जागरण संपादकीय: राजनीतिक हवा बदलने वाले चुनाव, कांग्रेस की स्थिति कमजोर; भाजपा को नई ऊर्जा
इन नतीजों से भाजपा को नई ऊर्जा मिलेगी कि लोकसभा चुनाव एक तात्कालिक झटका था न कि उसके निरंतर पराभव की शुरुआत। हालांकि भाजपा को किसी भी प्रकार का अति-आत्मविश्वास भारी पड़ सकता है। इन चुनावों में सभी राजनीतिक दलों के लिए एक संदेश यह भी निहित है कि प्रत्येक चुनाव की प्रकृति एवं स्वरूप अलग होता है और उसके लिए तैयारी भी उसी अनुरूप होनी चाहिए।
राहुल वर्मा। मंगलवार को आए जम्मू-कश्मीर और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे कुछ अप्रत्याशित एवं स्तब्ध करने वाले रहे। ऐसा इसलिए, क्योंकि जहां जम्मू-कश्मीर में यह माना जा रहा था कि वहां किसी पार्टी या गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा और विधानसभा का स्वरूप त्रिशुंक हो सकता है, वहीं हरियाणा में कांग्रेस की जीत बहुत आसान लग रही थी।
कई राजनीतिक पंडितों से लेकर एक्जिट पोल भी इसी ओर संकेत कर रहे थे, लेकिन मतगणना के दिन कहानी पलट गई।
जहां पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त होने के बाद पहली बार हुए जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों में नेशनल कांफ्रेंस यानी नेकां और कांग्रेस गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल गया वहीं हरियाणा में भाजपा ने एक तरह से हारी हुई बाजी पलट कर इतिहास रच दिया।
अपनी स्थापना के बाद से हरियाणा में लगातार तीसरी बार कोई सरकार सत्ता में वापसी नहीं कर पाई और राज्य के तमाम समीकरणों को धता बताते हुए भाजपा ऐसा झंडा गाड़ने में कामयाब रही है। चुनाव नतीजों की पड़ताल से पहला बिंदु यही उभरता है कि लोकसभा चुनाव में अपेक्षा से कुछ अधिक सफलता मिलने पर कांग्रेस जहां अति-आत्मविश्वास की शिकार हो गई, वहीं भाजपा ने संसदीय चुनाव में अपेक्षाकृत सफलता न मिलने के बाद अपनी कमियों को चिह्नित कर उन्हें सुधारने की दिशा में काम किया।
कांग्रेस किसान-जवान और पहलवान से जुड़े अपने अभियान से बने माहौल के भरोसे रही तो भाजपा ने अपनी महीन रणनीति से प्रतिकूल परिस्थितियों को ही पलट दिया। पार्टी के भीतर उपजे ऊहापोह, असंतोष और अनिश्चितताओं को कांग्रेस दूर नहीं कर पाई, तो भाजपा ने एकजुट होकर सोशल इंजीनियरिंग के समीकरणों को दुरुस्त करते हुए माइक्रो मैनेजमेंट के जरिये बाजी अपने नाम की। कांग्रेस जिस जाट वोट बैंक को अपनी ताकत मानकर चल रही थी, भाजपा ने उसे ही कांग्रेस की कमजोरी बना दिया। अखाड़ा तो कांग्रेस ने सजाया था, लेकिन जीत का सेहरा भाजपा के सिर बंधा।
इस जनादेश से उसी रुझान की पुरजोर पुष्टि हुई, जो लोकसभा चुनावों के समय भी दिखा था और वह यह कि देश की राजनीति अब दो-ध्रुवीय अधिक होती जा रही है, जिसमें मुख्य रूप से दो दलों या गठबंधनों के बीच ही मुकाबला देखने को मिल रहा है और तीसरे मोर्चे के लिए गुंजाइश सिकुड़ती जा रही है। लोकसभा चुनावों में भी जो दल राजग या आईएनडीआईए का हिस्सा नहीं थे, उनकी सफलता बहुत सीमित रही।
जम्मू-कश्मीर एवं हरियाणा विधानसभा चुनावों में भी यही सामने आया। जम्मू-कश्मीर में दस साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में सबसे बड़ा दल रही महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी महज तीन सीटों पर सिमट गई और पार्टी की परंपरागत सीट से इल्तिजा मुफ्ती तक चुनाव हार गईं। इसी तरह इंजीनियर राशिद और अन्य छोटी पार्टियों के हिस्से भी सफलता नहीं आई।
