तिरहुत में शानदार रहा है NDA का स्ट्राइक रेट, इससे पार पाना INDIA के लिए नहीं होगा आसान
Bihar Assembly Election 2025 49 में 33 सीटों पर पिछले चुनाव में मिली थी जीत। वर्ष 2010 में गठबंधन की हुई थी एकतरफा जीतद्ध एक सीट के लिए राजद को तरसना पड़ा था। वैशाली सीतामढ़ी व मुजफ्फरपुर में जदयू के एनडीए से अलग होने पर पड़ा था असर। चंपारण के दोनों जिलों में जदयू के बाहर होने पर भी एनडीए का रहा दबदबा।

प्रेम शंकर मिश्रा, जागरण मुजफ्फरपुर। Bihar Assembly Election 2025: विश्व को गणराज्य देने वाली तिरहुत की धरती लोकसभा से लेकर विधानसभा चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। वर्ष 1985 के बिहार विधानसभा से पहले तिरहुत के छह जिलों में अलग-अलग दलों का दबदबा रहा। चंपारण में कांग्रेस मजबूत रही तो वैशाली और मुजफ्फरपुर में लोकदल, मगर मंडल और कमंडल की राजनीति ने दिशा बदली।
1990 के विधानसभा चुनाव से यहां कांग्रेस कमजोर होती गई। कांग्रेस के विरोध में साथ उतरे जनता दल, भाजपा एवं अन्य दलों ने दबदबा बना लिया। कांग्रेस यहां की जमीन पर पैर नहीं जमा नहीं सकी। जनता दल का 1995 तक दबदबा रहा। वर्ष 1997 में जनता दल से अलग होकर लालू प्रसाद ने राजद बना लिया।
इसके बाद से चंपारण में राजद कमजोर हो गया, मगर मुजफ्फरपुर, वैशाली और सीतामढ़ी में मजबूत रहा। बिहार विभाजन के बाद यहां एनडीए की मजबूती बढ़ती गई। यह आज भी कायम है। खासकर चंपारण में। पिछले विधानसभा चुनाव में यहां की 49 में से 33 सीटों पर एनडीए ने जीत दर्ज की।
जबकि चिराग फैक्टर ने कम से कम 11 सीटों का नुकसान पहुंचाया था। वर्ष 2010 में तो यह स्थिति थी कि राजद को महज एक सीट मिल सकी। वह भी मुजफ्फरपुर में। पांच जिलों में तो राजद का खाता नहीं खुला।
यहां तक कि लालू परिवार की परंपरागत सीट राघोपुर से पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी चुनाव हार गईं। यह स्थिति तब रही जब जदयू एनडीए के साथ रहा। उसके एनडीए से अलग होते ही तस्वीर बदल गई। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में यहां एनडीए 16 सीटों पर सिमट गया।
वहीं महागठबंधन ने 33 सीटें जीत लीं। एक तरह से राजद को यहीं से संजीवनी मिली गई। हालांकि चंपारण में जदयू के अलग होने पर भी एनडीए ने बेहतर प्रदर्शन किया, मगर मुजफ्फरपुर, वैशाली और सीतामढ़ी में एनडीए कमजोर हो गया।
माना जा रहा है कि एनडीए यहां एकजुट होकर लड़े तो परिणाम में बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ेगा, मगर वीआइपी के अलग होने और जन सुराज के गठन का प्रभाव पड़ सकता है।
एनडीए के पक्ष में रहा है चंपारण का रण
चंपारण की 21 में से नौ पश्चिमी और 12 पूर्वी चंपारण की हैं। पिछले विधानसभा चुनाव बिहार में एनडीए और महागठबंधन में कांटे का संघर्ष जरूर रहा, मगर चंपारण में मुकाबला एकतरफा रहा। यहां 21 में से 17 सीटों पर लोजपा फैक्टर के बावजूद एनडीए ने जीत दर्ज की।
पश्चिम चंपारण में तो नौ में आठ सीटें मिलीं। सिकटा से जदयू के खुर्शीद फिरोज अहमद उम्मीदवार की राह भाजपा के बागी दिलीप वर्मा ने रोक दी। इससे महागठबंधन के भाकपा माले के वीरेंद्र गुप्ता जीत गए। वह भी महज 23 सौ वोटों के अंतर से।
पूर्वी चंपारण की 12 में नौ सीटें एनडीए को मिलीं। कल्याणपुर सीट पर दो हजार से कम वोटों के अंतर से राजद के मनोज कुमार यादव भाजपा के सचिंद्र प्रसाद सिंह को हरा दिया।
इस वर्ष हो रहे विधानसभा चुनाव में वीआइपी के एनडीए से अलग होने से कुछ सीटों पर असर पड़ सकता है, मगर लोजपा (रा) के साथ आने से यह संतुलित हो जाएगा। पिछले तीन विधानसभा चुनाव का ट्रेंड यही कहता है कि एनडीए यहां मजबूत है। महागठबंधन को यहां पूरी ताकत झोंकनी होगी।
एकतरफा के साथ कांटे का दिखता संघर्ष
