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    Bihar Assembly Election 2025 : बिहार की राजनीति को अभी जकड़े है दुर्गुणों का दशानन

    Updated: Wed, 01 Oct 2025 02:03 PM (IST)

    भ्रष्टाचार और उसके विरुद्ध कार्रवाई के दो विश्व रिकार्ड बनाने वाले बिहार की सुगति और दुर्गति की सच्चाई के लिए यह शेर भी खूब है। अब तो राजनीति भी मानने लगी है बेमन या स्वार्थ में ही सही क्योंकि चुनाव सिर पर है। यह मात्र कीचड़ उछालने की राजनीति है।

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    बिहार की सुगति और दुर्गति की सच्चाई

    विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। भ्रष्टाचार और उसके विरुद्ध कार्रवाई के दो विश्व रिकार्ड बनाने वाले बिहार की सुगति और दुर्गति की सच्चाई के लिए यह शेर भी खूब है। अब तो राजनीति भी मानने लगी है, बेमन या स्वार्थ में ही सही, क्योंकि चुनाव सिर पर है। बावजूद भ्रष्टाचार पर ही जीत-हार के निर्णय पर शंका जताई जा रही, क्योंकि जनता भुलक्कड़ होती है। दूसरा कारण यह कि बोफोर्स घोटाला के बाद भ्रष्टाचार किसी चुनाव मेंं प्रमुख मुद्दा नहीं बन पाया।

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    लालू प्रसाद अपदस्थ हुए तो उसके कारण में भ्रष्टाचार के साथ अपराध और जातीय संघष भी था। बिहार तब जंगलराज का पर्याय बन गया था। हालांकि, अब सुशासन पर भी अंगुली उठने लगी है, लेकिन वह राजनीतिक आरोपों से आगे अदालती मामला नहीं बन पा रही। जनता विस्मित है कि आखिर हो क्या रहा है! यह मात्र कीचड़ उछालने की राजनीति है या तह तक जाकर गंदगी की सफाई करने की मंशा! 

      

    भ्रष्टाचार के हवाले से जन सुराज पार्टी के सूत्रधार प्रशांत किशोर सरकार पर आक्रामक बने हुए हैं। मोर्चा राजद ने भी खोल रखा है, जिसके दामन से दाग अभी धुले भी नहीं और आंख जब-तब कांग्रेस की दिखा दे रही, जिसके मुख्यमंत्रियों (अब्दुल गफूर और जगन्नाथ मिश्र) पर विधानसभा के भीतर ही अंगुली उठती रही है। बिहार की राजनीति का यही फरेब है, जो राज्य के विकास को बाधित कर रहा। लालू-राज में चारा घोटाले जैसे मामलों ने भ्रष्टाचार को चरम पर पहुंचाया, जिससे अर्थव्यवस्था चरमरा गई।

    नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सुशासन का दावा किया, लेकिन प्रशांत किशोर इसे लालू से भी बदतर सरकार बता रहे और तेजस्वी यादव संस्थागत भ्रष्टाचार को प्रश्रय दिए जाने का आरोप लगा रहे। नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार, 70877 करोड़ का उपयोगिता प्रमाण-पत्र नहीं मिला। राजद इसे घोटाला बता रहा, जबकि इसमें उन वर्षाें की राशि भी समाहित है, जब तेजस्वी उप मुख्यमंत्री हुआ करते थे। 

      

    बहरहाल यह आरोप उस बिहार पर लगाया जा रहा, जिसे 2012 में देश का सबसे पारदर्शी राज्य बताया गया था। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल का वह दावा अब कमजोर पड़ रहा। राज्य में आरटीआइ, ई-गवर्नेंस और डिजिटल योजनाओं से कुछ पारदर्शिता आई, लेकिन जातिवाद, परिवारवाद और अपराधीकरण आदि विकास में बाधक बने हुए हैं। इस कारण भूमि सुधार और औद्योगिक निवेश में भी अड़चन है। बेरोजगारी 15 प्रतिशत से अधिक की दर से बढ़ रही है।

