[संजय गुप्त] बीते दिनों कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने असंतुष्ट माने जाने वाले पार्टी के 23 नेताओं के साथ बैठक कर उन मसलों को सुलझाने की कोशिश की, जो इन नेताओं ने करीब चार माह पहले लिखी चिट्ठी में उठाए थे। लगता नहीं कि इस बैठक से बात बनी, क्योंकि इस पर कुछ कहा नहीं गया। उलटे यह बताया गया कि पार्टी राहुल गांधी को अध्यक्ष बनते हुए देखना चाहती है। इसके एक दिन पहले ही गांधी परिवार के करीबी रणदीप सिंह सुरजेवाला की ओर से यह कहा गया था कि कांग्रेस के 99.99 प्रतिशत नेता राहुल को अध्यक्ष बनाना चाहते हैं। कांग्रेस और गांधी परिवार जो भी फैसला ले, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि 23 नेताओं ने सोनिया गांधी को भेजी गई चिट्ठी में जो मसले उठाए थे, उनमें से एक यह भी था कि कांग्रेस राजनीतिक विमर्श में पिछड़ती जा रही है और वह भाजपा को चुनौती नहीं दे पा रही है। यह एक सच्चाई भी है, क्योंकि भाजपा और मोदी सरकार के विरोध के नाम पर या तो उथली बयानबाजी की जा रही है या फिर कटाक्ष भरे ट्वीट। राहुल यह समझने को तैयार नहीं कि सरकार के अंध विरोध को राजनीति नहीं कहा जा सकता।

एक समय कांग्रेसजनों ने यह माहौल बनाया था कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस बिखर जाएगी, लेकिन आज की हकीकत यह है कि यह परिवार पार्टी के लिए बोझ बन गया है। कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है। वह सबसे ज्यादा कमजोर तब हुई जब राहुल गांधी ने उपाध्यक्ष और अध्यक्ष के रूप में उसकी कमान संभाली। बावजूद इसके यही कहा जा रहा है कि उन्हें फिर से अध्यक्ष बनना चाहिए। यदि वह अध्यक्ष बनने को तैयार होते हैं तो फिर यह संभव ही नहीं कि इस पद के लिए चुनाव लड़ने के लिए कोई और सामने आए। कांग्रेस अपने विचारों और नीतियों से तो अलग होती ही जा रही है, उस पर वामपंथी दलों की सोच भी हावी हो रही है। वह केरल में वाम दलों के खिलाफ है, लेकिन बंगाल में उनके साथ ही चुनावी लड़ने की तैयारी कर रही है। आखिर यह वैचारिक खोखलेपन और भटकाव का प्रमाण नहीं तो और क्या है?

किसान संगठनों के पक्ष में राहुल गांधी वही भाषा बोल रहे जो वाम दल बोल रहे

यह भी कांग्रेस के वैचारिक खोखलेपन का प्रमाण ही कहा जाएगा कि बीते लोकसभा चुनावों के पहले राहुल ने मंदिर-मंदिर जाना और खुद को दत्तात्रेय ब्राह्मण बताना शुरू किया। इसके कोई सकारात्मक नतीजे न मिलने थे, न मिले, क्योंकि सब जान रहे थे कि यह महज एक दिखावा है। कांग्रेस खुद को सांप्रदायिकता से लड़ने वाले दल के रूप में प्रचारित करती है, लेकिन केरल में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है। पिछले लोकसभा चुनाव में वायनाड में राहुल की जीत मुस्लिम लीग के सहयोग- समर्थन से ही संभव हो सकी। राहुल जिस वामपंथ के प्रभाव में आते जा रहे हैं, वह वही है जो दुनिया भर में अप्रासंगिक हो रहा है। यह वामपंथ के असर का ही प्रमाण है कि राहुल दिल्ली में डेरा डाले किसान संगठनों के पक्ष में वही भाषा बोल रहे हैं, जो वाम दल बोल रहे हैं।

