राजीव सचान। हम प्रायः बड़े अभिमान से कहते हैं-यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहां से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। यह अभिमान करने वाली बात भी है, क्योंकि भारत उन देशों में से है, जहां विदेशी और विशेष रूप से इस्लामी आक्रांताओं के अनगिनत हमलों और उनके लंबे दमनकारी शासन के बाद भी भारतीय संस्कृति अपना अस्तित्व बचाए रही, लेकिन हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि पाकिस्तान में बचे-खुचे हिंदू मंदिरों को आए दिन या तो तोड़ा जा रहा है या फिर उनका उपयोग पार्किंग, गोदाम, पशुओं के बाड़े आदि के रूप में किया जा रहा है। पाकिस्तान में अब गिनती के ही मंदिर बचे हैं। उन्हें भी नष्ट करने या फिर उन पर अवैध कब्जा करने का सिलसिला कायम है।

हाल में पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में शारदा पीठ मंदिर की एक दीवार को तोड़कर वहां काफी हाउस बनाने की तैयारी की खबर आई। कुछ दिनों पहले सिंध प्रांत में हिंगलाज मंदिर को भी तोड़ा गया। पिछले सप्ताह अहमदपुर सियाल में एक ऐतिहासिक सीता-राम मंदिर को तोड़कर वहां चिकन की एक दुकान खोल दी गई। पाकिस्तान में यह सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा है। वास्तव में वह हजारों साल पुरानी हमारी सभ्यता से जुड़ी धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने पर तुला है। वैसे तो इस विरासत का वारिस पाकिस्तान भी है, लेकिन उसे वह न केवल नकारता है, बल्कि उससे नफरत भी करता है। वह ऐसा इसीलिए करता है, क्योंकि वहां भारत और हिंदुओं के प्रति बैर भाव को बढ़ावा दिया जाता है।

पाकिस्तान के मुल्ला-मौलवियों के साथ अन्य अनेक कट्टरपंथी तत्व ऐसे हैं, जो गजवा-ए-हिंद का सपना पाले हुए हैं। ऐसे कट्टरपंथी तत्व भारतीय मुसलमानों को भी बरगलाते हैं कि गजवा-ए-हिंद के सपने को साकार किया जा सकता है। कथित तौर पर एक हदीस में गजवा-ए-हिंद का उल्लेख है। हालांकि अनेक इस्लामी विद्वान इस हदीस को फर्जी मानते हैं, पर उसे सही मानने वालों की भी कमी नहीं। कुछ समय पहले राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए ने देश के कई शहरों में छापेमारी कर गजवा-ए-हिंद नामक आतंकी माड्यूल का भंडाफोड़ किया था। इस माड्यूल का संचालन पाकिस्तान से हो रहा था। इस माड्यूल में मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र के कई शहरों के युवक शामिल थे।

पाकिस्तान में जैसे हिंदू मंदिर गिनती के रह गए हैं, वैसे ही हिंदुओं के साथ सिख और ईसाई भी। इन तीनों अल्पसंख्यक समूहों की आबादी मुश्किल से तीन-चार प्रतिशत रह गई है। हिंदुओं की आबादी घटते-घटते डेढ़ प्रतिशत बची है। इसका बड़ा कारण उनका उत्पीड़न है। पाकिस्तान में हिंदू, सिख और ईसाई समाज की लड़कियों का अपहरण कर उन्हें जबरन मुस्लिम बनाने और फिर उनका निकाह कर उन्हें अगवा करने वालों के साथ ही कर देना एक रिवाज बन गया है। वहां सबसे अधिक अपहरण और जबरन निकाह हिंदू लड़कियों का होता है। अधिकांश लड़कियां नाबालिग होती हैं, मगर पुलिस से लेकर अदालतें तक उन्हें बालिग करार देने में कोई कसर नहीं छोड़तीं।

पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठनों के अनुसार सिंध प्रांत में हर सप्ताह तीन-चार हिंदू लड़कियों का अपहरण किया जाता है। इस बारे में खबरें इंटरनेट मीडिया तक ही सीमित रहती हैं। वहां के अखबार और टीवी चैनल हिंदू लड़कियों के अपहरण की घटनाओं का संज्ञान कभी-कभार ही लेते हैं। आम तौर पर वे ऐसा तभी करते हैं, जब हिंदू समाज के लोग अपनी लड़कियों के अपहरण के विरोध में धरना-प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतर आते हैं। पाकिस्तान के मुल्ला-मौलवियों के साथ वहां के शासकों पर भी गैर-मुसलमानों को मुस्लिम बनाने की सनक सवार है। इसका एक उदाहरण तब मिला था, जब अनवारूल हक काकड़ पाकिस्तान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने थे। उनके कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनते ही उनका तीन साल पुराना वह ट्वीट वायरल हो गया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि वह उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब सभी हिंदू इस्लाम के सत्य को समझ लेंगे।

इसके लिए हम हजार साल तक इंतजार कर सकते हैं, कोई जल्दी नहीं हैं। उन्हें भले ही कोई जल्दी न हो, लेकिन पाकिस्तान के कट्टरपंथी जितनी जल्दी हो सके, अपने यहां के अल्पसंख्यकों को मुस्लिम बनाने पर आमादा हैं। मुल्ला-मौलवियों की यह बीमारी पाकिस्तानी समाज में किस कदर घर कर गई है, इसका प्रमाण पाकिस्तानी क्रिकेटरों की ओर से अन्य देशों के गैर-मुस्लिम खिलाड़ियों को दीन की दावत देते रहने से मिलता है। पाकिस्तान सरीखे हालात बांग्लादेश में भी हैं। वहां भी हिंदुओं के उत्पीड़न का सिलसिला कायम है। बांग्लादेश में भी हिंदुओं की आबादी तेजी से घट रही है। वहां अगले वर्ष जनवरी में चुनाव होने हैं। यदि प्रधानमंत्री शेख हसीना सत्ता बचाए रखने में सफल नहीं होतीं तो बांग्लादेश में हिंदुओं के दमन एवं उत्पीड़न का सिलसिला और तेज होने की भरी-पूरी आशंका हैं।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पंसख्यकों की दयनीय दशा की चर्चा के बीच अफगानिस्तान की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। 1990 में वहां हिंदुओं एवं सिखों की आबादी दो-ढाई लाख के करीब थी, पर जब तालिबान ने पहली बार वहां सत्ता कब्जाई तो उनका जीना मुहाल हो गया और उनका पलायन शुरू हो गया। जब तालिबान फिर से काबुल पर काबिज हुए तो बचे-खुचे हिंदुओं ने वहां से निकल भागने में ही भलाई समझी। अब वहां 50 से भी कम हिंदू-सिख हैं। पता नहीं वे कब तक वहां बचे रह सकेंगे? विडंबना यह है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पंसख्यकों के उत्पीड़न के बाद भी नागरिकता संशोधन कानून के अमल की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)