    पेपर- लीक और ओएमआर शीटों की पारदर्शिता की कमी से युवाओं में क्षोभ है। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के 66 प्रतिशत विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इस बार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ये दुर्गुण और गहराते दिख रहे, क्योंकि बाजुओं में दम वाले मुखर हो चुके हैं। कुछ दल साफ-सुथरी राजनीति का वादा कर रहे, लेकिन जातीय अड़ंगा पूर्ववत है। यह बेबसी उस भदेस राजनीति की बदौलत है, जो अपनी और अपने पुरखों की कारगुजारियों पर शर्माने के बजाए खोखले वादों पर इतराए जा रही। इस दिखावे के कारण असमानता बढ़ती जा रही।

    राजनेताओं और आम आदमी की आय में 50गुणा से अधिक का अंतर है। सत्ता कुछ चुनिंदा राजनीतिक परिवारों (लगभग 1250 परिवार) के हाथों में सिमट गई है, जहां उत्तराधिकारी बिना योग्यता के टिकट पा रहे। इससे नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व प्रभावित हो रहा, जो सुधार के लिए सर्वाधिक व्याकुल है। 

    पहल और परिणाम 

    नीतीश कुमार की सरकार जब न्याय के साथ विकास की बात करती है, तो स्पष्ट रूप से वह भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस की बात कर रही होती है। 2005 में सत्ता मिलने के बाद से ही भ्रष्टाचार विरोधी और प्रशासनिक सुधारों पर केंद्रित उनका शासन देश-दुनिया में चर्चा में आया। इन सुधारों से बिहार की छवि विकासशील राज्य की बनी। 2012 में बिहार को भारत का सबसे कम भ्रष्ट राज्य बताया था।

    वह नीतीश कुमार के शुरुआती सुधारों का परिणाम था। जीएसडीपी में 22 प्रतिशत की वृद्धि और बुनियादी ढांचे में सुधार से भ्रष्टाचार के अवसर कुछ हद तक कम हुए। विशेष निगरानी इकाई और अवैध संपत्ति जब्त करने जैसी पहल से भ्रष्ट अधिकारियों पर दबाव बना, लेकिन भ्रष्टाचार के मामलों में सजा की कम दर ऐसे लोगों को ढीठ बनाए हुए है। 

      

    संदर्भ और संभावना

    बिहार में भ्रष्टाचार अब मात्र आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक संकट बन गया है। यह पलायन, अपराध में वृद्धि और विकास में रुकावट का कारण है। चुनाव में यह मुद्दा जोर पकड़ सकता है, लेकिन राजद का अपना इतिहास इसे कमजोर बनाता है। वास्तविक बदलाव तभी होगा, जब पार्टियां दागियों को टिकट न दें और पारदर्शी शासन सुनिश्चित करें। हालांकि, जातिगत समीकरण (यादव, कुर्मी, कोइरी) और परिवारवाद (लालू परिवार, नीतीश का कोर ग्रुप) पर आधारित राजनीति के कारण इस पर संशय है। 

    पहले पहल के दो उदाहरण 

    • लालू द्वारा पद छोड़ने की घटना भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसने राष्ट्रीय स्तर पर बहस छेड़ दी। उससे पहले या बाद में दूसरे मुख्यमंत्रियों (जयललिता आदि) पर भी आरोप लगे, लेकिन लालू पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने आरोपों के दबाव में मुख्यमंत्री का पद छोड़ा। सजा होने के बाद उनकी सांसदी भी चली गई थी। 
    • भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित होने वाले शिवशंकर वर्मा बिहार कैडर के 1981 बैच के आइएएस अधिकारी थे। पटना के रुकनपुरा स्थित उनके आलीशान घर को जब्त किया गया, जो राज्य में पहला ऐसा मामला था। सरकार ने उसे गरीब बच्चों के लिए प्राथमिक स्कूल में बदल दिया। 2011 में आठ सितंबर को साक्षरता दिवस पर यह स्कूल शुरू हुआ।

