योग-साधना
जीव को परमार्थतत्व का ज्ञान होना ही योग है। इसकी प्राप्ति चित्त की एकाग्रता से होती है और चित्त की एकाग्रता चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण से आती है। इसके लिए योग के अंतर्गत आठ प्रकार के साधन बताए गए हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। यम का प्रथम हेतु अहिंसा है। सभी प्राणियों में आत्मवत-दृष्टि रखने तथा उनके हित के लिए प्रवृत्त रहना ही 'अहिंसा' है। सत्य, अस्तेय , ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह भी यम के आधार हैं। शौच, यज्ञ, तप, दान, स्वाध्याय, इंद्रिय निग्रह, व्रत, उपवास, मौन तथा स्नान ये दस प्रकार के 'नियम' हैं। 'शुचिता' दो प्रकार की कही गई है- वाह्य तथा आभ्यंतर। योग-साधना में आंतरिक शुचिता पर विशेष बल दिया गया है। वज्रासन, पद्मासन, सुखासन, सिद्धासन आदि किसी भी एक आसन में बैठकर साधना करनी चाहिए, किंतु यह ध्यान रहे कि चाहे जिस आसन में बैठें, मेरुदंड से गर्दन तक सीध में बैठें। प्राण और अपान वायु का निरोध ही 'प्राणायाम' है। अभ्यास करने पर प्राणायाम से साधक के मन, वचन तथा कर्म से उत्पन्न दोष नष्ट हो जाते हैं। विषयों में आसक्त इंद्रियों को उनसे हटाकर इंद्रियों का नियंत्रण ही 'प्रत्याहार' है। हृदय में चित्त को समाहित करना 'धारणा' है। ध्येय-विषय में चित्त की एकाग्रता ही 'ध्यान' है। इस स्थिति में चित्त अन्य वृत्तियों से रहित हो जाता है। इस प्रकार देह शून्यता की स्थिति को प्राप्त यह ध्यान समाधि है। 'प्राणायाम' इस समस्त ध्यान-समाधि का हेतु है। यदि हम चाहें तो योग-साधना के इन आठ क्रमों पर चल सकते हैं। सर्वप्रथम हम यम, नियम को धीरे-धीरे अपनी दैनिक जीवनचर्या का अंग बना लें, फिर किसी एक आसन को सिद्ध कर प्राणायाम करें। इसके पश्चात-धारणा से चित्त को एकाग्र कर प्रत्याहार से इंद्रियों को अपने वश में कर, ध्यान द्वारा समाधि की स्थिति को प्राप्त करें। इस प्रकार योग के आठों अंगों का क्रम से अभ्यास करते हुए हम न केवल अपने और परिवार के जीवन को सुखमय बना सकते हैं, बल्कि समाज और देश का भी कल्याण कर सकते हैं।
[डॉ. सरोजनी पांडेय]
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