समाजवादियों की धरती मुजफ्फरपुर चौंकाने वाला परिणाम देता रहा है। कभी जदयू का यह मजबूत किला था। उसकी स्थिति यहां कमजोर हुई है। वर्ष 2015 में एनडीए से अलग लड़ने पर उसके तीनों उम्मीदवार हार गए। जबकि वर्ष 2005 में 11 में से सात और 2010 में छह सीट मिली थी।
एनडीए में वापसी के बाद भी जदयू को पिछले चुनाव में महज एक सीट मिली। जबकि वीआइपी ने दो सीटों पर जीत दर्ज की थी। इससे एनडीए का प्रदर्शन यहां कमजोर रहा। उसे छह और महागठबंधन को पांच सीटें मिलीं। इस बार लोजपा के एनडीए में आने से सीटों की दावेदारी को लेकर थोड़ी मगजमारी है।
यह इसलिए कि वीआइपी के खाते की सीट में से एक पर भाजपा और एक पर राजद विधायक हैं। राजद विधायक वाली बोचहां सीट पर उपचुनाव में भाजपा ने उम्मीदवारी दी थी। अब अगर लोजपा जिले की कम से कम दो सीटों की दावेदारी करती है तो भाजपा के नेताओं को कम से कम एक सीट पर कुर्बानी देनी होगी।
वहीं एक सीट पर जदयू को भी दावा छोड़ना पड़ सकता है। ऐसे में टिकट की उम्मीद में पिछले कई वर्षों से मेहनत कर रहे पार्टी के नेता को त्याग करना पड़ सकता है। वहीं जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के दबाव में किसी सीट पर पेच फंसा तो दोनों बड़ी पार्टियों में से एक को दाता बनना होगा।
वहीं पिछले चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने वाले महागठबंधन के लिए भी कम चुनौती नहीं। एक तो वीआइपी के शामिल होने से पिछली जीती दो सीटों की मांग। इसके अलावा कांग्रेस का कम से कम दो सीटों का दबाव। ऐसे में राजद को अपनी कोई सीट छोड़ने का दबाव होगा।
माता सीता की धरती पर दिख सकता असर
अयोध्याजी में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद बड़ी मांग माता सीता के मंदिर को लेकर था। इस वर्ष माता जानकी के भव्य मंदिर का शिलान्यास एनडीए की सरकार ने रखी है। एकजुट एनडीए के बेहतर प्रदर्शन के ट्रैक रिकार्ड के कारण अगले विधानसभा चुनाव में भी कार्यकर्ताओं को इतिहास दोहराने की उम्मीद है।
वर्ष 2010 में जिले की सभी आठ सीटों पर एनडीए ने जीत दर्ज की थी, मगर इसके बाद से महागठबंधन को सीटें मिलती रहीं। वर्ष 2015 में जदयू के अलग होने से एनडीए यहां कमजोर हुआ और महागठबंधन को छह सीटें मिल गईं।
पिछले चुनाव में भी दो सीटें जदयू के अलग होने के बाद भी महागठबंधन को मिला। वहीं लोकसभा चुनाव में एनडीए को पसीना बहाना पड़ा था। विधानसभा में यह स्थिति रही तो एनडीए-महागठबंधन के 6-2 के अनुपात में अंतर आ सकता है।
लालू परिवार के लिए चुनौती होगी वैशाली की सीटें
प्रमंडल के वैशाली जिले की दो सीटों पर पूरे देश की नजर रहती है। राघोपुर और महुआ सीट पर लालू परिवार के सदस्य लड़ते रहे हैं। जीत और हार का खट्टा-मीठा अनुभव रहा है। जिले की आठों सीटों पर वर्ष 2010 में एनडीए का कब्जा था। जदयू के सतीश कुमार से राबड़ी देवी भी 13 हजार से अधिक वोटों से चुनाव हार गई थीं।
एनडीए से जदयू अलग हुआ तो तस्वीर बदल गई। महागठबंधन ने छह सीटें कब्जा कर लीं। जदयू एनडीए में वापस आया तब भी महागबंधन ने चार सीटें जीतीं। यह इसलिए हुआ कि जिले की विधानसभा सीटों पर लोजपा का प्रभाव है।
राजापाकर, महनार और महुआ सीट पर जदयू की हार का कारण लोजपा के उम्मीदवार रहे। इस विधानसभा चुनाव में लोजपा के एनडीए में आने से कुछ प्रभाव जरूर पड़ेगा। यह जिला गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय का भी प्रभाव क्षेत्र है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मां को अपशब्द कहे जाने के बाद उन्होंने तेजस्वी प्रसाद यादव को खुली चुनौती दे दी है। इससे इस चुनाव में दो यदुवंशियों के संघर्ष का भी गवाह बनेगा।
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