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    प्रेम का महत्व

    By Edited By:
    Updated: Mon, 10 Sep 2012 04:28 AM (IST)

    उपनिषदों के अनुसार समस्त विश्व एक आत्मा का ही विस्तार है। एक ही आत्मा जो हममें है वही दूसरों में भी है। उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है, परंतु हम एक दूसरे को पृथक-पृथक देखते हैं और तद्नुसार मित्रता-वैर, सहयोग-असहयोग, प्रेम-घृणा, द्वेष आदि का व्यवहार करते हैं। यह अविद्या या अज्ञान के कारण है, परंतु जब मनुष्य अपने संयम, तप और ईश्वर की कृपा से इस अज्ञान या अविद्या को दूर का पाता है तब उसे सबमें उसी आत्मा का अनुभव होता है। फिर वह किसी को पराया नहीं समझता, किसी से द्वेष नहीं करता। वह सबको आत्मवत् ही समझता है अर्थात् दूसरे के सुख-दुख उसे अपने लगते हैं। उसे सभी जीव, वह स्वयं उसी एक आत्मा के ही रूप में या भगवद्रूप में दिखाई देते हैं। तब वह आनंद से विभोर हो जाता है और सबसे उपस्थित परमात्मा को वंदन एवं नमन करने लगता है। वह सबसे प्रेम करता है और सबके प्रति समर्पण भाव का आ जाता है, परंतु यह स्थिति सबके लिए संभव नहीं है। फिर भी ऋषियों एवं दूसरों के अनुभव से और शास्त्र प्रमाण से हम सब जीवों में ईश्वर को उपस्थित मान सकते हैं और उसी तरह उनसे प्रेम व्यवहार कर सकते हैं। व्यवहार में भी प्रेम का परिणाम दिखाई पड़ता है। प्रेम ही सत्य है, शाश्वत है। प्रेम से ही सर्वत्र सुख शांति और आनंद संभव है। सभी संतों ने भी प्रेम को सर्वश्रेष्ठ साधना माना है। प्रेम उत्पन्न होते ही हृदय के क्रोध, ईष्र्या, मद, मान, मत्सर आदि नकारात्मक तत्व नष्ट हो जाते हैं। प्रेम में मनुष्य अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। प्रेम में साधक जल बिन मछली के समान व्याकुल रहता है। प्रेमी से दूरी और देरी अहसनीय होती है। वह अपना-पराया भूल जाता है। उसे स्वयं अपना बोध नहीं रहता, जैसे रास नृत्य के लिए गोपिकाएं अधूरे श्रृंगार में कृष्ण के पास आ जाती हैं। शबरी जूठे बेर एकत्र करती है। प्रभु से प्रेम होने पर ज्ञान, विज्ञान, तप, ध्यान आदि फीके पड़ जाते हैं। प्रेम होने पर साधक सभी जीवों, सारी सृष्टि से प्रेम करने लगता है। सबमें केवल वही प्रमास्पद दिखाई पड़ता है।

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    [रामकुमार शुक्ल]

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