राष्ट्रपति से मिले थे राहुल गांधी

कुछ दिन पहले राष्ट्रपति से मिलकर कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग करने के बाद राहुल गांधी ने अपना यह पुराना राग फिर अलापा कि मोदी अपने तीन-चार पूंजीपति मित्रों की मदद के लिए ये कानून लाए हैं। उनका यह राग तब से चल रहा है जबसे मोदी प्रधानमंत्री बने हैं। उनकी मानें तो यह सरकार कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों के लिए ही काम करती है। उन्होंने यह आरोप 2019 के लोकसभा चुनाव में भी खूब उछाला। नतीजा क्या रहा, यह सबको पता है। राष्ट्रपति से मुलाकात के बाद राहुल ने यह भी तंज कसा कि अब देश में लोकतंत्र रह ही नहीं गया है और जो है वह केवल कल्पना में है।

राहुल की जैसी सोच और कार्यशैली है उससे पार्टी का नहीं होने वाला भला

यह अच्छा हुआ कि इसका जवाब गत दिवस खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की कथनी और करनी को रेखांकित करके दिया। आखिर परिवार को पार्टी का पर्याय बना देने वाले किस मुंह से लोकतंत्र की सीख दे रहे हैं? भले ही कांग्रेसी यह कहते हों कि राहुल राजनीतिक रूप से बहुत मेधावी हैं, लेकिन उनकी बातें उनके खोखले राजनीतिक चिंतन की ही गवाही देती हैं। एक समस्या यह भी है कि वह राजनीति के प्रति सर्मिपत नहीं दिखते। बिहार में हालिया विधानसभा चुनाव के बीच वह छुट्टी मनाने चले गए। इस पर हैरानी नहीं कि कांग्रेस के 23 नेताओं ने अपनी चिट्ठी में इसका उल्लेख किया था कि अगर राहुल को अध्यक्ष के तौर पर काम करना है तो वह पर्याप्त गंभीरता दिखाएं। वास्तव में इस चिट्ठी में जो नहीं लिखा गया, वह यह था कि राहुल की जैसी सोच और कार्यशैली है, उससे कांग्रेस का भला नहीं होने वाला।

कृषि सुधारों पर वाम दलों जैसी सोच दिखा रही कांग्रेस

यदि बीते चार दशक की राजनीति को देखा जाए तो कांग्रेस का स्वर्णिम काल वह था, जब नरसिंह राव ने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को साथ लेकर भारत को एक नई दिशा दी-आर्थिक रूप से भी और कूटनीतिक रूप से भी। विडंबना यह है कि राव सरकार ने जिन कदमों के जरिये देश की अर्थव्यवस्था को उबारा, आज कांग्रेस उनका ही विरोध कर रही है। यह देखना दयनीय है कि कृषि सुधारों पर वह वामदलों जैसी सोच दिखा रही है। वह उन कृषि कानूनों पर किसानों को गुमराह कर रही, जिनकी पैरवी खुद उसने की थी। कांग्रेस और खासकर राहुल ने यही काम नागरिकता संशोधन कानून को लेकर भी किया था। राहुल को इस सरकार के हर काम में खराबी दिखती है। कोविड-19 पर नियंत्रण के मामले में एक मिसाल कायम करने के बाद भी वह सरकार को कोसने में लगे हुए हैं।

कांग्रेस भाजपा पर तो यह आरोप मढ़ती है कि वह मतदाताओं का ध्रुवीकरण कर हिंदू-मुस्लिम खाई को बढ़ा रही, लेकिन यह देखने से इन्कार करती है कि खुद उसने मुस्लिम तुष्टीकरण करके यह खाई पैदा की है। कांग्रेस नेतृत्व यह देखने को भी तैयार नहीं कि पार्टी किस तेजी से अपनी जमीन खोती जा रही है। एक के बाद एक राज्यों में क्षेत्रीय दल उसकी राजनीतिक जमीन पर कब्जा करते जा रहे हैं। इसी कारण वह राष्ट्रीय स्तर पर कहीं अधिक कमजोर दिखने लगी है। वह कोई ऐसा विचार सामने नहीं रख पा रही है, जो जनता को आर्किषत कर सके। बेहतर होगा कि कांग्रेस के असंतुष्ट नेता हिम्मत जुटाकर यह कह सकें कि गांधी परिवार के हावी रहते पार्टी का भला नहीं होने वाला।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]