गौर से देखें तो कांग्रेस का प्रदर्शन भी पिछली बार से खराब है, लेकिन गठबंधन की वजह से वह सत्ता में साझेदार रहेगी। हरियाणा के पिछले चुनाव में दस सीटों के साथ किंगमेकर बनकर उभरी जननायक जनता पार्टी यानी जजपा का इस बार खाता भी नहीं खुल पाया। पूर्व उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला तक की जमानत जब्त हो गई और वह दस हजार वोट नहीं हासिल कर पाए। चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के साथ गठबंधन भी उनके लिए किसी काम का नहीं रहा।
उनके परिवार से जुड़ी इनेलो की हालत भी पस्त रही और पार्टी के मुखिया अभय चौटाला भी चुनाव हार गए। हालांकि किसी तरह पार्टी की झोली में दो सीटें आईं। इनेलो ने इस चुनाव में बसपा के साथ गठबंधन किया था। हालांकि हरियाणा में प्रमुख दलों के बागी इक्का-दुक्का सीटों पर जीत गए, पर उन्होंने भी जीतने के बाद भाजपा को समर्थन दे दिया है। इससे राज्य में भाजपा का आंकड़ा 51 तक पहुंच गया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों राज्यों के चुनावी नतीजों का असर आगामी विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। आईएनडीआईए में कांग्रेस की स्थिति कमजोर होने के साथ ही सियासी मोलभाव की उसकी ताकत घटेगी। इसके संकेत भी दिखने लगे हैं। नतीजों के अगले दिन ही समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में विधानसभा उपचुनावों के लिए अपने प्रत्याशियों की सूची जारी करके तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने जुबानी तीर चलाकर कांग्रेस को संदेश देने शुरू कर दिए।
यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले उमर अब्दुल्ला ने भी यह कहकर कांग्रेस को आईना दिखाया कि उसने जो सीटें जीती हैं, वे उनकी पार्टी आसानी से जीत सकती थी। स्वाभाविक है कि कांग्रेस को गठबंधन के समीकरण दुरुस्त करने होंगे, क्योंकि उसके सहयोगियों को यह लगता है कि वह उनकी परवाह उन्हीं राज्यों में करती है, जहां वह कमजोर होती है।
हरियाणा चुनाव कांग्रेस के लिए अपनी स्थिति को मजबूत करने का एक बढ़िया मौका था, जो उसने गंवा दिया। परिणामस्वरूप, लोकसभा में महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उसने जो बढ़त बनाई थी, उस पर अब शिवसेना-यूबीटी और शरद पवार की पार्टी हावी होने का प्रयास करेगी तो झारखंड में वह पहले से ही झामुमो की पिछलग्गू पार्टी है। दूसरी ओर भाजपा के लिए ये नतीजे संबल देने वाले और उसका आत्मविश्वास बढ़ाएंगे जो लोकसभा के अप्रत्याशित नतीजों के बाद डांवाडोल होता दिख रहा था।
भाजपा हरियाणा से सबक लेकर महाराष्ट्र में भी सत्ता विरोधी रुझान को मात देने की युक्ति खोजेगी। झारखंड में झामुमो के विरुद्ध सत्ता विरोधी रुझान को भुनाएगी तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी का किला ध्वस्त करने का सोचेगी। इन दोनों ही राज्यों में सत्तारूढ़ दल एक जैसी मुश्किल से जूझ रहे हैं, जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों और कानूनी पेचीदगियों का सामना करना पड़ रहा है।
(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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