    10 दुर्गुण हैं राजनीति में 

    • 01. भ्रष्टाचार :  कांग्रेस-राज के उत्तराद्ध से बिहार की राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ता गया। लालू-राबड़ी के शासन-काल में वह चरम तक पहुंचा। तब भ्रष्टाचार और फर्जीवाड़ा के आरोप में बीपीएससी के दो-दो चेयरमैन तक जेल गए। नीतीश कुमार ने जीरो टालरेंस की नीति के लिए कई सुधार किए, जो प्रभावी भी हुए। अब संस्थागत भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे। भ्रष्टाचार से मेधा पीछे छूट जाती है, गरीबी आगे बढ़ती है। इस बार इस मुद्दे को विपक्ष हथियार बना सकता है। विकास में मुख्य बाधा भ्रष्टाचार है। यह न केवल प्रगति को बाधित करता है, बल्कि सामाजिक सद्भाव और आर्थिक विकास को भी प्रभावित करता है। 
    • 02. जातिवाद  : बिहार की राजनीति आज भी जाति समीकरणों (माय, लव-कुश आदि) पर टिकी है। एनडीए और महागठबंधन दोनों ही जातियों, विशेषकर पिछड़ा, अति-पिछड़ा, अनुसूचित जाति और मुसलमान को साधने में लगे हैं। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी जाति-निरपेक्ष राजनीति का दावा कर रही है, लेकिन टिकट वितरण जातिगत समीकरणों पर ही होना है। इससे विकास के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। इस बार चुनाव में जाति जनगणना और आरक्षण का मुद्दा हावी रहेगा।
    • 03. संप्रदायवाद : चुनावी राजनीति में धर्म-जाति का उपयोग (जैसे वोट खरीदना या सर्वेक्षण का दुरुपयोग) सामाजिक एकता को तोड़ता है। इससे हिंसा और असमानता बढ़ती है। राजनीति की अधो-गति के कारण ही भागलपुर दंगा हुआ था। उसके बाद बिहार ने कुछ सबक लिया। पिछले वर्षों में छिटपुट दुस्साहस भी हुआ, जो नियंत्रित हो गया, लेकिन क्षेत्रीय असमानता और धर्मभीरू समाज के कारण इसकी आशंका बनी रहती है। इस बार इस मुद्दे को हवा दिए जाने की जुगत है।  
    • 04. वंशवाद : वंशवाद और परिवारवाद घुले-मिले हैं। महागठबंधन में परिवारवाद हावी है, तो एनडीए भी दूध का धुला नहीं। बिहार में इसकी जड़ें गहरी हैं, जो 1990 के दशक से मजबूत हुईं। कई प्रमुख पार्टियां तो परिवार तक ही सिमटी हुई हैं। यादव परिवार, पासवान परिवार, मांझी परिवार, बाहुबलियों के परिवार इसके ताजा उदाहरण हैं। जनता इसे राजनीतिक गुलामी और कुशासन का असली कारण बता रही। इस बार युवा मतदाता इसके विरुद्ध मुखर हो सकते हैं।   
    • 05. अपराधीकरण : आपराधिक छवि वाले विधायकों-सांसदों की बढ़ती संख्या ने राजनीति को हिंसा और माफिया राज से जोड़ दिया है। 66 प्रतिशत विधायकों पर आपराधिक मामले हैं। एक बार फिर जंगलराज की वापसी की आशंका जताई जा रही। अपराध दर बढ़ रही। पुलिस पर निष्क्रियता के आरोप लग रहे। कभी बिहार को 'क्राइम कैपिटल' कहा जाता था, जहां हत्याएं, लूट और पुलिस की निष्क्रियता आम थी। अपराध से विकास का सीधा वास्ता है। बिहार के पिछड़ेपन का यह बड़ा कारण इस बार चुनावी मुद्दों में हावी रहेगा।  
