम चेहरों पर दांव लगाने से किनारा कर लिया।
करीब चार दशक बाद, यानी 2005 में राजद ने फिर से मुस्लिम-यादव समीकरण साधने की कोशिश की। झाझा सीट से राशिद अहमद को टिकट दिया गया। फरवरी में हुए चुनाव में वे जदयू प्रत्याशी दामोदर रावत से 4930 वोटों से हार गए।
सात महीने बाद अक्टूबर में हुए पुनः चुनाव में मुकाबला वही रहा, लेकिन हार का अंतर बढ़कर 12,344 वोट तक पहुंच गया। इस हार के बाद बड़े दलों का विश्वास मुस्लिम उम्मीदवारों पर और कमजोर हो गया।
जमुई और चकाई में नहीं दिखी चुनौती
जमुई और चकाई विधानसभा सीटों से आज तक कोई भी मुस्लिम प्रत्याशी ऐसा नहीं रहा, जिसने मजबूत चुनौती दी हो। हां, छोटे दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों ने चुनाव जरूर लड़ा, लेकिन उनका सफर महज वोट काटने तक ही सीमित रहा। राजनीतिक दलों के लिए उनका उपयोग केवल समीकरण बिगाड़ने या किसी खास प्रत्याशी का खेल चौपट करने तक ही रहा।
जिले की राजनीति हमेशा जातीय गणित पर टिकी रही है। यादव, कुशवाहा और दलित मतदाता जहां हमेशा सत्ता की कुंजी बने रहे, वहीं मुस्लिम मतदाता निर्णायक संख्या में होने के बावजूद बार-बार हाशिए पर धकेल दिए गए। यही वजह है कि अब तक उनका कोई प्रतिनिधि विधानसभा तक नहीं पहुंच पाया।
स्थानीय राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि जमुई में मुस्लिम समाज को हमेशा वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। चुनाव के वक्त बड़े दल मुस्लिम मतदाताओं को गोलबंद करने के लिए तरह-तरह के वादे करते हैं, लेकिन टिकट देने की बारी आती है तो उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है।
यही कारण है कि मुस्लिम मतदाता अपनी अहमियत समझते हुए भी अपने हिस्से का राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल नहीं कर सके। कई बार मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुट होकर अपने प्रत्याशी को जिताने की कोशिश की, लेकिन जातीय ध्रुवीकरण और बड़े दलों की रणनीति के आगे उनकी यह कोशिश नाकाम हो जाती है।
आजादी के बाद से लेकर अब तक जमुई जिले के मुस्लिम समाज को केवल एक बार विधानसभा में प्रतिनिधित्व मिला, 1962 में मुस्ताक अहमद शाह के रूप में। इसके बाद 63 साल बीत गए, लेकिन फिर कभी ऐसा मौका नहीं आया। मुस्लिम मतदाता आज भी उस अधूरे सपने को लेकर इंतजार कर रहे हैं कि कब कोई उनका प्रतिनिधि विधानसभा पहुंचेगा।
जमुई की राजनीति में लगातार यह सवाल उठता रहा है कि निर्णायक संख्या में होने के बावजूद मुस्लिम समाज क्यों उपेक्षित रह गया? क्या यह जातीय समीकरणों का परिणाम है या फिर राजनीतिक दलों की सोच में बदलाव की कमी? इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।
हकीकत यही है कि जमुई के मुस्लिम मतदाता अपने आप को केवल वोट बैंक तक सिमटा हुआ महसूस करते हैं। उनकी गिनती भले ही हर चुनाव में की जाती है, लेकिन नेतृत्व की बारी आते ही दरवाजे बंद हो जाते हैं। आने वाले चुनावों में यह स्थिति बदलेगी या नहीं, यह देखने वाली बात होगी।
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