    • 06. अवसरवादिता : इस राज्य में तो सरकारें तक पाला बदल देती हैं और इसकी चिंता में निपढ़-निमूढ़ स्वजन को भी मुख्यमंत्री बना दिया जाता है। गठबंधन की अस्थिरता से अवसरवादिता बढ़ती है। सरकार की नीतियां अस्थिर होती हैं और जनता का विश्वास टूटता है। थोड़े-बहुत वादे भले ही पूरे हों, लेकिन धरातल पर सुनवाई-कार्रवाई में पारदर्शिता कम हो जाती है। रचनात्मक आंदोलनों में विपक्ष भी सुस्त पड़ जाता है, क्योंकि वह सत्ता की मलाई चाटने के अवसर की ताक में लगा होता है। 
    • 07. दृष्टि-हीनता : बिहार की जड़ता का मूल कारण राजनीति का दृष्टि-हीन होना है। शिक्षा और शोध-बोध से वंचित समाज राजनीति को नई दिशा दे भी नहीं सकता। राजनेताओं में उद्दंडता और मनमानी की प्रवृत्ति एक कारण यह भी है। कामचोरी वाला स्वभाव और मुफ्तखोरी के वादे बता रहे कि जनता के एक बड़े हिस्से के लिए यह स्वीकार्य स्थिति हो गई है। इसमें बदलाव के लिए नई पीढ़ी भीतर-ही-भीतर कुलबुला रही। हालांकि, खांचों में बंटे हुए समाज के कारण इस बुलबुल के फूटने की संभावना कम है।   
    • 08. पर-निर्भरता : पढ़ाई-लिखाई से लेकर आय-व्यय तक के लिए बिहार की निर्भरता केंद्र और दूसरे राज्यों पर है। इस स्थिति का सीधा संबंध राजनीति की दृष्टि-हीनता से है। पिछले दो दशक में इस स्थिति में हुआ सुधार भी आंशिक ही है। बुनियादी सुविधाओं-संरचनाओं की कमी से रोजी-रोजगार के अवसर सीमित होते हैं। अप्रवासन बढ़ता है, जो नई पीढ़ी के साथ महिलाओं को भी अतिशय पीड़ा देता है। मेधा और श्रम से बिहार समृद्ध है, जबकि साधन-संपन्न पड़ोसी है। नए राजनीतिक दल इस विसंगति को दूर करने का दंभ भर रहे।  
    • 09. संप्रभुता : राजनेताओं की आय आम आदमी से औसतन 50 गुना अधिक है, जो बिहार की 30 प्रतिशत गरीबी दर (राष्ट्रीय औसत 22 प्रतिशत से ऊपर) के मूल कारण की स्वत: व्याख्या कर देती है। 2015 से 2020 तक विधायकों की औसत संपत्ति तीन गुना बढ़ी। विधानसभा के पिछले चुनाव में प्रति विधायक औसत संपत्ति 5.75 करोड़ रुपये रही। दूसरी तरफ प्रति व्यक्ति जीएसडीपी 2023-24 में लगभग 60180 रुपये रहा, जो राष्ट्रीय औसत (185000 रुपये) से काफी कम था।
    • 10. असमानता : बिहार का बहुआयामी गरीबी सूचकांक (57 स्कोर) राष्ट्रीय औसत का दोगुना है। हर स्तर पर असमानता के कारण छह-सात प्रतिशत जनसंख्या हिस्सा प्रवासन कर रही। 15 प्रतिशत से ऊपर बेरोजगारी दर के कारण लाखों युवा रोजगार की तलाश में बाहर जा रहे। इससे राज्य की अर्थव्यवस्था के साथ परिवार भी प्रभावित हो रहे। बिहार का बहुआयामी गरीबी सूचकांक (57 स्कोर) राष्ट्रीय औसत का दोगुना है। उद्योगों की कमी के कारण 40 प्रतिशत से अधिक युवा प्रवासन कर रहे। एनडीए और महागठबंधन दोनों नौकरी वादे कर रहे।